October 7, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 08 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कैलाससंहिता आठवाँ अध्याय आवरणपूजा-विधि-वर्णन ईश्वर बोले – हे महादेवि ! मेरी पूजाके पाँच आवरण हैं। अतः क्रमके अनुसार पाँचों आवरणोंकी पूजा करनी चाहिये । जहाँसे दोनोंकी पूजा की गयी है, उसी क्रमसे बुद्धिमान् पुरुष गणेश एवं कार्तिकेयका गन्धादिसे पूजन करे ॥ १-२ ॥ मण्डलमें स्थित वृत्तमें चारों ओर [ सद्योजातादि ] पंचब्रह्म देवताओंका क्रमसे पूजन करे। ईशानभागमें, पूर्वमें, दक्षिण, उत्तर तथा पश्चिममें छः अंगोंकी पूजा करे | आग्नेय, ईशान, नैर्ऋत्य, वायव्य एवं मध्यमें नेत्र एवं अस्त्र आदिकी पूर्वादि क्रमसे प्रतिष्ठाकर पूजा करे । इस प्रकार मैंने प्रथम आवरण [ का पूजाक्रम] कहा, अब दूसरा आवरण सुनिये – ॥ ३–५ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ पूर्व दिशाके पत्रमें अनन्तकी, दक्षिण पत्रमें सूक्ष्मकी, पश्चिम दिशामें शिवोत्तमकी एवं उत्तर दिशामें एकनेत्रकी, एकरुद्रकी ईशानमें, त्रिमूर्तिकी आग्नेयमें, श्रीकण्ठकी नैर्ऋत्यमें तथा शिखण्डीशकी वायव्यमें स्थापनाकर पूजन करे ॥ ६-७ ॥ इस प्रकार द्वितीयावरणके चक्रमें निवास करनेवालोंकी पूजा करे । पूर्व द्वारके मध्यमें वृषेशानकी पूजा करे ॥ ८ ॥ दक्षिण द्वारपर नन्दीश्वरका, उत्तरद्वारपर महाकालका तथा भृंगीशका दक्षिणद्वारके पृष्ठभागमें पूजन करे । उसके पूर्ववाले कोष्ठकपर विनायककी गन्धादिसे पूजाकर पश्चिमोत्तर कोष्ठमें वृषभकी और दक्षिणमें स्कन्दकी पूजा करे ॥ ९-१० ॥ अब उत्तरद्वारके पूर्व भागमें प्रदक्षिणक्रमसे जिन आठ नामोंद्वारा पूजा करे, उसे कह रहा हूँ। वे भव, शर्व, ईशान, रुद्र, पशुपति, उग्र, भीम और महादेव हैं, यह तृतीय आवरण है ॥ ११-१२ ॥ ‘यो वेदादौ स्वर’ यो वेदादौ स्वर: प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठित: । तस्य प्रकृतिलीनस्य य: पर: स महेश्वर: ॥ तैत्तिरीय आरण्यका १०.१२.३.१७ – इत्यादि मन्त्रसे पूर्वदिग्भागकी कमलकर्णिकापर महादेवका आवाहन करके उनका पूजन करे ॥ १३ ॥ ईश्वरकी पूर्व दिशाके पत्रपर, विश्वेशकी दक्षिणदिशाके पत्रपर, परमेशानकी उत्तरदिशाके पत्रपर तथा सर्वेशकी पश्चिमदिशाके पत्रपर पूजा करे ॥ १४ ॥ दक्षिणके पत्रपर ‘आवो राजानम्’ – इस ऋचासे रुद्रका पूजन करे । उसके अनन्तर कर्णिकाओंमें एवं दलोंमें देवताओंको आवाहितकर गन्ध, पुष्प आदिसे उनका पूजन करे। शिवको पूर्वमें, हरको दक्षिणमें, मृडको उत्तरमें तथा भवको पश्चिम पत्रमें यथाक्रम आवाहित करके पूजन करे ॥ १५-१६ ॥ उत्तरमें विष्णुका आवाहनकर गन्ध, पुष्पादिसे ‘प्रतद्विष्णु’ – इस प्रकार मन्त्र पढ़कर कर्णिकामें तथा दलोंमें पूजन करे ॥ १७ ॥ पूर्वभागमें वासुदेवकी, दक्षिणमें अनिरुद्धकी, उत्तरमें संकर्षणकी और पश्चिम दिशामें प्रद्युम्नकी पूजा करे ॥ १८ ॥ पश्चिमके कमलमें ब्रह्माजीका आवाहनकर पूजन करे । मन्त्रमर्मज्ञ ‘हिरण्यगर्भः समवर्तत ‘ “हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।” (यजु० १३।४)– इस मन्त्रसे हिरण्यगर्भका पूर्वमें, विराट्पुरुषका दक्षिणमें, पुष्करका उत्तरमें एवं कालपुरुषका पश्चिम दिशामें पूजन करे ॥ १९-२० ॥ पूर्वादि प्रदक्षिणविधिसे सबसे ऊपरकी पंक्तिमें उन- उन स्थानोंपर क्रमानुसार लोकपालोंकी पूजा करे ॥ २१ ॥ ‘ॐ रां ॐ मां, ॐ क्षां, ॐ लां, ॐ वां, ॐ शां, ॐ सां, ॐ हां, ॐ ॐ, ॐ श्रीं – यही दस लोकपालोंके दस बीजमन्त्र हैं, इनका उद्धारकर क्रमसे उनकी पूजा करे। नैर्ऋत्य और उत्तरदिशामें ब्रह्मदेव एवं विष्णुका तथा दक्षिणमें ईशानका षोडशोपचारसे पूजन करे और पाँचवें आवरणकी बाह्य रेखाओंमें देवेशकी पूजा करे ॥ २२ – २४ ॥ ईशानमें ऐश्वर्यमय त्रिशूल, पूर्वमें वज्र, आग्नेयकोणमें परशु, दक्षिणमें बाण, नैर्ऋत्यकोणमें खड्ग, पश्चिममें पाश, वायव्यमें अंकुश और उत्तरभागमें पिनाकका पूजन करे ॥ २५-२६ ॥ विधिवेत्ता पुरुषको चाहिये कि वह यथाविधि शिवजीकी प्रसन्नताके निमित्त रौद्र स्वरूपवाले पश्चिमाभिमुख क्षेत्रपालका पूजन करे। ऐसी भावना करे कि हास्ययुक्त मुखकमलवाले सभी देवता हाथ जोड़कर सादर देवाधिदेव महादेव तथा देवीकी ओर सतत देख रहे हैं ॥ २७-२८ ॥ इस तरह आवरणकी पूजाकर विघ्नकी शान्तिके लिये पुन: देवेशकी अर्चना करके प्रणवसे युक्त शिवका ‘ॐ शिव’ इस प्रकार स्मरण करे ॥ २९ ॥ इस प्रकार गन्धादि उपचारोंसे विधिपूर्वक शिवकी पूजा करनेके पश्चात् [ शास्त्रीय] विधिसे बनाया हुआ नैवेद्य उन्हें समर्पित करे। इसके बाद पहले की तरह आचमनीय तथा अर्घ्य प्रदान करे, फिर जल तथा ताम्बूल निवेदनकर नीराजन आदि करके शेष पूजा सम्पन्न करे । तदनन्तर देवाधिदेव शिव तथा शिवाका ध्यानकर एक सौ आठ बार उनके मन्त्रका जप करे ॥ ३०–३२ ॥ तत्पश्चात् उठकर हाथमें पुष्पांजलि लेकर स्थित हो जाय और महादेवका ध्यान करके ‘यो देवानाम्’ से लेकर ‘यो वेदादौ स्वरः प्रोक्तः ‘ पर्यन्त जप करे । हे परमेश्वरि! पुनः पुष्पांजलि देकर तीन बार प्रदक्षिणा करे ॥ ३३-३४ ॥ इसके पश्चात् अत्यन्त भक्तिभावसे युक्त हो साष्टांग प्रणाम करे, पुनः प्रदक्षिणा करके एक बार नमस्कार करे ॥ ३५ ॥ तदनन्तर आसनपर बैठकर शिवके आठ नामोंके द्वारा पूजनकर उनकी प्रार्थना करके ऐसा कहे – हे भगवन्! हे शम्भो ! मैंने जो कुछ भी विधियुक्त या विधिहीन कर्मानुष्ठान किया है, वह सब आपकी ही आराधना हो जाय, इस प्रकार कहकर पुष्पसहित शंख- जलसे पूजा उन्हींको समर्पितकर पुन: पूज्यकी पूजा करके उनके आठ नामोंका अर्थसहित जप करे । देवेशि ! आपकी भक्तिसे [प्रसन्न होकर] अब मैं उसीको कह रहा हूँ, आप सुनें ॥ ३६-३८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें आवरणपूजावर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe