भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ६९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ६९
गोवत्स-द्वादशी गोवत्स द्वादशी का व्रत कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को होता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पहली बार श्री कृष्ण वन में गऊएं-बछड़े चराने गए थे। माता यशोदा ने श्री कृष्ण का शृंगार करके गोचारण के लिए तैयार किया था। का विधान, गौओं का माहात्म्य, मुनियों और राजा उत्तानपाद की कथा

महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! मेरे राज्य की प्राप्ति के लिये अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हुई हैं, इस पाप से मेरे चित्त में बहुत घृणा उत्पन्न हो गयी है । उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र आदि सभी मारे गये हैं । भीष्म, द्रोण, कलिंगराज, कर्ण, शल्य, दुर्योधन आदि के मरने से मेरे हृदय में महान् क्लेश है । हे जगत्पते ! इन पापों से छुटकारा पाने के लिये किसी धर्म का आप वर्णन करें ।
om, ॐ
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — हे पार्थ ! गोवत्सद्वादशी नाम का व्रत अतीव पुण्य प्रदान करनेवाला है ।

युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! यह गोवत्सद्वादशी कौन-सा व्रत है ? इसके करने का क्या विधान है ? इसकी कब और कैसे उत्पत्ति हुई है ? मैं नरकार्णव में डूब रहा हूँ, प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — पार्थ ! सत्ययुग में पुण्यशाली जम्बूमार्ग (भड़ौच) — में नामव्रतधरा नामक पर्वत के टंटावि नामक रमणीय शिखर पर भगवान् शंकर के दर्शन करने की इच्छा से करोड़ों मुनिगण तपस्या कर रहे थे । वह तपोवन अतुलनीय दिव्य काननों से मण्डित था । वह महर्षि भृगु का आश्रममण्डल था । विविध मृगगण और बंदरो से समन्वित था । सिंह आदि सभी जंगली पशु, आनन्दपूर्वक निर्भय होकर वहाँ साथ-साथ ही निवास करते थे । उन तपस्यारत मुनियों को दर्शन देने के व्याज से भगवान् शंकर ने एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश बना लिया । जर्जर-देहवाले वे वृद्ध ब्राह्मण हाथ में डंडा लिये काँपते हुए उस स्थान पर आये । जगन्माता पार्वती भी सुन्दर सवत्सा गौ का रूप धारणकर वहाँ उपस्थित हुई ।

पार्थ ! गौ का जो स्वरूप है, उसे आप सुनें —
क्षीरोदतोयसम्भूता याः पुरामृतमन्थने ।
पञ्च गावः शुभाः पार्थ पञ्चलोकस्य मातरः ॥
नन्दा सुभद्रा सुरभिः सुशीला बहुला इति ।
एता लोकोपकाराय देवानां तर्पणाय च ॥
जमदग्निभरद्वाजवसिष्ठासितगौतमाः ।
जगृहुः कामदाः पञ्च गावो दत्ताः सुरैस्ततः॥
गोमयं रोचनां मूत्रं क्षीरं दधि घृतं गवाम् ।
षडङ्गानि पवित्राणि संशुद्धिकरणानि च ॥
गोमयादुत्थितः श्रीमान् बिल्ववृक्षः शिवप्रियः ।
तत्रास्ते पद्महस्ता श्रीः श्रीवृक्षस्तेन स स्मृतः ।
बीजान्युत्पलपद्मानां – पुनर्जातानि गोमयात् ॥
गोरोचना च माङ्गल्या पवित्रा सर्वसाधिका ।
गोमूत्राद् गुग्गुलुर्जातः सुगन्धिः प्रियदर्शनः ।
आहारः सर्वदेवानां शिवस्य च विशेषतः ॥
यद्वीजं जगतः किंचित् तज्ज्ञेयं क्षीरसम्भवम् ।
दधिजातानि सर्वाणि मङ्गलान्यर्थसिद्धये ।
घृतादमृतमुत्पन्नं देवानां तृप्तिकारणम् ॥
ब्राह्मणाश्चेव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥
गोषु यज्ञाः प्रवर्तन्ते गोषु देवाः प्रतिष्ठिताः ।
गोषु वेदाः समुत्कीर्णाः सषडङ्गपदक्रमाः ॥
(उत्तरपर्व ६९। १६-२४)

प्राचीन काल में क्षीरसागर के मन्थन के समय अमृत के साथ पाँच गौएँ उत्पन्न हुई — नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला तथा बहुला । इन्हें लोकमाता कहा गया है । इनका आविर्भाव लोकोपकार तथा देवताओं की तृप्ति के लिये हुआ है । देवताओं ने अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करनेवाली इन पाँच गौऔं को महर्षि जमदग्नि, भरद्वाज, वसिष्ठ, असित तथा गौतममुनि को प्रदान किया और इन महाभागों ने इन्हें ग्रहण किया । गौओं के छः अङ्ग-गोमय, रोचना, मूत्र, दुग्ध, दधि और घृत — ये अत्यन्त पवित्र और संशुद्धि के साधन भी हैं । गोमय से शिवप्रिय श्रीमान् बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ, उसमें पद्महस्ता श्रीलक्ष्मी विद्यमान हैं, इसीलिये इसे श्रीवृक्ष कहा जाता है । गोमय से ही कमल के बीज उत्पन्न हुए हैं । गोरोचन अतिशय मङ्गलमय है, यह पवित्र और सर्वार्थसाधक है । गोमूत्र से गुग्गुल की उत्पत्ति हुई है, जो देखने में प्रिय और सुगन्धियुक्त है । यह गुग्गुल सभी देवों का आहार है । विशेषरूप से शिव का आहार है । संसार में जो कुछ भी मूलभूत बीज हैं, वे सभी गोदुग्ध से उत्पन्न हैं । प्रयोजन की सिद्धि के लिये सभी माङ्गलिक पदार्थ दधि से उत्पन्न हैं । घृत से अमृत उत्पन्न होता है, जो देव की तृप्ति का साधन है । ब्राह्मण और गौ एक ही कुल के दो भाग हैं । ब्राह्मणों के हृदय में तो वेदमन्त्र निवास करते हैं और गौऔं के हृदय में हवि रहती है । गाय से ही यज्ञ प्रवृत्त होता है । और गौ में ही सभी देवगण प्रतिष्ठित हैं । गाय में ही छः अङ्ग सहित सम्पूर्ण वेद समाहित हैं ।
शृंगमूले गवां नित्यं ब्रह्मा विष्णुश्च संस्थितौ ।
शृङ्गाग्रे सर्वतीर्थानि स्थावराणि चराणि च ॥
शिवो मध्ये महादेवः सर्वकारणकारणम् ।
ललाटे संस्थिता गौरी नासावंशे च षण्मुखः ॥
कम्बलाश्वतरो नागौ नासापुटसमाश्रितौ ।
कर्णयोरश्विनौ देवौ चक्षुर्भ्यां शशिभास्करौ ॥
दन्तेषु वसवः सर्वे जिह्वायां वरुणः स्थितः ।
सरस्वती च कुहरे यमयक्षौ च गण्डयोः ॥
संध्याद्वयं तथोष्ठाभ्यां ग्रीवायां च पुरन्दरः ।
रक्षांसि ककुदे द्यौश्च पार्ष्णिकाये व्यवस्थिता ॥
चतुष्पात्सकलो धर्मो नित्यं जङ्घासु तिष्ठति ।
खुरमध्येषु गन्धर्वाः खुराग्रेषु च पन्नगाः ॥
खुराणां पश्चिमे भागे राक्षसाः सम्प्रतिष्ठिताः ।
रुद्रा एकादश पृष्ठे वरुणः सर्वसन्धिषु ॥
श्रोणीतटस्थाः पितरः कपोलेषु च मानवाः ।
श्रीरपाने गवां नित्यं स्वाहालंकारमाश्रिताः ॥
आदित्या रश्मयो बालाः पिण्डीभूता व्यवस्थिताः ।
साक्षाद्गङ्गा च गोमूत्रे गोमये यमुना स्थिता ॥
त्रयस्त्रिंशद् देवकोट्यो रोमकूपे व्यवस्थिताः ।
उदरे पृथिवी सर्वा सशैलवनकानना ॥
चत्वारः सागराः प्रोक्ता गवां ये तु पयोधराः ।
पर्जन्यः क्षीरधारासु मेघा विन्दुव्यवस्थिताः ॥
जठरे गार्हपत्योऽग्रिदर्क्षिणाग्निर्हृदि स्थितः ।
कण्ठे आहवनीयोऽग्निः सभ्योऽग्निस्तालुनि स्थितः ॥
अस्थिव्यवस्थिताः शैला मज्जासु ऋतवः स्थिताः ।
ऋग्वेदोऽथर्ववेदश्च सामवेदो यजुस्तथा ॥
(उत्तरपर्व ६९ । २५-३७)

गौओं के सींग की जड़ में सदा ब्रह्मा और विष्णु प्रतिष्ठित हैं । शृङ्ग के अग्रभाग में सभी चराचर एवं समस्त तीर्थ प्रतिष्ठित हैं । सभी कारणों के कारणस्वरूप महादेव शिव मध्य में प्रतिष्ठित हैं । गौ के ललाट में गौरी, नासिका में कार्तिकेय और नासिका के दोनों पुटों में कम्बल तथा अश्वतर ये दो नाग प्रतिष्ठित हैं । दोनों कानों में अश्विनीकुमार, नेत्रों में चन्द्र और सूर्य, दाँतों में आठों वसुगण, जिह्वा में वरुण, कुहर में सरस्वती, गण्डस्थलों में यम और यक्ष, ओष्ठों में दोनों संध्याएँ, ग्रीवा में इन्द्र, ककुद् (मौर) — में राक्षस, पार्ष्णि-भाग में द्यौ और जंघाओं में चारों चरणों से धर्म सदा विराजमान रहता है । खुरों के मध्य में गन्धर्व, अग्रभाग में सर्प एवं पश्चिम-भाग में राक्षसगण प्रतिष्ठित हैं । गौ के पृष्ठदेश में एकादश रुद्र, सभी संधियों में वरुण, श्रोणितट (कमर) में पितर, कपोलों में मानव तथा अपान में स्वाहा-रूप अलंकार को आश्रित कर श्री अवस्थित हैं । आदित्यरश्मियाँ केश-समूहों में पिण्डीभूत हो अवस्थित हैं । गोमूत्र में साक्षात् गङ्गा और गोमय में यमुना स्थित हैं । रोमसमूह में तैतीस करोड़ देवगण प्रतिष्ठित हैं । उदर में पर्वत और जंगलों के साथ पृथ्वी अवस्थित है । चारों पयोधरों में चारों महासमुद्र स्थित हैं । क्षीरधाराओं में मेष, वृष्टि एवं जलबिन्दु हैं, जठर में गार्हपत्याग्नि, हृदय में दक्षिणाग्नि, कण्ठ में आह्वनीयाग्नि और तालु में सभ्याग्नि स्थित है । गौओं की अस्थियों में पर्वत और मज्जाओं में यज्ञ स्थित हैं । सभी वेद भी गौओं में प्रतिष्ठित हैं ।
हे युधिष्ठिर ! भगवती उमा ने उन सुरभियों के रूप का स्मरणकर अपना भी रूप वैसा ही बना लिया । छः स्थानों से उन्नत, पाँच स्थानों से निम्न, मण्डूकनेत्रा, सुन्दर पूँछ्वाली, ताम्र के समान रक्त स्तनवाली, चाँदी के समान उज्ज्वल कटि-भागवाली, सुन्दर खुर एवं सुन्दर मुखवाली, श्वेतवर्णा, सुशीला, पुत्रवती, मधुर दूधवाली, शोभन पयोधर वाली इस प्रकार सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न सवत्सा गोरूपधारिणी उस उमा को वृद्ध विप्ररूपधारी भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर चरा रहे थे । हे पार्थ ! धीरे-धीरे वे उस आश्रम में गये और कुलपति भृगु के पास जाकर उन्होंने उस गाय को न्यासरुप में दो दिन तक उसकी सुरक्षा करने के लिये उन्हें दे दिया और कहा — ‘मुने ! मैं यहाँ स्नान कर जम्बू क्षेत्र में जाऊँगा और दो दिन बाद लौटूँगा, तबतक आप इस गाय की रक्षा करें ।’ मुनियों ने भी उस गौ की सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रतिज्ञा की । भगवान् शिव वहीं अन्तर्हित हो गये और फिर थोड़ी देर बाद वे एक व्याघ्र-रूप में प्रकट हो गये और बछडेसहित गौ को डराने लगे । ऋषिगण भी व्याघ्र के भय से आक्रान्त हो आर्तनाद करने लगे और यथासम्भव व्याघ्र को हटाने के उपाय करने लगे । व्याघ्र के भय से सवत्सा वह गौ भी कूद-कूदकर रँभाने लगी । युधिष्ठिर ! व्याघ्र के भय से डरी हुई गौ के भागने पर चारों खुरों का चिह्न शिला-मध्य में पड़ गया । आकाश में देवताओं एवं किन्नरों ने व्याघ्र (भगवान् शंकर) और सवत्सा गौ (माता पार्वती) की वन्दना की । शिला का वह चिह्न आज भी सुस्पष्ट दीखता है । वह नर्मदाजी का उत्तम तीर्थ है । यहाँ शम्भुतीर्थ के शिवलिङ्ग का जो स्पर्श करता है, वह गोहत्या से मुक्त हो जाता है । राजन् ! जम्बूमार्ग में स्थित उस महातीर्थ में स्नान कर ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्ति मिल जाती है ।

