भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५० से ५१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ५० से ५१
भगवान् सूर्य के पूजन एवं व्रतोद्यापन का विधान, द्वादश, आदित्यों के नाम और रथसप्तमी-व्रत की महिमा

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – साम्ब ! अब मैं सूर्य के विशिष्ट अवसरोंपर होनेवाले व्रत-उत्सव एवं पूजन की विधियों का वर्णन करता हूँ, उन्हें सुनो ! किसी मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी, ग्रहण या संक्रान्ति के एक दिन-पूर्व एक बार हविष्यान्न का भोजन कर सायंकाल के समय भली-भाँति आचमन आदि करके अरुणदेव को प्रणाम करना चाहिये तथा सभी इन्द्रियों को संयतकर भगवान् सूर्य का ध्यान कर रात्रि में जमीन पर कुश की शय्या पर शयन करना चाहिये । om, ॐ
दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्नान सम्पन्न करके संध्या करे तथा पूर्वोक्त मन्त्र ‘ॐ खखोल्काय स्वाहा’ का जप एवं सूर्यभगवान् की पूजा करे । अग्नि को सूर्य-ताप के रुप में समझकर वेदी बनाये और संक्षेप में हवन तथा तर्पण करे । गायत्री-मन्त्र से प्रोक्षणकर पूर्वाग्र और उत्तराग्र कुशा बिछाये । अनन्तर सभी पात्रों का शोधन कर दो, कुशाओं की प्रादेशमात्र की एक पवित्री बनाये । उस पवित्री से सभी वस्तुओं का प्रोक्षण करे, घी को अग्नि पर रखकर पिघला ले, उत्तर की ओर पात्र में उसे रख दे, अनन्तर जलते हुए उल्मुक से पर्यग्निकरण करते हुए घृत का तीन बार उत्प्लवन करे । स्रुवा आदि का कुशों के द्वारा परिमार्जन और सम्प्रोक्षण करके अग्नि में सूर्यदेव की पूजा करे और दाहिने हाथ में स्रुवा ग्रहणकर मूल मन्त्र से हवन करे । मनोयोग-पूर्वक मौन धारण कर सभी क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये । पूर्णाहुतिके पश्चात् तर्पण करे । अनन्तर ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराना चाहिये और यथाशक्ति उनको दक्षिणा भी देनी चाहिये । ऐसा करनेसे मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति होती है ।

माघ मास की सप्तमी को वरुण नामक सुर्य की पूजा करे । इसी प्रकार क्रमशः फाल्गुन में सूर्य, चैत्र में वैशाख  प्रायः अन्य सभी पुराणों में चैत्रादि बारह महीनों में सूर्य के ये नाम मिलते हैं- धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, पर्जन्य, अंश, भग, त्वष्टा और विष्णु । कल्पभेद के अनुसार नामों में भेद है।, वैशाख में धाता, ज्येष्ठ में इन्द्र, आषाढ़ में रवि, श्रावण में नभ, भाद्रपद में यम, आश्विन में पर्जन्य, कार्तिक में त्वष्टा, मार्गशीर्ष में मित्र तथा पौष मास में विष्णु नामक सूर्य का अर्चन करे । इस विधि से बारहों मास में अलग-अलग नामों से भगवान् सूर्य की पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक दिन पूजा करने से वर्षपर्यन्त कि गयी पूजा का फल प्राप्त हो जाता है ।

उपर्युक्त विधि से एक वर्ष तक व्रत कर रत्नजटित सुवर्ण का एक रथ बनवाये और उसमें सात घोड़े बनवाये । रथ के मध्य में सोने के कमल के ऊपर रत्नों के आभूषणों से अलंकृत सूर्य-नारायण की सोने की मूर्ति स्थापित करे । रथ के आगे उनके सारथि को बैठाये । अनन्तर बारह ब्राह्मणों में बारह महीनों के सूर्यों की भावना कर तेरहवें मुख्य आचार्य को साक्षात् सूर्यनारायण समझकर उनकी पूजा करे तथा उन्हें रथ, छत्र, भूमि, गौ आदि समर्पित करे । इसी प्रकार रत्नों के आभूषण, वस्त्र, दक्षिणा और एक-एक घोडा उन बारह ब्राह्मणों को दे तथा हाथ जोडकर यह प्रार्थना करे – ‘ब्राह्मण देवताओं ! इस सुर्यव्रत के उद्यापन करने के बाद यदि असमर्थतावश कभी सुर्यव्रत न कर सकूँ तो मुझे दोष न हो ।’ ब्राह्मणों के साथ आचार्य भी ‘एवमस्तु’ ऐसा कहकर यजमान को आशीर्वाद दे और कहे – ‘सूर्यभगवान् तुमपर प्रसन्न हों । जिस मनोरथकी पूर्ति के लिये तुमने यह व्रत किया है और भगवान् सूर्य की पूजा की है, वह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हो और भगवान् सूर्य उसे पूरा करें । अब व्रत न करने पर भी तुमको दोष नहीं होगा ।’ इस प्रकार आशीर्वाद प्राप्त कर दीनों, अन्धों तथा अनाथों को यथाशक्ति भोजन कराये तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दक्षिणा देकर व्रत की समाप्ति करे ।

जो व्यक्ति इस सप्तमी-व्रतको एक वर्ष तक करता है, वह सौ योजन लम्बे-चौड़े देश का धार्मिक राजा होता है और इस व्रत के फल से सौ वर्षों से भी अधिक निष्कण्टक राज्य करता है । जो स्त्री इस व्रत को करती है, वह राजपत्नी होती है । निर्धन व्यक्ति इस व्रत को यथाविधि सम्पन्न कर बतलायी हुई विधि के अनुसार ताँबे का रथ ब्राह्मणको देता है तो वह अस्सी योजन लम्बा-चौड़ा राज्य प्राप्त करता है । इसी प्रकार आटे का रथ बनवाकर दान करने वाला साठ योजन विस्तृत राज्य प्राप्त करता है तथा वह चिरायु, नीरोग और सुखी रहता है । इस व्रत को करने से पुरुष एक कल्प तक सूर्यलोक में निवास करने के पश्चात् राजा होता है । यदि कोई व्यक्ति भगवान् सूर्य की मानसिक आराधना भी करता है तो वह भी समस्त आधि-व्याधियों से रहित होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है । जिस प्रकार भगवान् सूर्य को कुहरा स्पर्श नहीं कर पाता, उसी प्रकार मानसिक पूजा करनेवाले साधक को किसी प्रकार की आपत्तियाँ स्पर्श नहीं कर पातीं । यदि किसी ने मन्त्रों के द्वारा भक्तिपूर्वक विधि-विधान से व्रत सम्पन्न करते हुए भगवान् सूर्यनारायण की आराधना की तो फिर उसके विषय में क्या कहना? इसलिये अपने कल्याण के लिये भगवान् सूर्य की पूजा अवश्य करनी चाहिये ।

पुत्र ! सूर्यनारायण ने इस विधि-विधान को स्वयं अपने मुख से मुझसे कहा था ।आज तक उसे गुप्त रखकर पहली बार मैंने तुमसे कहा है । मैंने इसी व्रतके प्रभाव से हजारों पुत्र और पौत्रों को प्राप्त किया है, दैत्यों को जीता है, देवताओं को वश में किया है, मेरे इस चक्र मे सदा सूर्यभगवान् निवास करते हैं । नहीं तो इस चक्र में इतना तेज कैसे होता ? यही कारण है कि सूर्यनारायण का नित्य जप, ध्यान, पूजन आदि करने से मैं जगत् का पूज्य हूँ । वत्स ! तुम भी मन, वाणी तथा कर्म से सूर्यनारायण की आराधना करो । ऐसा करने से तुम्हें विविध सुख प्राप्त होंगे । जो पुरुष भक्तिपूर्वक इस विधान को सुनता है, वह भी पुत्र-पौत्र, आरोग्य एवं लक्ष्मी को प्राप्त करता है और सूर्यलोक को भी प्राप्त हो जाता है ।

भगवान् कृष्ण ने कहा – साम्ब ! माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को एकभुक्त-व्रत और षष्ठी को नक्तव्रत करना चाहिये ।जिस दिन प्रायः दिनका अधिक अंश बिताकर सायं चार बजे के लगभग भोजन कर पूरी रात उपवास रहकर बिताया जाता है, उसे एकभुक्त-व्रत कहा जाता है और दिनभर उपवासकर रात्रिको भोजन करना ‘नक्तव्रत’ कहलाता है । सुव्रत ! कुछ लोग सप्तमी में उपवास चाहते है और कुछ विद्वान् षष्ठी में उपवास और सप्तमी तिथि में पारण करने का विधान कहते है (इसप्रकार विविध मत हैं) । वस्तुतः षष्ठी को उपवास कर भगवान् सूर्यनारायण की पूजा करनी चाहिये । रक्त-चन्दन, करवीर-पुष्प, गुग्गुल धूप, पायस आदि नैवेद्यों से माघ आदि चार महीनों तक सूर्यनारायण की पूजा करनी चाहिये । आत्मशुद्धि के लिये गोमय-मिश्रित जल से स्नान, गोमय का प्राशन और यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन भी करना चाहिये ।

ज्येष्ठ आदि चार महीनों में श्वेत-चन्दन, श्वेत-पुष्प, कृष्ण अगरु धूप और उत्तम नैवेद्य सूर्यनारायण को अर्पण करना चाहिये । इसमें पञ्चगव्य-प्राशन कर ब्राह्मणों को उत्कृष्ट भोजन कराना चाहिये ।

आश्विन आदि चार मासों में अगस्त्य-पुष्प, अपराजित धूप और गुड़ के पुए आदि का नैवेद्य तथा इक्षुरस भगवान् सूर्य को समर्पित करना चाहिये । यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन कराकर आत्मशुद्धि के लिये कुशा के जलसे स्नान करना चाहिये । उस दिन कुशोदक का ही प्राशन करे । व्रत की समाप्ति में माघ मास की शुक्ला सप्तमी को रथ का दान करे और सूर्यभगवान् की प्रसन्नता के लिये रथयात्रोत्सव का आयोजन करे । महापुण्यदायिनी इस सप्तमी को रथसप्तमी कहा गया है । यह महासप्तमी के नामसे अभिहित हैं । रथसप्तमी को जो उपवास करता है, वह कीर्ति, धन, विद्या, पुत्र, आरोग्य, आयु और उत्तमोत्तम कान्ति प्राप्त करता है । हे पुत्र ! तुम भी इस व्रतको करो, जिससे तुम्हारे सभी अभीष्टों की सिद्धि हो । इतना कहकर शङ्ख, चक्र, गदा-पद्मधारी श्रीकृष्ण अन्तर्हित हो गये ।

सुमन्तु ने कहा – राजन् ! उनकी आज्ञा पाकर साम्ब ने भी भक्तिपूर्वक सूर्यनारायण की आराधना में तत्पर हो रथसप्तमी का व्रत किया और कुछ ही समय में रोगमुक्त होकर मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर लिया (रथसप्तमी के विषय में व्रत-रत्नाकर, व्रतकल्पद्रुम, व्रतराज आदि के अतिरिक्त पद्मपुराण एवं वायुपुराण के माघ माहात्म्य में बहुत विस्तार से व्रत-विधान का निरुपण हुआ है और कुछ पञ्चाङ्गों में भी इसी दिन भगवान् सूर्य के रथ पर चढ़कर आकाश की प्रथम यात्रा करने का उल्लेख किया गया है । जैसे रामनवमी के दिन भगवान् राम का, जन्माष्टमी के दिन भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य मानकर उत्सव किया जाता है, वैसे ही रथसप्तमी के दिन भगवान् सूर्य का प्राकट्य मानकर उनके लिये व्रत-उपवास के साथ विशेष अर्चा सम्पन्न की जाती है)

(अध्याय ५०-५१)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९

13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१

15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२

16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३

17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८

20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३०

21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२

23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३

24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४

25. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५

26. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३६ से ३८

27. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३९

28. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४० से ४५

29. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४६

30. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४७

31. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४८

32. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४९

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