भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८ से १९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १८ से १९
पञ्चाग्निसाधन नामक रुप-रम्भा-तृतीया तथा गोष्पद-तृतीया व्रत

युधिष्ठिरने पूछा — भगवन् ! इस मृत्युलोक में जिस व्रत के द्वारा स्त्रियों का गृहस्थाश्रम सुचारु-रूप से चले और उन्हे पति की भी प्रीति प्राप्त हो, उसे यताइये ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — एक समय अनेक लताओं से आच्छन्न, विविध पुष्पों से सुशोभित, मुनि और किन्नरों से सेवित तथा गान और नृत्य से परिपूर्ण रमणीय कैलास-शिखर पर मुनियों और देवताओं से आवृत माँ पार्यती और भगवान् शिव बैठे हुए थे । om, ॐउस समय भगवान् शंकर ने पार्वती से पूछा — ‘सुन्दरि ! तुमने कौन-सा ऐसा उत्तम व्रत किया था, जिससे आज तुम मेरी वामाङ्गी के रूप में अत्यन्त प्रिय बन गयी हो ?’

पार्वतीजी बोलीं — नाथ ! मैंने बाल्यकाल में रम्भाव्रत किया था, उसके फलस्वरूप आप मुझे पतिरूप में प्राप्त हुए हैं एवं मैं सभी स्त्रियों की स्वामिनी तथा आपकी अर्धाङ्गिनी भी बन गयी हूँ ।
भगवान् शंकर ने पूछा — भद्रे ! सभी को सौख्य प्रदान करनेवाला वह रम्भाव्रत कैसे किया जाता है ? पिता के यहाँ इसे तुमने किस प्रकार अनुष्ठित किया था ? उसे बताओ ।

पार्वतीजी बोली — देव ! एक समय में बाल्यकाल में अपने पिता के घर सखियों के साथ बैठी थी, उस समय मेरे पिता हिमवान् तथा माता मेना ने मुझसे कहा— ‘पुत्री ! तुम सुन्दर तथा सौभाग्यवर्धक रम्भाव्रत का अनुष्ठान करो, उसके आरम्भ करते ही तुम्हें सौभाग्य, ऐश्वर्य तथा महादेवी-पद की प्राप्ति हो जायगी । पुत्री ! ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को स्नान कर इस व्रत का नियम ग्रहण करो और अपने चारों ओर पञ्चाग्नि प्रज्वलित करो अर्थात् गार्हपत्याग्नि, दक्षिणाग्नि, आहवनीय तथा सभ्याग्नि और पाँचवें तेजःस्वरूप सूर्याग्नि का सेवन करो । इसके बीच में पूर्व की दिशा की ओर मुखकर बैठ जाओ और मृगचर्म, जटा, वल्कल आदि धारण कर चार भुजाओं वाली एवं सभी अलंकारों से सुशोभित तथा कमल के ऊपर विराजमान भगवती महासती का ध्यान करो । पुत्री ! महालक्ष्मी, महाकाली, महामाया, महामति, गङ्गा, यमुना, सिन्धु, शतद्रु, नर्मदा, मही, सरस्वती तथा वैतरणी के रूप में वे ही महासती सर्वत्र व्याप्त हैं । अतः तुम उन्हीं की आराधना करो ।’

प्रभो ! मैंने माता के द्वारा बतलायी गयी विधि से श्रद्धाभक्तिपूर्वक रम्भा-(गौरी) व्रत का अनुष्ठान किया और उसी व्रत के प्रभाव से मैंने आपको प्राप्त कर लिया ।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — कौन्तेय ! लोपामुद्रा ने भी इस रम्भाव्रत के आचरण से महामुनि अगस्त्य को प्राप्त किया और वे संसार में पूजित हुई । जो कोई स्त्री-पुरुष इस रम्भाव्रत को करेगा, उसके कुल की वृद्धि होगी । उसे उत्तम संतति तथा सम्पत्ति प्राप्त होगी । स्त्रियों को अखण्ड सौभाग्य की तथा सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाले श्रेष्ठ गार्हस्थ्य-सुख की प्राप्ति होगी और जीवन के अन्त में उन्हें इच्छानुसार विष्णु एवं शिवलोक की प्राप्ति होगी ।

