शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 37
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
सैंतीसवाँ अध्याय
शंखचूड के साथ कार्तिकेय आदि महावीरों का युद्ध

सनत्कुमार बोले — [हे व्यासजी!] उस समय दानवों ने सभी देवताओं को पराजित कर दिया, जिससे शस्त्रास्त्रों से क्षत-विक्षत अंगोंवाले देवता भयभीत होकर भागने लगे ॥ १ ॥ वे लौटकर शिवजी की शरण में गये और ‘हे सर्वेश ! रक्षा करो, रक्षा करो’, ऐसा विह्वल वाणी में कहने लगे ॥ २ ॥

शिवमहापुराण

तब उन देवताओं की इस प्रकार की पराजय देखकर तथा उनका भययुक्त वचन सुनकर शिवजी ने महान् क्रोध किया । कृपादृष्टि से देखकर उन्होंने देवताओं को अभयदान दिया तथा अपने तेज से गणों के बल को बढ़ाया ॥ ३-४ ॥

तब शिवपुत्र महावीर कार्तिकेय शिवजी की आज्ञा लेकर रणक्षेत्र में दानवों के साथ निर्भय होकर युद्ध करने लगे । तारकासुर का वध करनेवाले कार्तिकेय ने क्रोध करके वीरध्वनि करते हुए उनकी सौ अक्षौहिणी सेना को युद्ध में मार डाला । कमल के समान नेत्रवाली काली सहसा दैत्यों का सिर काटकर रक्त बहाने लगीं और उनका भक्षण करने लगीं ॥ ५-७ ॥

वे दानवों के रुधिर का चारों ओर से पान करने लगी और देवताओं तथा दानवों के लिये भयंकर विविध प्रकार के युद्ध करने लगीं । उन्होंने रण में लीलापूर्वक सौ लाख हाथी एवं सौ लाख दानवों को एक हाथ से उठाकर मुख में डाल लिया ॥ ८-९ ॥ हजारों कबन्ध युद्धभूमि में नृत्य करने लगे । उस समय महान् कोलाहल होने लगा, जो कायरों के लिये भयप्रद था । इसके बाद स्कन्द कुपित हो पुनः बाणों की वर्षा करने लगे और उन्होंने क्षणभर में करोड़ों असुरसेनापतियों को मारकर गिरा दिया ॥ १०-११ ॥

जो शेष दानव मरने से बच गये, वे सब स्कन्द के बाणों से क्षत-विक्षत तथा भयभीत होकर भागने लगे ॥ १२ ॥ तब वृषपर्वा, विप्रचित्ति, दण्ड, विकम्पन — ये सब बारी-बारी से स्कन्द के साथ युद्ध करने लगे ॥ १३ ॥ महामारी भी युद्ध करने लगी और युद्ध से नहीं हटी । उधर स्कन्द की शक्ति से पीड़ित हुए असुरगण क्षत-विक्षत होने लगे । हे मुने ! उस समय स्कन्द एवं महामारी की विजय हुई, स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगी और फूलों की वृष्टि होने लगी ॥ १४-१५ ॥

तब कार्तिकेय के महाभयानक, अद्भुत, दानवों का क्षय करनेवाले एवं कल्पान्तसदृश और महामारी के द्वारा किये गये क्षयकारी उपद्रव को देखकर वह शंखचूड अत्यन्त कुपित हुआ और स्वयं सहसा युद्ध के लिये तैयार हुआ ॥ १६-१७ ॥ वह शंखचूड अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त, विविध रत्नों से जटित तथा सभी वीरों को अभय देनेवाले विमान पर चढ़कर महावीरों के साथ रणभूमि में उपस्थित हो गया और कर्णपर्यन्त धनुष की प्रत्यंचा खींचकर बाणों की वर्षा करने लगा ॥ १८-१९ ॥

उसकी वह शरवृष्टि भयानक थी तथा प्रतीकार के योग्य नहीं थी, उससे युद्धस्थल में घनघोर अन्धकार छा गया ॥ २० ॥ सभी देवता तथा नन्दीश्वर आदि जो अन्य थे, वे महागण भागने लगे, उस युद्ध में एकमात्र कार्तिकेय ही डटे रहे ॥ २१ ॥ उस समय दानवराज ने पर्वतों, सर्पो, नागों एवं वृक्षों की भयंकर एवं दुर्निवार्य वर्षा की, उस वृष्टि से शिवपुत्र स्कन्द उसी प्रकार आहत (आच्छन्न) हो गये, जैसे घने कोहरे से आच्छादित सूर्य ॥ २२-२३ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! उसने मय दानव के द्वारा सिखायी गयी अपनी अनेक प्रकार की माया फैलायी, किंतु कोई भी देवता तथा गण उसे नहीं जान सके ॥ २४ ॥ उसी समय महामायावी एवं महाबली शंखचूड ने अपने एक ही दिव्य बाण से उनके धनुष को काट दिया ॥ २५ ॥ उसने उनके दिव्य रथ एवं रथ के रक्षकों को नष्ट कर दिया तथा अपने दिव्यास्त्र से उनके मयूर को जर्जर कर दिया ॥ २६ ॥

