January 9, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १०६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १०६ अनन्तव्रत-माहात्म्य में कार्तवीर्य के आविर्भाव का वृत्तान्त राजा युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! भक्तिपूर्वक नारायण की आराधना करने से सभी मनोवाञ्छित फल प्राप्त हो जाते हैं, किंतु स्त्री-पुरुषों के लिये संतानहीन होने से अधिक कोई दुःख और शोक नहीं है, परंतु कुपुत्रता तो और भी महान् दुःख का कारण है । योग्य संतान सब सुख का हेतु है । जगत् में वे धन्य है, जो सर्वगुणसम्पन्न, आरोग्य, बलवान्, धर्मज्ञ, शास्त्रवेत्ता, दीन-अनाथों के आश्रय, भाग्यवान्, हृदय को आनन्द देनेवाले और दीर्घायु पुत्र प्राप्त करते हैं । प्रभो ! मैं ऐसा व्रत सुनना चाहता हूँ कि जिसके करने से ऐसे शुभ लक्षणों से युक्त पुत्र उत्पन्न हो । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! इस सम्बन्ध में एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध हैं । हैहयवंश में माहिष्मती (महेश्वर) नगरी कृतवीर्य नाम का एक महान् राजा हुआ । उसकी एक हजार रानियों में प्रधान तथा सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न शीलधना नाम की एक रानी थी । उसने एक दिन पुत्रप्राप्ति के लिये ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी से पूछा । मैत्रेयी ने उसको श्रेष्ठ अनन्तव्रत का उपदेश दिया और कहा — ‘शीलधने ! स्त्री या पुरुष जो कोई भी भगवान् जनार्दन की आराधना करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । मार्गशीर्ष मास में जिस दिन मृगशिरा नक्षत्र हो उस दिन स्नान कर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि से अनन्त भगवान् के वाम चरण का पूजन करे और प्रार्थना कर एकाग्रचित्त हो बारम्बार प्रणाम कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे । रात्रि के समय तैल-क्षार वर्जित भोजन करे । इसी विधि से पौष मास में पुष्य नक्षत्र में भगवान् के बायें कटिप्रदेश का पूजन करे । माघ मास में मघा नक्षत्र में भगवान् की बायीं भुजा का पूजन करे । फाल्गुन में फाल्गुनी नक्षत्र में बायें स्कन्ध का पूजन करे । इन चार महीनों में गोमूत्र का प्राशन करे और सुवर्णसहित तिल ब्राह्मण को दान दे । चैत्र में चित्रा नक्षत्र में भगवान् के दाहिने कन्धे का पूजन करे, वैशाख में विशाखा नक्षत्र में दाहिनी भुजा का पूजन करे, ज्येष्ठ में ज्येष्ठा नक्षत्र में दाहिने कटिप्रदेश का पूजन करे । इसी प्रकार आषाढ़ मास में आषाढ़ा नक्षत्र में दाहिने पैर का पूजन करे । इन चार महीनों में पञ्चगव्य का प्राशन करे । ब्राह्मण को सुवर्ण-दान दे और रात्रि को भोजन करे । श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र में भगवान् विष्णु के दोनों चरण का पूजन करे । भाद्रपद मास में उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में गुह्म-स्थान का पूजन करे । आश्विन में अश्विनी नक्षत्र में हृदय का पूजन करे और कार्तिक मास में कृतिका नक्षत्र में अनन्तभगवान् के सिर का पूजन करे । इन चार महीनों में घृत का प्राशन करे और घृत ही ब्राह्मण को दान दे । मार्गशीर्ष आदि प्रथम चार मासों में घृत से, द्वितीय चैत्र आदि चार मासों में शालिधान्य से और तृतीय श्रावण आदि चार मासों में अनन्तभगवान् की प्रीति के लिये दुग्ध से हवन करे । हविष्यान्न का भोजन करना सभी मासों में प्रशस्त माना गया है । इस प्रकार बारह महीनों में तीन पारणा कर वर्ष के अन्त में सुवर्ण की अनन्त-भगवान् की मूर्ति और चाँदी के हल, मूसल बनाये । बाद में मूर्ति को ताम्रपीठ पर स्थापित कर दोनों ओर हल, मूसल रखकर पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि उपचारों से पूजन करे । नक्षत्र, देवता, मास, संवत्सर और नक्षत्रों के अधिपति चन्द्रमा का भी विधिपूर्वक पूजन करे । अनन्तर पुराणवेत्ता, धर्मश, शान्तिप्रिय ब्राह्मण का वस्त्र-आभूषण आदि से पूजन कर यह सब सामग्री उसे अर्पण कर दें और ‘अनन्तः प्रीयताम्’ यह वाक्य कहे । पीछे अन्य ब्राह्मणों को भी भोजन, दक्षिणा आदि देकर संतुष्ट करे । इस विधि से जो इस अनन्तव्रत को सम्पन्न करता है, वह सभी अभीष्ट फलों को प्राप्त करता है । शीलधने ! यदि तुम उत्तम पुत्र की इच्छा विधिपूर्वक श्रद्धा से इस अनन्तव्रत को करो । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! इस प्रकार मैत्रेयी से उपदेश प्राप्त कर शीलधना भक्तिपूर्वक व्रत करने लगी । व्रत के प्रभाव से भगवान् अनन्त संतुष्ट हुए और उन्होंने उसे एक श्रेष्ठ पुत्र प्रदान किया । पुत्र के जन्म होते ही आकाश निर्मल हो गया । आनन्ददायक वायु प्रवाहित होने लगी । देवगण दुन्दुभि बजाने लगे । पुष्पवृष्टि होने लगी, सारे जगत् में मङ्गल होने लगा । गन्धर्व गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । सभी लोगों का मन धर्म में आसक्त हो गया । राजा कृतवीर्य ने अपने पुत्र का नाम अर्जुन रखा । कृतवीर्य का पुत्र होने से वही अर्जुन कार्तवीर्य कहलाया । कार्तवीर्यार्जुन ने कठिन तप किया और विष्णुभगवान् के अवतार श्रीदत्तात्रेयजी की आराधना की । भगवान् दत्तात्रेय ने यह वर दिया कि ‘अर्जुन ! तुम चक्रवर्ती सम्राट् होओगे । जो व्यक्ति सायंकाल और प्रातः ‘नमोऽस्तु कार्तवीर्याय’ यह वाक्य उच्चारण करेगा, उसे प्रस्थभर तिल-दान का पुण्य प्राप्त होगा और जो तुम्हारा स्मरण करेंगे, उन पुरुष का द्रव्य कभी नष्ट नहीं होगा ।’ भगवान् से वर प्राप्त कर राजा कार्तवीर्य धर्मपूर्वक सप्तद्वीपा वसुमती का पालन करने लगे । उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ सम्पन्न किये और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की । इस तरह रानी शीलधना ने अनन्तव्रत के प्रभाव से अति उत्तम पुत्र प्राप्त किया, पिता को पुत्रजनित कोई भी दुःख नहीं हुआ । जो पुरुष अथवा स्त्री इस कार्तवीर्य के जन्म को श्रवण करते हैं, वे सात जन्मपर्यन्त संतान का दुःख प्राप्त नहीं करते । जो इस अनन्त-व्रत को भक्ति से करता है, वह उत्तम संतान और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । (अध्याय १०६) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe