शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 25
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] पचीसवाँ अध्याय
शिवपूजाकी विशेष विधि तथा शिव – भक्तिकी महिमा

[ उपमन्यु बोले – हे कृष्ण ! ] इस विषयमें जो कुछ नहीं कह पाया हूँ, उसे पूजाके क्रमके लोप होनेके भयसे विस्तारपूर्वक तो नहीं, अपितु संक्षेपमें ही कहूँगा ॥ १ ॥

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन ! दीपदानके बाद और नैवेद्य-निवेदनसे पहले आवरण – पूजा करनी चाहिये अथवा आरतीका समय आनेपर आवरणपूजा करे ॥ २ ॥ वहाँ शिव या शिवाके प्रथम आवरणमें ईशानसे लेकर ‘सद्योजातपर्यन्त’ तथा हृदयसे लेकर अस्त्रपर्यन्तका पूजन करेअर्थात्–ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात – इन पाँच मूर्तियोंका तथा हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र – इन अंगोंका पूजन करना चाहिये ।॥ ३ ॥ ईशानमें, पूर्वभागमें, दक्षिणमें, उत्तरमें, पश्चिममें, आग्नेयकोणमें, ईशानकोणमें, नैर्ऋत्यकोणमें, वायव्यकोणमें, फिर ईशानकोणमें तत्पश्चात् चारों दिशाओंमें गर्भावरण अथवा मन्त्र – संघातकी पूजा बतायी गयी है या हृदयसे लेकर अस्त्रपर्यन्त अंगोंकी पूजा करे ॥ ४ – ५१/२ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


इनके बाह्यभागमें पूर्वदिशामें इन्द्रका, दक्षिणदिशामें यमका, पश्चिम दिशामें वरुणका, उत्तर दिशामें कुबेरका, ईशानकोणमें ईशानका, अग्निकोणमें अग्निका, नैर्ऋत्यकोणमें निर्ऋतिका, वायव्यकोणमें वायुका, नैर्ऋत्य और पश्चिमके बीचमें अनन्त या विष्णुका तथा ईशान और पूर्वके बीचमें ब्रह्माका पूजन करे ॥ ६–७१/२ ॥ कमलके बाह्यभागमें वज्रसे लेकर कमलपर्यन्त लोकेश्वरोंके सुप्रसिद्ध आयुधोंका पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः पूजन करे। यह ध्यान करना चाहिये कि समस्त आवरणदेवता सुखपूर्वक बैठकर महादेव और महादेवीकी ओर दोनों हाथ जोड़े देख रहे हैं । फिर सभी आवरण देवताओंको प्रणाम करके ‘नमः’ पदयुक्त अपने-अपने नामसे पुष्पोपचार समर्पणपूर्वक उनका क्रमशः पूजन करे। (यथा इन्द्राय नमः पुष्पं समर्पयामि इत्यादि । ) इसी तरह गर्भावरणका भी अपने आवरण – सम्बन्धी मन्त्रसे यजन करे ॥ ८-११ ॥

योग, ध्यान, होम, जप और बाह्य अथवा आभ्यन्तरमें भी देवताका पूजन करना चाहिये। इसी तरह उनके लिये छः प्रकारकी हवि भी देनी चाहिये – किसी एक शुद्ध अन्नका बना हुआ, मूँगमिश्रित अन्न या मूँगकी खिचड़ी, खीर, दधिमिश्रित अन्न, गुड़का बना हुआ पकवान तथा मधुसे तर किया हुआ भोज्य पदार्थ – इनमें से एक या अनेक हविष्यको नाना प्रकारके व्यंजनोंसे संयुक्त तथा गुड़ और खाँड़से सम्पन्न करके नैवेद्यके रूपमें अर्पित करना चाहिये। साथ ही मक्खन और उत्तम दही परोसना चाहिये । पूआ आदि अनेक प्रकारके भक्ष्य पदार्थ और स्वादिष्ट फल देने चाहिये ॥ १२-१४ ॥ लाल चन्दन और पुष्पवासित अत्यन्त शीतल जल अर्पित करना चाहिये। मुख- शुद्धिके लिये मधुर इलायचीके रससे युक्त सुपारीके कोमल टुकड़े, खैर आदिसे युक्त सुनहरे रंगके पीले पानके पत्तोंके बने हुए बीड़े, शिलाजीतका चूर्ण, सफेद चूना, जो अधिक रूखा या दूषित न हो, कपूर, कंकोल, नूतन एवं सुन्दर जायफल आदि अर्पित करने चाहिये। आलेपनके लिये चन्दनका मूलकाष्ठ अथवा उसका चूरा, कस्तूरी, कुंकुम, मृगमदात्मक रस होने चाहिये। फूल वे ही चढ़ाने चाहिये, जो सुगन्धित, पवित्र और सुन्दर हों ॥ १५–१८ ॥

गन्धरहित, उत्कट गन्धवाले, दूषित, बासी तथा स्वयं ही टूटकर गिरे हुए फूल शिवके पूजनमें नहीं देने चाहिये। कोमल वस्त्र ही चढ़ाने चाहिये । भूषणोंमें विशेषतः वे ही अर्पित करने चाहिये, जो सोनेके बने हुए तथा विद्युन्मण्डलके समान चमकीले हों, ये सब वस्तुएँ कपूर, गुग्गुल, अगुरु और चन्दनसे आधूपित तथा पुष्पसमूहोंसे सुवासित होनी चाहिये । चन्दन, अगुरु, कपूर, सुगन्धित काष्ठ तथा गुग्गुलके चूर्ण, घी और मधुसे बना हुआ धूप उत्तम माना गया है ॥ १९–२२ ॥ कपिला गायके अत्यन्त सुगन्धित घीसे प्रतिदिन जलाये गये कर्पूरयुक्त दीप श्रेष्ठ माने गये हैं। पंचगव्य, मीठे पदार्थ और कपिला गायका दूध, दही एवं घी- ये सब भगवान् शंकरके स्नान और पानके लिये अभीष्ट हैं ॥ २३-२४ ॥ हाथीके दाँतके बने हुए भद्रासन, जो सुवर्ण एवं रत्नोंसे जटित हैं, शिवके लिये श्रेष्ठ बताये गये हैं। उन आसनोंपर विचित्र बिछावन, कोमल गद्दे और तकिये होने चाहिये। इनके सिवा और भी बहुत-सी छोटी-बड़ी सुन्दर एवं सुखद शय्याएँ होनी चाहिये ॥ २५-२६ ॥

समुद्रगामिनी नदी एवं नदसे लाया तथा कपड़ेसे छानकर रखा हुआ शीतल जल भगवान् शंकरके स्नान और पानके लिये श्रेष्ठ कहा गया है। चन्द्रमाके समान उज्ज्वल छत्र, जो मोतियोंकी लड़ियोंसे सुशोभित, नवरत्नजटित, दिव्य एवं सुवर्णमय दण्डसे मनोहर हो, भगवान् शिवकी सेवामें अर्पित करनेयोग्य हैं ॥ २७-२८ ॥ सुवर्णभूषित दो श्वेत चँवर, जो रत्नमय दण्डोंसे शोभायमान तथा दो राजहंसोंके समान आकारवाले हों, शिवकी सेवामें देनेयोग्य हैं । सुन्दर एवं स्निग्ध दर्पण, जो दिव्य गन्धसे अनुलिप्त, सब ओरसे रत्नोंद्वारा आच्छादित तथा सुन्दर हारोंसे विभूषित हो, भगवान् शंकरको अर्पित करना चाहिये ॥ २९-३०॥ उनके पूजनमें हंस, कुन्द एवं चन्द्रमाके समान उज्ज्वल तथा गम्भीर ध्वनि करनेवाले शंखका उपयोग करना चाहिये, जिसके मुख और पृष्ठ आदि भागोंमें रत्न एवं सुवर्ण जड़े गये हों । शंखके सिवा नाना प्रकारकी ध्वनि करनेवाले सुन्दर काहल (वाद्यविशेष), जो सुवर्णनिर्मित तथा मोतियोंसे अलंकृत हों, बजाने चाहिये ॥ ३१-३२ ॥

इनके अतिरिक्त भेरी, मृदंग, मुरज, तिमिच्छ और पटह आदि बाजे भी, जो समुद्रकी गर्जनाके समान ध्वनि करनेवाले हों, यत्नपूर्वक जुटाकर रखने चाहिये । पूजाके सभी पात्र, भाण्ड और उनके आधार भी सुवर्णके ही बनवाये ॥ ३३-३४ ॥ परमात्मा महेश्वर शिवका मन्दिर राजमहलके समान बनवाना चाहिये, जो शिल्पशास्त्रमें बताये हुए लक्षणोंसे युक्त हो। वह ऊँची चहारदीवारीसे घिरा हो । उसका गोपुर इतना ऊँचा हो कि पर्वताकार दिखायी दे। वह अनेक प्रकारके रत्नोंसे आच्छादित हो । उसके दरवाजेके फाटक सोनेके बने हुए हों ॥ ३५-३६ ॥ उस मन्दिरके मण्डपमें तपाये हुए सोने तथा रत्नोंके सैकड़ों खम्भे लगे हों। चंदोवेमें मोतियोंकी लड़ियाँ लगी हुई हों। दरवाजेके फाटकमें मूँगे जड़े गये हों । मन्दिरका शिखर सोनेके बने हुए दिव्य कलशाकार मुकुटोंसे अलंकृत एवं अस्त्रराज त्रिशूलसे चिह्नित हो ॥ ३७-३८ ॥ वह मन्दिर राजमार्गोंसे शोभायमान तथा चारों ओरसे अत्यधिक ऊँचे शिखरोंवाले राजोचित भवनोंसे युक्त होना चाहिये। उसमें दिशाओं और विदिशाओं में उत्तम सभाभवन, विश्रामभूमियाँ आदि हों तथा उसका अन्तर्भाग सभी प्रकारसे अलंकृत होना चाहिये । नृत्य तथा गायनमें पारंगत हजारों स्त्रियों तथा वीणा, वेणु आदिके वादनमें निपुण पुरुषोंसे उसे युक्त होना चाहिये । गज, अश्व तथा रथोंसे युक्त वीर रक्षकोंसे वह रक्षित हो तथा उसमें सभी दिशाओं – विदिशाओंमें अनेक पुष्पोद्यान और सरोवर हों ॥ ३९—४२ ॥

उस भवनके सभी ओर बहुत-सी बावलियाँ बनायी गयी हों। वेद तथा वेदान्त विद्याके मर्मको समझनेवाले, शिवशास्त्रपरायण, शैवधर्मके अनुपालक, शिवशास्त्रमें बताये गये लक्षणोंसे सम्पन्न, शान्त, प्रसन्नमुख, भक्तिनिष्ठ, सदाचारनिरत तथा सौभाग्यसम्पन्न शैव और माहेश्वर द्विजोंसे वह सेवित हो रहा हो ॥ ४३ – ४४१/२ ॥ अपने सामर्थ्यके अनुरूप इस प्रकारकी आन्तरिक तथा बाह्य संरचनावाले स्थानपर या कि शिलानिर्मित, हाथीदाँतसे निर्मित, काष्ठनिर्मित, ईंटोंसे बने या केवल मृत्तिकासे निर्मित भवनमें अथवा किसी पावन वन, पर्वत, नदीतट, देवमन्दिर, किसी पवित्र क्षेत्रमें या शुभ गृहमें समृद्ध अथवा विपन्न साधकको अपने सामर्थ्यके अनुरूप न्यायोपार्जित द्रव्योंसे भक्तिपूर्वक महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४५–४७ ॥

यदि कोई अन्यायोपार्जित द्रव्यसे भी भक्तिपूर्वक शिवजीकी पूजा करता है तो उसे भी कोई पाप नहीं लगता; क्योंकि भगवान् भावके वशीभूत हैं। न्यायोपार्जित धनसे भी यदि कोई बिना भक्तिके पूजन करता है तो उसे उसका फल नहीं मिलता; क्योंकि पूजाकी सफलतामें भक्ति ही कारण है ॥ ४८-४९ ॥  भक्तिसे अपने वैभवके अनुसार भगवान् शिवके उद्देश्यसे जो कुछ किया जाय वह थोड़ा हो या बहुत, करनेवाला धनी हो या दरिद्र, दोनोंका समान फल है। जिसके पास बहुत थोड़ा धन है, वह मानव भी भक्तिभावसे प्रेरित होकर भगवान् शिवका पूजन कर सकता है, किंतु महान् वैभवशाली भी यदि भक्तिहीन है तो उसे शिवका पूजन नहीं करना चाहिये ॥ ५०-५१ ॥

शिवके प्रति भक्तिहीन पुरुष यदि अपना सर्वस्व भी दे डाले तो उससे वह शिवाराधनाके फलका भागी नहीं होता; क्योंकि आराधनामें भक्ति ही कारण है। शिवके प्रति भक्तिको छोड़कर कोई अत्यन्त उग्र तपस्याओं और सम्पूर्ण महायज्ञोंसे भी दिव्य शिवधाममें नहीं जा सकता। अतः श्रीकृष्ण ! सर्वत्र परमेश्वर शिवके आराधनमें भक्तिका ही महत्त्व है। यह गुह्यसे भी गुह्यतर बात है। इसमें संदेह नहीं है ॥ ५२–५४ ॥ शिवमन्त्रका जप, ध्यान, होम, यज्ञ, तप, वेदाभ्यास, दान तथा अध्ययन – ये सब भाव (भक्ति)- के लिये ही हैं, इसमें सन्देह नहीं है । भावरहित मनुष्य इन सबका अनुष्ठान करके भी मुक्त नहीं होता है, किंतु भावयुक्त मनुष्य ये सब बिना किये भी मुक्त हो जाता है ॥ ५५-५६ ॥ हजारों चान्द्रायण व्रतों, सैकड़ों प्राजापत्य व्रतों, महीनेभरके उपवासों तथा अन्य [सत्कर्मों ] – से शिवभक्तको क्या प्रयोजन! इस लोकमें भक्तिहीन मनुष्य अल्प भोगोंके लिये पर्वतकी कन्दराओंमें तप करते हैं, पर भक्त तो भावसे ही मुक्त भी हो जाता है ॥ ५७-५८ ॥

सात्त्विक कर्म मुक्ति देनेवाला होता है, अतः योगी सत्त्वमें ही स्थित रहते हैं । कर्मपरायण रजोगुणी लोग सिद्धि प्रदान करनेवाले राजस कर्म करते हैं । तमोगुणसे युक्त असुर, राक्षस तथा वैसे ही दूसरे मनुष्य लौकिक कामनाओंकी प्राप्तिके लिये शिवका यजन करते हैं ॥ ५९-६० ॥ तामस, राजस अथवा सात्त्विक – किसी भी भावका आश्रय लेकर भक्तिपूर्वक पूजा आदि करनेवाला कल्याण प्राप्त करता है ॥ ६१ ॥ पापके महासागरको पार करनेके लिये भगवान् शिवकी भक्ति नौकाके समान है। इसलिये जो भक्तिभावसे युक्त है, उसे रजोगुण और तमोगुणसे क्या हानि हो सकती है ? श्रीकृष्ण ! अन्त्यज, अधम, मूर्ख अथवा पतित मनुष्य भी यदि भगवान् शिवकी शरणमें चला जाय तो वह समस्त देवताओं एवं असुरोंके लिये भी पूजनीय हो जाता है। अतः सर्वथा प्रयत्न करके भक्तिभावसे ही शिवकी पूजा करे; क्योंकि अभक्तोंको कहीं भी फल नहीं मिलता ॥ ६२—६४ ॥ हे कृष्ण ! अब मैं आपको एक परम रहस्य बताऊँगा, आप मेरा वचन सुनिये, वेदोंके विद्वानोंने वेदों तथा शास्त्रोंके द्वारा विचार करके इसे सुनिश्चित किया है ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें शिवशास्त्रोक्त पूजनवर्णन नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

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