उसने उनके वक्षःस्थल पर सूर्य के समान देदीप्यमान एवं आघात करनेवाली अपनी शक्ति चलायी, तब उसके प्रहार से वे कार्तिकेय सहसा मूर्च्छित हो गये ॥ २७ ॥ पुनः [क्षणमात्र में] चेतना प्राप्तकर शत्रुवीरों को नष्ट करनेवाले कार्तिकेय अपने महारत्नजटित वाहन पर सवार हो गये । वे कार्तिकेय पार्वतीसहित शिव के चरणों का स्मरणकर अस्त्र-शस्त्र लेकर घनघोर संग्राम करने लगे ॥ २८-२९ ॥

उन शिवपुत्र ने क्रोधपूर्वक अपने दिव्यास्त्र से उसके समस्त सर्पों, पर्वतों, वृक्षों एवं पाषाणों को काट दिया ॥ ३० ॥ उन्होंने पार्जन्य बाण के द्वारा लीला से ही शंखचूड के आग्नेयास्त्र को शान्त कर दिया और उसका रथ तथा धनुष भी काट डाला । वे उसके कवच, समस्त वाहन, उज्ज्वल किरीट एवं मुकुट को नष्टकर वीरध्वनि करने लगे तथा बारंबार गरजने लगे ॥ ३१-३२ ॥

उसके बाद उन्होंने दानवेन्द्र की छाती पर सूर्य के समान देदीप्यमान शक्ति से प्रहार किया । उस अत्यन्त तीव्र प्रहार से वह मूर्च्छित हो गया । वह महाबली थोड़ी ही देर में शक्ति की पीड़ा दूरकर चेतना प्राप्त करके उठ गया तथा सिंह के समान गर्जना करने लगा ॥ ३३-३४ ॥

उस महाबली ने कार्तिकेय पर अपनी शक्ति से प्रहार किया, तब कार्तिकेय विधाता के द्वारा दी गयी शक्ति को अमोघ सिद्ध करने के लिये पृथ्वीतल पर गिर पड़े ॥ ३५ ॥ तब काली उन्हें अपनी गोद में उठाकर शिवजी के पास ले आयीं । शिवजी ने अपनी लीला से ज्ञान के द्वारा उन्हें जीवित कर दिया और उन्हें अनन्त बल प्रदान किया । तब वे महाप्रतापी शिवपुत्र उठ बैठे तथा पुनः युद्ध में जाने का विचार करने लगे ॥ ३६-३७ ॥ इसी बीच महाबली तथा पराक्रमी वीरभद्र बलशाली शंखचूड के साथ रणक्षेत्र में युद्ध करने लगे ॥ ३८ ॥

उस दानव ने समर में जिन-जिन अस्त्रों को चलाया, उन-उन अस्त्रों को उन वीरभद्र ने लीलापूर्वक अपने बाणों से नष्ट कर दिया ॥ ३९ ॥ तब उस दानवेश्वर ने सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोड़े, किंतु प्रतापी वीरभद्र ने अपने बाणों से उनका छेदन कर दिया ॥ ४० ॥ तब प्रतापी शंखचूड अत्यन्त कुपित हुआ । उसने अपनी शक्ति के द्वारा उनकी छाती पर प्रहार किया, जिससे वे काँप उठे और पृथ्वी पर गिर गये ॥ ४१ ॥

इसके बाद गणों में प्रमुख गणेश्वर वीरभद्र क्षणमात्र में चेतना प्राप्तकर उठ बैठे और उन्होंने पुनः अपना धनुष ले लिया ॥ ४२ ॥ इसी बीच काली कार्तिकेय की इच्छा से दानवों का भक्षण करने तथा अपने गणों की रक्षा करनेहेतु युद्धभूमि में गयीं और वे नन्दीश्वर आदि वीरगण, सभी देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा नाग उनके पीछे-पीछे चलने लगे । बाजे बजने लगे, सैकड़ों वीर मधुभाण्ड लिये हुए थे । दोनों पक्ष के वीर युद्ध के लिये उद्यत थे ॥ ४३-४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवध के अन्तर्गत ससैन्यशंखचूडयुद्धवर्णन नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥

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