January 4, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ४३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ४३ विजयासप्तमी-व्रत युधिष्ठिरने पूछा — देव ! विजया-सप्तमी-व्रतमें किसकी पूजा की जाती है, उसका क्या विधान है और क्या फल है ? इसे आप बतलाने की कृपा करें । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को यदि आदित्यवार हो तो उसे विजया सप्तमी कहते हैं । वह सभी पातकों का विनाश करनेवाली है । उस दिन किया हुआ स्नान, दान, जप, होम तथा उपवास आदि कर्म अनन्त फलदायक होता है । जो उस दिन फल, पुष्प आदि लेकर भगवान् सूर्य की प्रदक्षिणा करता है, वह सर्वगुणसम्पन्न उत्तम पुत्र को प्राप्त करता है । पहली प्रदक्षिणा नारियल-फलसे, दूसरी रक्तनागरसे, तीसरी बिजौरा नींबूसे, चौथी कदलीफलसे, पाँचवी श्रेष्ठ कूष्माण्डसे, छठी पके हुए तेंदूके फलोंसे और सातवीं वृन्ताक (पपीता)-फलों से करे अथवा अष्टोत्तरशत प्रदक्षिणा करे । मोती, पद्मराग, नीलम, पन्ना, गोमेद, हीरा और वैदूर्य आदि से भी प्रदक्षिणा करे तथा अखरोट, बेर, बिल्व, करौंदा, आम्र, आम्रातक (आमड़ा), जामुन आदि जो भी उस काल में फल-फूल मिले उससे प्रदक्षिणा करे । प्रदक्षिणा करते समय बीच में बैठे नहीं, न किसी को स्पर्श करे और न किसी से बात करे । एकाग्रचित्त से प्रदक्षिणा करने से सूर्यभगवान् प्रसन्न होते हैं । गौ के घृत से वसोर्धारा भी दे । किंकिणीयुक्त ध्वजा तथा श्वेत छत्र चढ़ाये और फिर कुंकुम, गन्ध, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य आदि उपचारों से पूजन कर इस मन्त्र से भगवान् सूर्य से क्षमा-प्रार्थना करे — “भानो भास्कर मार्तण्ड चण्डरश्मे दिवाकर । आरोग्यमायुर्विजयं पुत्रं देहि नमोऽस्तु ते ॥ (उत्तरपर्व ४३ । १४) ‘भानो, भास्कर, मार्तण्ड, चण्डरश्मे, एवं दिवाकर ! प्रसन्न होकर आप मुझे आरोग्य, आयु, विजय एवं पुत्र प्रदान करने की कृपा करें, आपको नमस्कार है ।’ इस व्रत में उपवास, नक्तव्रत अथवा अयाचित-व्रत करे । इस विजया-सप्तमी का नियमपूर्वक व्रत करने से रोगी रोग से मुक्त हो जाता है, दरिद्र लक्ष्मी प्राप्त करता है, पुत्रहीन पुत्र प्राप्त करता है तथा विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है । शुक्ल पक्षी आदित्यवारयुक्त सात सप्तमियों में नक्तव्रत कर मुँग का भोजन करना चाहिये । भूमिपर पलाश के पत्तों पर शयन करना चाहिये । इस प्रकार व्रत की समाप्ति पर सूर्यभगवान का पूजनकर षडक्षर मन्त्र (‘खखोल्काय नमः’) से अष्टोत्तरशत हवन करे । सुवर्णपात्र में सूर्यप्रतिमा स्थापित कर रक्तवस्त्र, गौ और दक्षिणा इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए ब्राह्मण को प्रदान करे — “ॐ भास्कराय सुदेवाय नमस्तुभ्यं यशस्कर ॥ ममाद्य समीहितार्थप्रदो भव नमो नमः । (उत्तरपर्व ४३ । २३-२४) ‘यशस्कर, एवं सुदेव भगवान् भास्कर देव को नमस्कार करता हूँ, आप मेरी अभिलाषा की पूर्ति करें ।’ तदनन्तर शय्या-दान, श्राद्ध, पितृतर्पण आदि कर्म करे । इस व्रत के करने से यात्रियों की यात्रा प्रशस्त हो जाती है, विजय की इच्छायाले राजा को युद्ध में विजय अवश्य प्राप्त होती है, इसलिये लोक में यह विजयसप्तमी के नाम से विश्रुत है । इस व्रत को करनेवाला पुरुष संसारके समस्त सुखों को भोगकर सूर्यलोक में निवास करता है और फिर पृथ्वीपर जन्म ग्रहणकर दानी, भोगी, विद्वान्, दीर्घायु, नीरोग, सुखी और हाथी, घोड़े तथा रत्नोंसे सम्पन्न बड़ा प्रतापी राजा होता है । यदि स्त्री इस व्रतको करे तो वह पुण्यभागिनी होकर उत्तम फलोंको प्राप्त करती है । राजन् ! इसमें आपको किंचित् भी संदेह नहीं करना चाहिये । (अध्याय ४३) Related