August 8, 2019 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 05 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः पाँचवाँ अध्याय ब्रह्मा की मानसपुत्री कुमारी सन्ध्या का आख्यान सूतजी बोले — हे महर्षियो ! ब्रह्माजी के इस वचन को सुनकर मुनिश्रेष्ठ [नारद] प्रसन्नचित्त होकर शंकरजी का स्मरण करके आनन्दपूर्वक कहने लगे — ॥ १ ॥ शिवमहापुराण नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे विष्णुशिष्य ! हे महाभाग ! हे महामते ! आपने शिवजी की अद्भुत लीला का वर्णन किया ॥ २ ॥ जब कामदेव अपनी पत्नी को प्राप्तकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया तथा प्रजापति दक्ष भी अपने घर चले गये, सृष्टिकर्ता आप ब्रह्मा तथा आपके मानसपुत्र भी अपने-अपने घर चले गये, तब पितरों की जन्मदात्री वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या कहाँ गयी ? ॥ ३-४ ॥ उसने क्या किया और उसका विवाह किस पुरुष के साथ हुआ ? इन सब बातों को और सन्ध्या के चरित्र को विशेष रूप से कहिये ॥ ५ ॥ सूतजी बोले — तत्त्ववेत्ता ब्रह्मदेव परम बुद्धिमान् देवर्षि नारद के इस वचन को सुनकर भक्तिपूर्वक शंकरजी का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! सन्ध्या का सम्पूर्ण शुभ चरित्र सुनिये, जिसे सुनकर हे मुने ! सभी स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं ॥ ७ ॥ वह सन्ध्या, जो पूर्वकाल में मेरे मन से उत्पन्न हुई थी, वही तपस्याकर शरीर छोड़ने के बाद अरुन्धती हुई ॥ ८ ॥ उस बुद्धिमती तथा उत्तम व्रत करनेवाली सन्ध्या ने मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की कन्या के रूप में जन्म ग्रहणकर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के वचनों से महात्मा वसिष्ठ का अपने पतिरूप में वरण किया । वह श्रेष्ठ पतिव्रता, वन्दनीय, पूजनीय तथा दया की प्रतिमूर्ति थी ॥ ९-१० ॥ नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! उस सन्ध्या ने क्यों, कहाँ तथा किस उद्देश्य से तप किया, किस प्रकार वह अपना शरीर त्याग करके मेधातिथि की कन्या हुई और उसने किस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के द्वारा बताये गये उत्तम व्रतवाले महात्मा वसिष्ठ को अपना पति स्वीकार किया ? ॥ ११-१२ ॥ हे पितामह ! इसे सुनने की मेरी बड़ी उत्सुकता है, अतः सुनने की इच्छावाले मुझसे अरुन्धती के चरित्र का विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक वर्णन कीजिये ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] पहले अपनी पुत्री सन्ध्या को देखकर मेरा मन काम से आकृष्ट हो गया, किंतु बाद में शिव के भय से मैंने उसे छोड़ दिया ॥ १४ ॥ कामबाण से घायल होकर उस सन्ध्या का तथा मन को वश में रखनेवाले महात्मा ऋषियों का भी चित्त चलायमान हो गया था ॥ १५ ॥ उस समय मेरे प्रति कहे गये शिवजी के उपहासयुक्त वचन को सुनकर और ऋषियों के प्रति अपने चित्त को मर्यादा छोड़कर चलायमान देखकर तथा बार-बार मुनियों को मोहित करनेवाले उस प्रकार के भाव को देखकर वह सन्ध्या विवाह के लिये स्वयं अत्यन्त दुःखी हुई ॥ १६-१७ ॥ हे मुने ! कामदेव को शाप देकर जब मैं अन्तर्धान हो गया एवं शिवजी अपने स्थान कैलास को चले गये, उस समय हे मुनिसत्तम ! वह मेरी पुत्री सन्ध्या क्षुब्ध होकर कुछ विचार करके ध्यानमग्न हो गयी ॥ १८-१९ ॥ वह मनस्विनी सन्ध्या कुछ देर तक अपने पूर्व वृत्त का स्मरण करती हुई उस समय यथोचित रूप से यह विचार करने लगी – ॥ २० ॥ सन्ध्या बोली — मेरे पिता ने उत्पन्न होते ही मुझ युवती को देखकर काम से प्रेरित होकर अनुरागपूर्वक मुझे प्राप्त करने की अभिलाषा की ॥ २१ ॥ इसी प्रकार आत्मतत्त्वज्ञ ब्रह्मदेव के मानसपुत्रों ने भी मुझे देखकर अपना मन मर्यादा से रहितकर कामाभिलाष से युक्त कर लिया ॥ २२ ॥ इस दुरात्मा कामदेव ने मेरे भी चित्त को मथ डाला, जिससे सभी मुनियों को देखकर मेरा मन बहुत चंचल हो गया ॥ २३ ॥ इस पाप का फल कामदेव ने स्वयं पाया कि शंकरजी के सामने कुपित होकर ब्रह्माजी ने उसे शाप दे दिया ॥ २४ ॥ मैं पापिनी भी इस पाप का फल पाऊँगी, अतः उस पाप से शुद्ध होने के लिये मैं भी कोई साधन करना चाहती हूँ; क्योंकि मुझे देखकर मेरे पिता तथा सभी भाई प्रत्यक्ष रूप से कामभावपूर्वक मेरी अभिलाषा करने लगे । अतः मुझसे बढ़कर कोई पापिनी नहीं है ॥ २५-२६ ॥ उन सबको देखकर मुझमें भी अमर्यादित रूप से कामभाव उत्पन्न हो गया और मैं भी अपने पिता तथा सभी भाइयों में पति के समान भावना करने लगी ॥ २७ ॥ अब मैं इस पाप का प्रायश्चित्त करूंगी और वेदमार्ग के अनुसार अपने शरीर को अग्नि में हवन कर दूंगी । मैं इस भूतल पर एक मर्यादा स्थापित करूंगी, जिससे कि शरीरधारी उत्पन्न होते ही कामभाव से युक्त न हों ॥ २८-२९ ॥ इसके लिये मैं परम कठोर तप करके उस मर्यादा को स्थापित करूंगी और बाद में अपना शरीर छोड़ूँगी ॥ ३० ॥ मेरे जिस शरीर में मेरे पिता एवं भाइयों ने कामाभिलाष किया, उस शरीर से अब कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ३१ ॥ मैंने भी जिस शरीर से अपने पिता तथा भाइयों में कामभाव उत्पन्न किया, अब वह शरीर पुण्यकार्य का साधन नहीं हो सकता ॥ ३२ ॥ वह सन्ध्या अपने मन में ऐसा विचारकर चन्द्रभाग नामक श्रेष्ठ पर्वत पर गयी, जहाँ से चन्द्रभागा नदी निकली हुई है ॥ ३३ ॥ इसके बाद सन्ध्या को उस श्रेष्ठ पर्वत पर तपस्या के लिये गयी हुई जानकर मैंने अपने पास में बैठे हुए, मन को वश में रखनेवाले, सर्वज्ञ, ज्ञानयोग तथा वेदवेदांग के पारगामी अपने पुत्र वसिष्ठ से कहा — ॥ ३४-३५ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे पुत्र वसिष्ठ ! तपस्या का विचार करके गयी हुई मनस्विनी पुत्री सन्ध्या के पास जाओ और इसे विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करो ॥ ३६ ॥ हे मुनिसत्तम ! प्रथम यह तुमलोगों को, मुझको तथा अपने को कामाभिलाष से युक्त देख रही थी, परंतु अब इसके नेत्रों की चपलता दूर हो गयी है ॥ ३७ ॥ यह तुमलोगों को तथा अपने अभूतपूर्व दुष्कर्म को समझकर ‘मृत्यु ही अच्छी है — ऐसा विचारकर प्राण छोड़ने की इच्छा करती है ॥ ३८ ॥ अब यह तपस्या के द्वारा अमर्यादित प्राणियों में मर्यादा स्थापित करेगी, इसलिये तपस्या करने के लिये वह साध्वी चन्द्रभाग नामक पर्वत पर गयी है ॥ ३९ ॥ हे तात ! वह तपस्या की किसी भी क्रिया को नहीं जानती है, अतः जिस प्रकार के उपदेश से वह अपने अभीष्ट को प्राप्त करे, वैसा करो ॥ ४० ॥ हे मुने ! तुम अपने इस रूप को छोड़कर दूसरा शरीर धारणकर उसके समीप में स्थित होकर तपश्चर्या की क्रियाओं को प्रदर्शित करो ॥ ४१ ॥ उसने यहाँ पर मेरे तथा तुम्हारे रूप को पहले देख लिया है, इस रूप द्वारा वह कुछ भी शिक्षा ग्रहण नहीं करेगी, इसलिये दूसरा रूप धारण करो ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! इस प्रकार दयालु मुनि वसिष्ठजी ने मुझसे आज्ञा प्राप्त की और तथास्तु — ऐसा कहकर वे सन्ध्या के समीप गये ॥ ४३ ॥ वसिष्ठजी ने वहाँ मानससरोवर के समान गुणों से परिपूर्ण देवसर को तथा उसके तटपर गयी हुई उस सन्ध्या को भी देखा ॥ ४४ ॥ उज्ज्वल कमलों से युक्त वह देवसर तट पर स्थित सन्ध्या द्वारा इस प्रकार शोभित हो रहा था, मानो प्रदोषकाल में उदित चन्द्रमा तथा नक्षत्रों से युक्त आकाश रात्रि में सुशोभित हो रहा हो ॥ ४५ ॥ कौतूहलयुक्त वसिष्ठजी सुन्दर भावोंवाली उस सन्ध्या को देखकर बृहल्लोहित नामक उस तालाब की ओर देखने लगे ॥ ४६ ॥ उन्होंने उसी चन्द्रभाग पर्वत के शिखरों से दक्षिण समुद्र की ओर जानेवाली चन्द्रभागा नदी को देखा । वह नदी चन्द्रभाग पर्वत के विशाल पश्चिमीभाग को तोड़कर समुद्र की ओर उसी प्रकार जा रही थी, जैसे हिमालय से गंगा समुद्र में जाती है ॥ ४७-४८ ॥ उस चन्द्रभाग पर्वत पर बृहल्लोहित सरोवर के तट पर स्थित सन्ध्या को देखकर वसिष्ठजी आदरपूर्वक उससे पूछने लगे — ॥ ४९ ॥ वसिष्ठजी बोले — हे भद्रे ! इस निर्जन पर्वत पर तुम किसलिये आयी हो, तुम किसकी कन्या हो और यहाँ क्या करना चाहती हो ? पूर्ण चन्द्रमा के समान तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो गया है ? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो बताओ, मुझे सुनने की इच्छा है ॥ ५०-५१ ॥ ब्रह्माजी बोले — उन महात्मा वसिष्ठ की बात सुनकर उन्हें महात्मा, प्रदीप्त अग्नि के समान तेजस्वी, ब्रह्मचारी तथा जटाधारी देखकर और आदरपूर्वक प्रणामकर सन्ध्या उन तपोधन वसिष्ठ से कहने लगी — ॥ ५२-५३ ॥ सन्ध्या बोली — हे विभो ! मैं जिस उद्देश्य से इस सिद्ध पर्वत पर आयी हूँ, वह तो आपके दर्शनमात्र से ही पूर्ण हो जायगा ॥ ५४ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैं तप करने के लिये इस निर्जन पर्वत पर आयी हूँ, मैं ब्रह्मा की पुत्री हूँ और सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध हूँ ॥ ५५ ॥ यदि आपको उचित जान पड़े, तो मुझे उपदेश कीजिये । मैं तपस्या करना चाहती हूँ, अन्य कुछ भी गोपनीय नहीं है ॥ ५६ ॥ मैं तपस्या की कोई विधि बिना जाने ही तपोवन में आ गयी हूँ । इसी चिन्ता से मैं सूखती जा रही हूँ तथा मेरा हृदय काँप रहा है ॥ ५७ ॥ ब्रह्माजी बोले — ब्रह्मज्ञानी वसिष्ठजी ने उसकी बात सुनकर पुनः सन्ध्या से कुछ नहीं पूछा; क्योंकि वे सभी बातें जानते थे । इसके बाद वे मन में भक्तवत्सल शंकरजी का स्मरणकर तपस्या के लिये उद्यम करनेवाली तथा मन को वश में रखनेवाली उस सन्ध्या से कहने लगे — ॥ ५८-५९ ॥ वसिष्ठजी बोले — [हे देवि!] जो महान् तेजःस्वरूप, महान् तप तथा परम आराध्य हैं, उन शम्भु का मन में ध्यान करो ॥ ६० ॥ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आदिकारण तथा अद्वैतस्वरूप हैं, उन्हीं संसार के एकमात्र आदिकारण पुरुषोत्तम का भजन करो ॥ ६१ ॥ हे शुभानने ! तुम इस मन्त्र से देवेश्वर शम्भु का भजन करो, उससे तुम्हें समस्त पदार्थों की प्राप्ति हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६२ ॥ ‘ॐ नमः शंकराय ॐ’ इस मन्त्र से मौन होकर इस प्रकार तपस्या का प्रारम्भ करो, [विशेष विधि] तुमको बता रहा हूँ, सुनो ॥ ६३ ॥ मौन होकर स्नान तथा मौन होकर सदाशिव की पूजा करनी चाहिये । प्रथम दोनों षष्ठकालों में जल का आहारकर तीसरे षष्ठकाल में उपवास करे । इस प्रकार षष्ठकालिक क्रिया तपस्या की समाप्तिपर्यन्त करनी चाहिये ॥ ६४-६५ ॥ हे देवि ! इसका नाम मौन तपस्या है । इसे करने से यह ब्रह्मचर्य का फल प्रदान करनेवाली तथा सभी अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली है, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६६ ॥ इस प्रकार चित्त में विचार करके सदाशिव का गहन चिन्तन करो, [ऐसा करने से] वे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे ॥ ६७ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार मुनि वसिष्ठ वहाँ बैठकर सन्ध्या को तपस्या की यथोचित विधि बताकर अन्तर्धान हो गये ॥ ६८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सन्ध्याचरित्रवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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