श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-14
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ चतुर्दशोऽध्यायः
चौदहवाँ अध्याय
व्यासपुत्र शुकदेव के अरणी से उत्पन्न होने की कथा तथा व्यासजी द्वारा उनसे गृहस्थधर्म का वर्णन
व्यासेन गृहस्थधर्मवर्णनम्

॥ सूत उवाच ॥
दृष्ट्वा तामसितापाङ्गीं व्यासश्चिन्तापरोऽभवत् ।
किं करोमि न मे योग्या देवकन्येयमप्सराः ॥ १ ॥
एवं चिन्तयमानं तु दृष्ट्वा व्यासं तदाप्सराः ।
भयभीता हि सञ्जाता शापं मा विसृजेदयम् ॥ २ ॥
सा कृत्वाथ शुकीरूपं निर्गता भयविह्वला ।
कृष्णस्तु विस्मयं प्राप्तो विहङ्गीं तां विलोकयन् ॥ ३ ॥
कामस्तु देहे व्यासस्य दर्शनादेव सङ्गतः ।
मनोऽतिविस्मितं जातं सर्वगात्रेषु विस्मितः ॥ ४ ॥
स तु धैर्येण महता निगह्णन्मानसं मुनिः ।
न शशाक नियन्तुं च स व्यासः प्रसृतं मनः ॥ ५ ॥

सूतजी बोले — उस सुन्दरी असितापांगी घृताची को देखकर व्यासजी बड़े असमंजस में पड़े और सोचने लगे कि यह देवकन्या अप्सरा मेरे योग्य नहीं है, अतः अब मैं क्या करूँ? वह अप्सरा भी व्यासजी को चिन्तित होता देखकर भयभीत हो गयी कि कहीं ये मुझे शाप न दे दें ॥ १-२ ॥ तत्पश्चात्‌ भय से व्याकुल वह अप्सरा एक शुकी का रूप धारण करके उड़ गयी। व्यासजी उसे पक्षी के रूप में देखकर आश्चर्य में पड़ गय ॥ ३ ॥ उसे देखने मात्र से व्यासजी के शरीर में काम का संचार हो आया और प्रत्यंग में काम का प्रवेश हो जाने के कारण उनका मन अत्यन्त विस्मय में पड़ गया ॥ ४ ॥ बड़ी धीरता के साथ मन को रोकने की चेष्टा करते हुए भी उस चंचल मन को वे व्यासमुनि वश में करने में समर्थ नहीं हुए  ॥ ५ ॥

बहुशो गृह्यमाणं च घृताच्या मोहितं मनः ।
भावित्वान्नैव विधृतं व्यासस्यामिततेजसः ॥ ६ ॥
मन्धनं कुर्वतस्तस्य मुनेरग्निचिकीर्षया ।
अरण्यामेव सहसा तस्य शुक्रमथापतत् ॥ ७ ॥
सोऽविचिन्त्य तथा पातं ममन्थारणिमेव च ।
तस्माच्छुकः समुद्‌भूतो व्यासाकृतिमनोहरः ॥ ८ ॥
विस्मयं जनयन्बालः सञ्जातस्तदरण्यजः ।
यथाध्वरे समिद्धोऽग्निर्भाति हव्येन दीप्तिमान् ॥ ९ ॥
व्यासस्तु सुतमालोक्य विस्मयं परमं गतः ।
किमेतदिति सञ्चिन्त्य वरदानाच्छिवस्य वै ॥ १० ॥

इस प्रकार घृताची द्वारा मोहित तेजस्वी व्यासजी का मन अनेक यत्न करने पर भी भावी संयोग के कारण उनके वश में न हो सका ॥ ६ ॥ इसी बीच अग्नि निकालने के लिये मन्थन करते समय एकाएक उनका तेज उस अरणी पर गिर गया, किंतु उसके गिरने पर ध्यान न देकर वे अरणिमन्थन करते रहे। उस अरणी से उन्हीं के सदृश मनोहर स्वरूप वाले ‘शुक’ उत्पन्न हो गये ॥ ७-८ ॥ अरणी से उत्पन्न बह बालक विस्मय पैदा करते हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जिस प्रकार हवन करते समय घृताहुति पड्ने से प्रकट अग्नि दीप्तिमान्‌ हो उठती है ॥ ९ ॥ उस पुत्र को देखकर ‘ यह क्या !’ — ऐसा सोचकर व्यासजी अत्यन्त विस्मय में पड़ गये [और विचार करने लगे कि यह] शिव के वरदान से ही तो उत्पन्न नहीं हुआ है! ॥ १० ॥

