शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 39
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कोटिरुद्रसंहिता
उनतालीसवाँ अध्याय शिवरात्रिव्रतकी उद्यापन विधिका वर्णन

ऋषिगण बोले – [ हे सूत ! ] अब आप शिवरात्रिव्रतके उद्यापनका विधान कहिये, जिसके करनेसे साक्षात् शंकरजी निश्चित रूपसे प्रसन्न होते हैं ॥ १ ॥

सूतजी बोले- हे ऋषियो ! आपलोग उसके उद्यापनको भक्तिपूर्वक सुनें, जिसके करनेसे निश्चित रूपसे शिवरात्रिव्रत पूर्ण हो जाता है ॥ २ ॥ इस शुभ शिवरात्रिव्रतका अनुष्ठान चौदह वर्षों तक करना चाहिये। त्रयोदशीको एक बार भोजनकर चतुर्दशीको उपवास करना चाहिये ॥ ३ ॥ शिवरात्रिका दिन आनेपर नित्यक्रियाकर शिवालयमें जाकर विधिपूर्वक पूजन करनेके अनन्तर वहाँ प्रयत्नपूर्वक दिव्य मण्डलका निर्माण कराना चाहिये, जो लोकमें गौरीतिलक के नामसे प्रसिद्ध है ॥ ४-५ ॥ उसके बीचमें लिंगतोभद्रमण्डल बनाना चाहिये अथवा मण्डपके अन्दर सर्वतोभद्रमण्डल का निर्माण करना चाहिये । वहाँपर वस्त्र, फल एवं दक्षिणा- सहित प्राजापत्यसंज्ञक शुभ कलशोंको स्थापित करे और उन्हें मण्डलके पासमें प्रयत्नपूर्वक स्थापित करके उसके मध्यमें सुवर्णका एक अन्य घट भी स्थापित करे ॥ ६–८ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उसपर एक पल या आधे पलकी अथवा अपने सामर्थ्यके अनुसार पार्वतीसहित शिवकी सुवर्णमय मूर्ति बनाकर बड़ी सावधानीके साथ बायीं ओर पार्वतीकी प्रतिमा रखकर एवं दाहिनी ओर शिवकी प्रतिमा रखकर व्रती रात्रिमें पूजन करे ॥ ९-१० ॥ पवित्र आचरण करनेवाले ऋत्विजोंसहित आचार्यका वरण करे और उनकी आज्ञा लेकर भक्तिपूर्वक शिवार्चन प्रारम्भ करे । व्रतीको चाहिये कि रात्रिमें जागरण करे और प्रत्येक प्रहरकी पूजा करते हुए गीत, नृत्य आदिके साथ सारी रात व्यतीत करे ॥ ११ – १२ ॥ इस प्रकार विधिवत् पूजनकर शिवको सन्तुष्ट करके पुनः प्रातः काल होनेपर पूजनकर यथाविधि हवन करे । यथाशक्ति प्राजापत्यव्रत का विधान करे, प्रेमपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये और भक्तिपूर्वक दान दे ॥ १३-१४ ॥

उसके बाद सपत्नीक ऋत्विजोंको वस्त्र, अलंकार एवं आभूषणोंसे विधानपूर्वक अलंकृतकर अलग-अलग दान देना चाहिये। शिवजी मुझपर प्रसन्न हों – ऐसा कहकर आचार्यको विधानके अनुसार बछड़ेसहित सभी सामग्रियोंसे संयुक्त धेनु प्रदान करे ॥ १५ – १६ ॥ उसके अनन्तर कलश, वस्त्र तथा सभी आभूषणों- सहित वृषभपर स्थित उस मूर्तिको आचार्यको प्रदान करे ॥ १७ ॥ उसके बाद हाथ जोड़कर सिर झुकाकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे महाप्रभु महेश्वरसे प्रार्थना करे – हे देव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! हे देवेश ! इस व्रतसे [सन्तुष्ट हो] आप मेरे ऊपर कृपा करें । हे शिव ! मैंने भक्तिके अनुसार यह व्रत किया है । हे शंकर ! इसमें जो न्यूनता रह गयी हो, वह आपकी कृपासे सम्पूर्णताको प्राप्त हो । हे शंकर ! मैंने ज्ञान अथवा अज्ञानसे जो जप-पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपासे सफल हो ॥ १८–२१ ॥

कुछ इस प्रकार परमात्मा शिवको पुष्पांजलि समर्पितकर नमस्कार करे एवं पुनः प्रार्थना करे ॥ २२ ॥

[हे ऋषियो !] इस प्रकार जिसने इस व्रतको किया है, उसे कोई कमी नहीं रहती है और वह मनोभिलषित सिद्धि प्राप्त करता है। इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें शिवरात्रिव्रतोद्यापन नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥

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