जब व्याघ्र से सवत्सा गौ भयभीत हो रही थी तब मुनियों ने क्रुद्ध होकर ब्रह्मा से प्राप्त भयंकर शब्द करनेवाले घंटे को बजाना प्रारम्भ किया । उस शब्द से व्याघ्र भी सवत्सा गौ को छोड़कर चला गया । ब्राह्मणों ने उसका नाम रखा ‘ढुण्ढागिरि’ । हे पार्थ ! जो मानव उसका दर्शन करते हैं, वे रुद्रस्वरूप ही हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं हैं । कुछ ही क्षणों में भगवान् शंकर व्याघ्ररूप को छोड़कर यहाँ साक्षात् प्रकट हो गये । वे वृषभ पर आरूढ़ थे, भगवती उमा उनके वाम भाग में विराजमान थीं तथा विनायक कार्तिकेय के साथ नन्दी, महाकाल, शृङ्गी, वीरभद्रा, चामुण्डा, घण्टाकर्णा आदि से परिवृत और मातृका, भूतसमूह, यक्ष, राक्षस, गुह्यक, देव, दानव, गन्धर्व, मुनि, विद्याधर एवं नाग तथा उनकी पत्नियों से वे पूजित थे । सनकादि भी उनकी पूजा कर रहे थे ।

राजन् ! कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष (मतान्तरसे कृष्ण पक्ष)— की द्वादशी तिथि में ब्रह्मवादी ऋषियों ने सवत्सा गोरूपधारिणी उमादेवी की नन्दिनी नाम से भक्तिपूर्वक पूजा की थी । इसीलिये इस दिन गोवत्सद्वादशीव्रत किया जाता है । तभी से उस व्रत का पृथ्वीतल पर प्रचार हुआ । राजा उत्तानपाद ने जिस प्रकार इस व्रत को पृथ्वी पर प्रचारित किया उसे आप सुनें —

उत्तानपाद नामक एक क्षत्रिय राजा थे । जिनकी सुरुचि और शुरुनी (सुनीति) नाम की दो रानियां थीं । सुनीति से ध्रुव नाम का पुत्र हुआ । सुनीति ने अपने उस पुत्र को सुरुचि को सौंप दिया और कहा — ‘हे सखि ! तुम इसकी रक्षा करो । मैं सदा स्वयं सेवा में तत्पर रहूँगी ।’ सुरुचि सदा गृहकार्य सँभालती और पतिव्रता सुनीति सदा पति की सेवा करती थी । सपत्नीद्वेष के कारण किसी समय क्रोध और मात्सर्य से सुरुचि ने सुनीति के शिशु को मार डाला, किंतु वह तत्क्षण ही जीवित होकर हँसता हुआ माँ की गोद में स्थित हो गया । इसी प्रकार सुरुचि ने कई बार यह कुकृत्य किया, किंतु वह बालक बार-बार जीवित हो उठता । उसको जीवित देखकर आश्चर्यचकित हो सुरुचि ने सुनीति से पूछा — देवि ! यह कैसी विचित्र घटना है और यह किस व्रत का फल है, तुमने किस हवन या व्रत का अनुष्ठान किया है । जिससे तुम्हारा पुत्र बार-बार जीवित हो जाता है । क्या तुम्हें मृतसंजीवनी विद्या सिद्ध है ? रत्न, महारत्न या कौन-सी विशिष्ट विद्या तुम्हारे पास है यह सत्य-सत्य बताओ ।’

सुनीति ने कहा — बहन ! मैंने कार्तिक मास की द्वादशी के दिन गोवत्सव्रत किया है, उसी के प्रभाव से मेरा पुत्र पुनः-पुनः जीवित हो जाता है । जब-जब मैं उसका स्मरण करती हूँ, वह मेरे पास ही आ जाता है। प्रवास में रहने पर भी इस व्रत के प्रभाव से पुत्र प्राप्त हो जाता है । इस गोवत्स-द्वादशी-व्रत के करने से हे सुरुचि ! तुम्हें भी सब कुछ प्राप्त हो जायेगा और तुम्हारा कल्याण होगा । सुनीति के कहने पर सुरुचि ने भी इस व्रत का पालन किया, जिससे उसे पुत्र, धन तथा सुख प्राप्त हुआ । सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सुरुचि को उसके पति उत्तानपाद के साथ प्रतिष्ठित कर दिया और आज भी वह आनन्दित हो रही है । दस नक्षत्र से युक्त ध्रुव आज भी आकाश में दिखायी देते हैं । ध्रुव नक्षत्र को देखने से सभी पापों से विमुक्ति हो जाती है ।

युधिष्ठिर ने कहा —
हे भगवन् ! इस व्रत की विधि भी बतायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — हे कुरुश्रेष्ठ ! कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की द्वादशी को संकल्पपूर्वक श्रेष्ठ जलाशय में स्नान कर पुरुष या स्त्री एक समय ही भोजन करे । अनन्तर मध्याह्न के समय वत्ससमन्वित गौ की गन्ध, पुष्प, अक्षत, कुंकुम, अलक्तक, दीप, उड़द के बड़े, पुष्पों तथा पुष्पमालाओं द्वारा इस मन्त्र से पूजा करे —

“ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः । प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गमनागमदितिं वधिष्ट नमो नमः स्वाहा ॥” (ऋ० ८। १०१ । १५)

इस प्रकार पूजाकर गौ को ग्रास प्रदान करे और निम्नलिखित मन्त्र से गौ का स्पर्श करते हुए प्रार्थना एवं क्षमा याचना करे —

“ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि ।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि ॥”
(उत्तरपर्व ६५ । ८५)

इस प्रकार गौ की पूजाकर जल से उसका पर्युक्षण करके भक्तिपूर्वक गौ को प्रणाम करे । उस दिन तवापर पकाया हुआ भोजन न करे और ब्रह्मचर्यपूर्वक पृथ्वी पर शयन करे । इस व्रत के प्रभाव से व्रती सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में गौ के जितने रोयें हैं, उतने वर्षों तक गोलोक में वास करता है, इसमें संदेह नहीं है ।
(अध्याय ६९)

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