शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 17
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
सत्रहवाँ अध्याय
ब्रह्माण्डके वर्णन-प्रसंगमें जम्बूद्वीपका निरूपण

सनत्कुमार बोले – हे पराशरपुत्र [ व्यासजी ! ] आप सातों द्वीपोंसे समन्वित भूमण्डलका संक्षेपमें वर्णन करते हुए मुझसे भलीभाँति सुनिये ॥ १ ॥ भूमण्डलमें जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और सातवाँ पुष्करद्वीप है – ये सभी द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ॥ २ ॥ लवण, इक्षुरस, घी, दही, दूध और जलके जो समुद्र हैं, इन सभीके मध्यमें जम्बूद्वीप स्थित है ॥ ३ ॥ हे व्यासजी ! उसके भी मध्यमें कनकमय सुमेरु पर्वत वर्तमान है, जो पृथ्वीके नीचे सोलह हजार योजन धँसा हुआ है और चौरासी हजार योजन ऊँचा है। उसका शिखर बत्तीस हजार योजन विस्तृत है । पृथ्वीतलपर स्थित इस पर्वतका मूलभाग सोलह हजार योजन विस्तृत है, यह [मेरुपर्वत पृथ्वीरूपी कमलकी] कर्णिकाके आकारमें स्थित है। इसके दक्षिणमें हिमवान्, हेमकूट और निषधपर्वत और उत्तर भागमें नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं। इन पर्वतोंकी लम्बाई दस हजार योजन है । ये रत्नोंसे युक्त और अरुण कान्तिवाले हैं । ये हजार योजन ऊँचे हैं और उतने ही विस्तारवाले हैं ॥ ४–७ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥

हे मुने! मेरुके दक्षिणमें प्रथम भारतवर्ष और इसके बाद किम्पुरुष और हरिवर्ष है। इसके उत्तर भागमें रम्यक और उसीके पास हिरण्मयवर्ष है । उत्तरमें कुरुदेश है। हे मुनिश्रेष्ठ! भारतवर्षकी भाँति इन सभीका विस्तार नौ-नौ हजार योजन है ॥ ८-१० ॥ उनके मध्यमें इलावृतवर्ष है, जिसके मध्य में उन्नत सुमेरुपर्वत है । इस सुमेरुके चारों ओर नौ हजार योजन विस्तृत इलावृतवर्ष है । हे ऋषिश्रेष्ठ! वहाँ चार पर्वत सुमेरुपर्वतके शिखरके रूपमें अवस्थित हैं । ये ऊँचाईमें सुमेरुपर्वतसे मिले हुए हैं ॥ ११-१२ ॥ पूर्वमें मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल और उत्तरमें सुपार्श्व नामक पर्वत स्थित हैं ॥ १३ ॥ कदम्ब, जामुन, पीपल तथा वटके वृक्ष इन पर्वतोंकी ध्वजाके रूपमें ग्यारह सौ योजन विस्तारमें फैले हुए हैं ॥ १४ ॥

हे महामुने ! जम्बूद्वीपका नाम पड़नेका कारण आप सुनें । यहाँपर [जामुन, कदम्ब, पीपल तथा वट के] बड़े- बड़े वृक्ष हैं, मैं उनका स्वभाव आपको बताता हूँ ॥ १५ ॥ उस जामुनके बड़े-बड़े हाथीके परिमाणवाले फल पर्वतके ऊपर गिरकर फूट जाते हैं और चारों ओर फैल जाते हैं ॥ १६ ॥ उनके रससे जम्बू नामक विख्यात नदी चारों ओर बहती है, जिसके रसको वहाँके निवासी पीते हैं ॥ १७ ॥
उसके तटपर रहनेवाले लोगोंको पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा एवं किसी प्रकारकी इन्द्रियपीड़ा आदि नहीं होते हैं । सुखद वायुसे सुखायी गयी उसके तटकी मिट्टीसे जाम्बूनद नामक सुवर्ण बन जाता है, जो सिद्धोंके द्वारा भूषणके रूपमें धारण किया जाता है ॥ १८-१९ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! सुमेरुपर्वतके पूर्वमें भद्राश्व तथा पश्चिममें केतुमाल नामक दो अन्य वर्ष हैं, उनके मध्यमें इलावृतवर्ष है। उसके पूर्वमें चैत्ररथ, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विभ्राज और उसके उत्तरमें नन्दनवन बताया गया है ॥ २०-२१ ॥ अरुणोद, महाभद्र, शीतोद तथा मानस नामक ये चार सरोवर कहे गये हैं, जो सब प्रकारसे देवताओंके भोगनेयोग्य हैं। शीतांजन, कुरंग, कुरर एवं माल्यवान्– ये प्रत्येक प्रमुख पर्वत मेरुके पूर्वमें कर्णिकाके केसरके समान स्थित हैं ॥ २२-२३ ॥ त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, कपिल आदि पर्वत दक्षिणमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २४ ॥ सिनीवास, कुसुम्भ, कपिल, नारद, नाग आदि पर्वत पश्चिम भागमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २५ ॥ शंखचूड़, ऋषभ, हंस, कालंजर आदि पर्वत उत्तरमें केसराचलके रूपमें स्थित हैं ॥ २६ ॥