तेजोरूपी शुको जातोऽप्यरणीगर्भसम्भवः ।
द्वितीयोऽग्निरिवात्यर्थं दीप्यमानः स्वतेजसा ॥ ११ ॥
विलोकयामास तदा व्यासस्तु मुदितं सुतम् ।
दिव्येन तेजसा युक्तं गार्हपत्यमिवापरम् ॥ १२ ॥
गङ्गान्तः स्नापयामास समागत्य गिरेस्तदा ।
पुष्पवृष्टिस्तु खाज्जाता शिशोरुपरि तापसाः ॥ १३ ॥
जातकर्मादिकं चक्रे व्यासस्तस्य महात्मनः ।
देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १४ ॥
जगुर्गन्धर्वपतयो मुदितास्ते दिदृक्षवः ।
विश्वावसुर्नारदश्च तुम्बुरुः शुकसम्भवे ॥ १५ ॥
तुष्टुवुर्मुदिताः सर्वे देवा विद्याधरास्तथा ।
दृष्ट्वा व्याससुतं दिव्यमरणीगर्भसम्भवम् ॥ १६ ॥

इस प्रकार अरणीगर्भ से उत्पन्न वह तेजस्वी पुत्र शुक अपने तेज से दूसरे अग्नि के तुल्य देदीप्यमान प्रतीत हो रहा था ॥ ११ ॥ व्यासजी ने दिव्य देहधारी द्वितीय गार्हपत्य अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से देखा और पर्वत से नीचे उतरकर गंगाजल से उसको नहलाया। हे तपस्वियो ! उस समय आकाश से उस शिशु के ऊपर पुष्पों की वर्षा होने लगी ॥ १२-१३ ॥ व्यासजी ने उस महात्मा शिशु का जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय देवताओं ने दुंदुभियाँ बजायीं तथा अप्सराओं ने नृत्य किया ॥ १४ ॥ उस बालक के दर्शन को लालसा वाले विश्वावसु, नारद, तुम्बुरु आदि सभी गन्धर्वराज प्रसन्न होकर शुक के जन्म पर गान करने लगे। सभी देवता तथा विद्याधर भी अरणी के गर्भ से उत्पन्न उस दिव्य व्यासपुत्र को देखकर प्रसन्नतापूर्वक स्तुति करने लगे ॥ १५-१६ ॥

अन्तरिक्षात्पपातोर्व्यां दण्डः कृष्णाजिनं शुभम् ।
कमण्डलुस्तथा दिव्यः शुकस्यार्थे द्विजोत्तमाः ॥ १७ ॥
सद्यः स ववृधे बालो जातमात्रोऽतिदीप्तिमान् ।
तस्योपनयनं चक्रे व्यासो विद्याविधानवित् ॥ १८ ॥
उत्पन्नमात्रं तं वेदाः सरहस्याः ससंग्रहाः ।
उपतस्थुर्महात्मानं यथास्य पितरं तथा ॥ १९ ॥
यतो दृष्टं शुकीरूपं घृताच्याः सम्भवे तदा ।
शुकेति नाम पुत्रस्य चकार मुनिसत्तमः ॥ २० ॥
बृहस्पतिमुपाध्यायं कृत्वा व्याससुतस्तदा ।
व्रतानि ब्रह्मचर्यस्य चकार विधिपूर्वकम् ॥ २१ ॥
सोऽधीत्य निखिलान्वेदान् सरहस्यान्ससंग्रहान् ।
धर्मशास्त्राणि सर्वाणि कृत्वा गुरुकुले शुकः ॥ २२ ॥
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावृत्तो मुनिस्तदा ।
आजगाम पितुः पार्श्वं कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ २३ ॥