इस व्रत का संक्षिप्त विधान इस प्रकार है — व्रती को एक सुन्दर मण्डप बनाकर उसे गन्ध-पुष्पादि से सुवासित तथा अलंकृत करना चाहिये । तदनत्तर मण्डप में महादेवी रुद्राणी की यथाशक्ति स्वर्णादि से निर्मित प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये और गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा अनेक प्रकार के नैवेद्य से उनकी पूजा करनी चाहिये । देवी के ‘सम्मुख सौभाग्याष्टक–जीरा, कडुहुंड, अपूप, फूल, पवित्र निष्पाव (सेम), नमक, चीनी तथा गुड़ निवेदित करना चाहिये । पद्मासन लगाकर सूर्यास्त तक देवी के सम्मुख बैठा रहे । अनत्तर रुद्राणी को प्रणाम कर यह मन्त्र कहे —

“वेदेषु सर्वशास्त्रेषु दिवि भूमौ धरातले ।
दृष्टः श्रुतश्च बहुशो न शक्त्या रहितः शिवः ॥
त्वं शक्तिस्त्वं स्वधा स्वाहा त्वं सावित्री सरस्वती ।
पतिं देहि गृहं देहि वसु देहि नमोऽस्तु ते ॥
(उत्तरपर्व १८ । २३-२४)

‘सम्पूर्ण वेदादि शास्त्रों में, स्वर्ग में तथा पृथ्वी आदि में कहीं भी यह कभी नहीं सुना गया है और न ऐसा देखा हो गया है कि शिव शक्ति से रहित है । हे पार्वती ! आप ही शक्ति हैं, आप ही स्वधा, स्वाहा, सावित्री और सरस्वती हैं । आप मुझे पति, श्रेष्ठ गृह तथा धन प्रदान करें, आपको नमस्कार है ।’

इस प्रकार पुनः-पुनः उन्हें प्रणाम करके देवी से क्षमाप्रार्थना करें । अनन्तर सपत्नीक यशस्वी ब्राह्मण की सभी उपकरणों से पूजा करके दान देना चाहिये । सुवासिनी स्त्रियों को नैवेद्य आदि प्रदान करना चाहिये । इस विधान से सभी कार्य सम्पन्न कर पाप-नाश के लिये क्षमा-प्रार्थना करें । अगले दिन चतुर्थी को ब्राह्मण-दम्पतियों को मधुर रस से समन्वित भोजन कराकर व्रत पूर्ण करना चाहिये ।

पार्थ ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तथा चतुर्थी तिथि को प्रतिवर्ष गोष्पद-नामक व्रत करना चाहिये । स्त्री अथवा पुरुष प्रथम स्नान से निवृत्त होकर अक्षत और पुष्पमाला, धूप, चन्दन, पिष्टक (पीठी) आदि से गौ की पूजा करे । उसके शृंग आदि सभी को अलंकृत करे । उन्हें भोजन कराकर तृप्त कर दे । स्वयं तेल और लवण आदि क्षार वस्तुओं से रहित जो अग्नि के द्वारा सिद्ध न किया गया हो उसका भोजन करे । वन की ओर जाती तथा लौटती गौओं को उनकी तुष्टि के लिये ग्रास दे और उन्हें निम्न मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करे —

“माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः ।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ॥”
(ऋ० ८ । १०१ । १५)

तदनन्तर निम्न मन्त्र से गौ की प्रार्थना करे —

“गावो में अग्रतः सन्तु गावो में सन्तु पृष्ठतः ।
गावो में हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥”
(उत्तरपर्व १९ । ७)

पञ्चमी को क्रोधरहित होकर गाय दूध, दही, चावल का पीठा, फल तथा शाक का भोजन करे । रात्रि में संयत होकर विश्राम करे । प्रातःकाल यथाशक्ति स्वर्णादि से निर्मित गोष्पद (गायका खुर) तथा गुड़ से निर्मित गोवर्धन पर्वत की पूजा कर ब्राहाण को ‘गोविन्दः प्रीयताम्’ ऐसा कहकर दान करे । अनन्तर अच्युत को प्रणाम करे ।
इस व्रत को भक्तिपूर्वक करनेवाला व्रती सौभाग्य, लावण्य, धन, धान्य, यश, उत्तम संतान आदि सभी पदार्थों को प्राप्त करता है । उसका घर, गौ और बछड़ों से परिपूर्ण रहता है । मृत्यु के बाद वह दिव्य स्वरूप धारणकर दिव्यालंकारों से विभूषित हो विमान में बैठकर स्वर्गलोक जाता है एवं स्वर्ग में दिव्य सौ वर्षों तक निवासकर फिर विष्णुलोक में जाता है । इस गोष्पद त्रिरात्रव्रत का कर्ता गौ तथा गोविन्द की पूजा करनेवाला और गोरस आदि का भोजन करते हुए जीवनयापन करनेवाला उत्तम गोलोक को प्राप्त करता है ।
(अध्याय १८-१९)

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