सुमेरुके ऊपर मध्य भागमें ब्रह्माका सुवर्णमय नगर है, जो चौदह हजार योजन विस्तृत है। उसके चारों ओर क्रमसे आठों लोकपालोंके आठ पुर उनकी दिशाओंके अनुसार तथा उनके अनुरूप निर्मित किये गये हैं ॥ २७-२८ ॥ भगवान् विष्णुके चरणोंसे निकली वे गंगाजी चन्द्रमण्डलको आप्लावित करती हुई ब्रह्माजीकी उस पुरीमें [चारों ओर] गिरती हैं । वे वहाँ गिरकर क्रमश: सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामक चार धाराओंके रूपमें चारों दिशाओंमें प्रवाहित होती हैं ॥ २९-३० ॥ सुमेरुपर्वतके पूर्वमें सीता, दक्षिणमें अलकनन्दा, पश्चिममें चक्षु और उत्तरमें भद्रा नदी बहती है ॥ ३१ ॥
वे त्रिपथगामिनी गंगा सम्पूर्ण पर्वतोंको लाँघकर [अपने चारों धारारूपोंसे ] चारों दिशाओंके महासमुद्र में जाकर मिल जाती हैं। जो सुनील तथा निषध नामक दो पर्वत हैं और जो माल्यवान् एवं गन्धमादन नामक दो पर्वत हैं, उनके मध्यमें स्थित सुमेरुपर्वत कर्णिकाके आकारमें विराजमान है ॥ ३२-३३ ॥

भारत, केतुमाल, भद्राश्व एवं कुरुवर्ष – ये लोकरूपी पद्मके पत्र हैं। इस लोकपद्मके ये मर्यादापर्वत – जठर तथा देवकूट दक्षिणसे उत्तरकी ओर फैले हैं, गन्धमादन तथा कैलास पूर्व-पश्चिममें फैले हैं। मेरुके पूर्व तथा पश्चिमकी ओर निषध तथा नीलपर्वत दक्षिणसे उत्तरकी ओर फैले हुए हैं और वे कर्णिकाके मध्य भागमें स्थित हैं ॥ ३४–३६ ॥ मेरुपर्वतके चारों ओर ये जठर, कैलास आदि मनोहर केसर पर्वत भलीभाँति अवस्थित हैं ॥ ३७ ॥ उन पर्वतोंके मध्यमें सिद्ध तथा चारणोंसे सेवित अनेक द्रोणियाँ हैं और उनमें देवताओं, गन्धर्वों एवं राक्षसोंके मनोहर नगर तथा वन विद्यमान हैं। देवता तथा दैत्य इन पर्वतनगरोंमें रात-दिन क्रीड़ा करते हैं ॥ ३८-३९ ॥ [ हे मुने!] ये धर्मात्माओंके निवासस्थान हैं और पृथ्वीके स्वर्ग कहे गये हैं । उनमें पापीजन नहीं जा सकते और न तो कहीं कुछ देख ही सकते हैं ॥ ४० ॥

हे महामुने ! जो किम्पुरुष आदि आठ वर्ष हैं, उनमें न शोक, न विपत्ति, न उद्वेग, न भूख तथा न भय आदि ही रहता है । यहाँकी प्रजाएँ स्वस्थ, निर्द्वन्द्व, सभी दुःखोंसे रहित तथा दस-बारह हजार वर्षोंकी स्थिर आयुवाली होती हैं ॥ ४१-४२ ॥ वहाँ कृतयुग एवं त्रेतायुग ही होते हैं, वहाँ सर्वत्र पृथ्वीका ही जल है और उनमें मेघ वर्षा नहीं करते हैं । इन सातों द्वीपोंमें निर्मल जल तथा सुवर्णमय वालुकावाली सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ भी बहती हैं; उनमें उत्तम लोग विहार करते हैं ॥ ४३-४४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें ब्रह्माण्डकथनमें जम्बूद्वीपवर्षवर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

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