January 15, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १८२ सप्तसागरदान विधि का वर्णन श्रीकृष्ण बोले — पार्थ ! मैं तुम्हें सप्तसागर का दान बता रहा हूँ, जो परमोत्तम और समस्त पापों को विनष्ट करने वाला है । युगादि तिथि या ग्रहण आदि के किसी शुभ अवसर पर सुवर्ण द्वारा सात कुण्ड की रचना करे, जो प्रादेश मात्र अथवा अत्निमात्र (बँधी हुई मुठ्ठीवाले हाथ) विस्तृत हों । इसके निर्माण में सात सौ से लेकर सहस्र पल पर्यंत सुवर्ण होना चाहिए । सभी कुण्ड को कृष्णाजिन (कालेमृग चर्म) पर प्रतिष्ठित कर पहले कुण्ड को लवण, दूसरे को दूध तीसरे को घृत, चौथे को गुड़, पाँचवें को दही, छठे को शक्कर और सातवें की तीर्थ जल से पूर्ण कर क्रमशः लवण के अंत में ब्रह्मा की सुवर्ण प्रतिमा, क्षीर वाले में केशव, घृत मध्य महेश्वर, गुडमध्य में भास्कर दधि के मध्य में इन्द्र, शक्कर में लक्ष्मी और जल के मध्य पार्वती (की प्रतिमा) को स्थापित करे। पश्चात् सभी कुण्डों में चारों ओर समस्त रत्न और सप्त धान्य यथालाभ यथा सुख जितना मिल सके स्थापित करे। उस पर्व के समय स्नान, शुक्ल वस्त्र धारण कर उस गृहस्थ को तीन प्रदक्षिणा करते समय यह कहना चाहिए — “नमो वः सर्वसिन्धूनामाधारेभ्यः सनातनाः ।। जन्तूनां प्राणदेभ्यश्च समुद्रेभ्यो नमो नमः । पूर्णाः सर्वे भवन्तो वै क्षारक्षीरघृतैक्षवैः ।। दध्ना शर्करया तद्वतीर्थवारिभिरेव च । तस्मादघौघविध्वंसं कुरुध्वं मम मानदाः ॥ अलक्ष्मीः प्रशमं यातु लक्ष्मीश्चास्तु गृहे मम । (उत्तरपर्व १८२ । १०-१३) ‘समस्त सिंधु के आधार एवं सनातन को नमस्कार है, जन्तुओं को प्राण दान करने वाले समुद्र को नमस्कार है । लवण, क्षीर, घृत, गुड़, दीर्घ, शक्कर और तीर्थ जलों से आप सब परिपूर्ण है, अतः मेरे पाप समूह को नष्ट करते हुए मेरे घर में अलक्ष्मी का विनाश और लक्ष्मी को सदैव अचल बनाने की कृपा करें ।’ युधिष्ठिर ! इस प्रकार अर्थ्यचना करने के उपरांत उसे ब्राह्मणों को अर्पित करे । पुष्प, वस्त्र, अनुलेप द्वारा पूजनोपरांत एक अथवा अनेक ब्राह्मणों को सादर अर्पित करे। जहाँ तक हो सके क्रियानुरूप ब्राह्मणों को प्रदान करना चाहिए । पार्थिव ! इस प्रकार इस दान को सुसम्पन्न करने वाले प्राणी के घर से आठ पीढ़ी तक लक्ष्मी कभी जाती नहीं है, अन्त में सिद्ध, दिद्याधर, नाग आदि देवों से सुसेवित होते हुए सात मन्वन्तरों के समय तक देवलोक में विश्वास प्राप्त करता है और वैदिक संस्कार के उपरांत उसे परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है । इस भाँति अग्निशुद्ध काञ्चन द्वारा निर्मित सप्त सागर का दान करने वाला रमा (लक्ष्मी) युक्त हरि का पद प्राप्त करता है । यथा शक्ति सुवर्ण निर्मित सागरों के दान ब्राह्मणों को अवश्य समर्पित करो, जिससे तुम्हारे सरस अभीष्ट की सिद्धि हो । (अध्याय १८२) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe