September 6, 2015 | aspundir | Leave a comment शाबर मन्त्र विज्ञान शाबर मन्त्रों का आशयः- स्व॰ वामन शिवराम आप्टे ने सन् १९४२ ई॰ में अपने ‘संस्कृत-कोष’ में ‘शाबर’ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है; ‘शब (व)-र-अण्-शाबरः, शावरः, शाबरी।’ अर्थ में ‘जंगली जाति’ या ‘पर्वतीय’ लोगों द्वारा बोली जानीवाली ‘भाषा’ बताया गया है। वह एक प्रकार का मन्त्र भी है, इसका वहाँ कोई उल्लेख नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्रीरानचरितमानस‘ (संवत् १६३१) में शाबर मन्त्रों का महत्त्व स्वीकार किया है, यह रहस्योद्घाटन भी किया है कि इस ‘साबर-मन्त्र-जाल’ के स्रष्टा भी शिव-पार्वती ही हैं। कलि बिलोकि जग-हित हर गिरिजा, ‘साबर-मन्त्र-जाल’ जिन्ह सिरिजा। अनमिल आखर अरथ न जापू, प्रगट प्रभाव महेश प्रतापू।। आधुनिक काल में महा-महोपाध्याय स्व॰ पण्डित गोपीनाथ कविराज जी ने अपने प्रसिद्ध ‘तान्त्रिक-साहित्य’ ग्रन्थ के पृष्ठ ६२३-२४ में ‘शाबर’- सम्बन्धी पाँच पाण्डुलिपियों का उल्लेख किया हैः १॰ शाबर-चिन्तामणि पार्वती-पुत्र आदिनाथ विरचित, २॰ शाबर तन्त्र गोरखनाथ विरचित, ३॰ शाबर तन्त्र सर्वस्व, शाबर मन्त्र, तथा ५॰ शाबर मन्त्र चिन्तामणि। उक्त पाँच पाण्डुलिपियों में सा प्रथम पाण्डुलिपि एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के सूचीपत्र में संख्या ६१०० से सम्बन्धित है। द्वितीय पाण्डुलिपि की चार प्रतियों का उल्लेख कविराज जी ने किया है। पहली उक्त सोसाइटी की सूची-पत्र ६०९९ से सम्बन्धित है, दूसरी म॰म॰ हरप्रसाद शास्त्री के विवरण की सं॰ १।३५९ है। तीसरी प्रति डेकन कालेज, पूना सूचीपत्र ५८० है। चौथी प्रति की तीन पाण्डुलिपियों का उल्लेख है, जो संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के सूचीपत्र की संख्या २३८६७, २४८१५ और २४५७९ पर वर्णित है। ये तीनों अपूर्ण है। तृतीय पाण्डुलिपि ‘शाबर-तन्त्र-सर्वस्व’ के सम्बन्ध में अपुष्ट कथन लिखा है। चतुर्थ पाण्डुलिपि की तीन प्रतियों का उल्लेख हुआ है। पहली प्रति एशियाटिक सोसाइटी के सूचीपत्र की संख्या ६५५८ है। दूसरी प्रति बड़ौदा पुस्तकालय के अकारादि सूचीपत्र की संख्या ५६१४ पर है। तीसरी प्रति की दो पाण्डुलिपियां संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के सूचीपत्र की संख्या २३८५६ और २६२३२ से सम्बद्ध है। पञ्चम पाण्डुलिपि एशियाटिक सोसाइटी के सूचीपत्र की संख्या ६१०० पर उल्लिखित है। ‘उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान’ द्वारा प्रकाशित ‘हिन्दू धर्म कोश’ में सम्पादक डा॰ चन्द्रबली पाण्डेय ने ‘शाबर’ शब्द को अपने ‘कोश’ में स्थान तक नहीं दिया है-जबकि ‘शबर-शंकर-विलास’, ‘शबर-स्वामी’, ‘शाबर-भाष्य’ जैसे शब्दों को उन्होनें सम्मिलित किया है। श्रीतारानाथ तर्क-वाचस्पति भट्टाचार्य द्वारा संकलित एवं चौखम्भा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी द्वारा प्रकाशित प्रख्यात ‘वृहत् संस्कृताभिधानम्’ (कोश) में भी ‘शबर’ या ‘शाबर’ शब्द का उल्लेख नहीं है। उक्त विश्लेषण के पश्चात भी शाबर विद्या सर्वत्र भारत में अपना एक विशिष्ट अस्तित्व तथा प्रभाव रखती है। वस्तुतः देखा जाये तो समस्त विश्व में शाबर विद्या या समानार्थी विद्या प्रचलन में है। ज्ञान की संज्ञा भले ही बदल जाये मूल भावना तथा क्रिया वही रहती है। Related