हे द्विजोत्तम! उसी समय शुकदेवजी के लिये आकाश से दिव्य दण्ड, कमण्डलु और शुभ कृष्ण मृगचर्म पृथ्वी पर आ गिरे ॥ १७ ॥ उत्पन्न होते ही वह अति तेजस्वी शिशु शीघ्रतापूर्वक बड़ा हो गया, तब वैदिक विधान के मर्मज्ञ व्यासजी ने उसका उपनयनसंस्कार भी कर दिया ॥ १८ ॥ उत्पन्न होते ही रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेद उन महात्मा के समक्ष वैसे ही उपस्थित हो गये, जैसे उसके पिता व्यासजी में वे विद्यमान थे ॥ १९ ॥ अरणि-मन्थन के समय मुनिश्रेष्ठ व्यासजी ने घृताची अप्सरा को शुकी के रूप में देखा था, इसलिये उन्होंने इस बालक का नाम शुक रख दिया ॥ २० ॥  व्याससुत शुकदेव ने बृहस्पति को अपना आचार्य मानकर विधिवत्‌ ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। गुरुकुल में निवासकर रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेदों तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन करके, तदनन्तर गुरु को दक्षिणा देकर वे शुकदेवमुनि अपने पिता व्यासजी के पास आ गये ॥ २१-२३ ॥

दृष्ट्वा व्यासः शुकं प्राप्तं प्रेम्णोत्थाय ससम्भ्रमः ।
आलिलिङ्ग मुहुर्घ्राणं मूर्ध्नि तस्य चकार ह ॥ २४ ॥
पप्रच्छ कुशलं व्यासस्तथा चाध्ययनं शुचि ।
आश्वास्य स्थापयामास शुकं तत्राश्रमे शुभे ॥ २५ ॥
दारकर्म ततो व्यासः शुकस्य पर्यचिन्तयत् ।
कन्यां मुनिसुतां कान्तामपृच्छदतिवेगवान् ॥ २६ ॥

शुकदेव को आया देखकर व्यासजी ने शीघ्रता के साथ प्रसन्नतापूर्वक उठकर बारंबार उनका आलिंगन किया और उनका सिर सूँघा। परम पवित्र व्यासजी ने शुकदेवजी के कुशलक्षेम तथा अध्ययन के विषय में पूछा तथा उन्हें आश्वस्त करके अपने पावन आश्रम में रख लिया ॥ २४-२५ ॥ तत्पश्चात्‌ व्यासजी शुकदेवजी के विवाह के विषय में सोचने लगे। एक दिन परम तेजस्वी व्यासजी ने शुकदेवजी से किसी सुन्दर मुनिकन्या की चर्चा की ॥ २६ ॥

शुकं प्राह सुतं व्यासो वेदोऽधीतस्त्वयानघ ।
धर्मशास्त्राणि सर्वाणि कुरु भार्यां महामते ॥ २७ ॥
गार्हस्थ्यं च समासाद्य यज देवान्पितॄनथ ।
ऋणान्मोचय मां पुत्र प्राप्य दारान्मनोरमान् ॥ २८ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्मात्पुत्र महाभाग कुरुष्वाद्य गृहाश्रमम् ॥ २९ ॥
कृत्वा गृहाश्रमं पुत्र सुखिनं कुरु मां शुक ।
आशा मे महती पुत्र पूरयस्व महामते ॥ ३० ॥
तपस्तप्त्वा महाघोरं प्राप्तोऽसि त्वमयोनिजः ।
देवरूपी महाप्राज्ञ पाहि मां पितरं शुक ॥ ३१ ॥

उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव से कहा — हे पवित्रात्मन्‌! तुमने वेद तथा सभी धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर लिया है। अतः हे महामते! अब तुम विवाह कर लो और गृहस्थ-आश्रम में रहकर देवताओं और पितरों का यजन करो और हे पुत्र! तुम सुन्दर स्त्री को स्वीकार कर मुझे भी ऋण से मुक्त कर दो ॥ २७-२८ ॥ अपुत्र को गति नहीं होती और उसे स्वर्ग कदापि नहीं मिलता। इसलिये हे महाभाग पुत्र! अब तुम । प्रवेश करो और हे शुक! हे पुत्र! गृहस्थी बसाकर मुझे भी आनन्दित करो । ऐसा करके हे महामते! हे पुत्र! तुम मेरी महान्‌ आशा परिपूर्ण करो ॥ २९-३० ॥ हे शुक! कठिन तपस्या करके मैंने तुम्हारे-जैसा अयोनिज पुत्र पाया है। हे महाप्राज्ञ! तुम देवतारूप हो, अतः मुझ पिता की रक्षा करो ॥ ३१ ॥

॥ सूत उवाच ॥
इति वादिनमभ्याशे प्राप्तः प्राह शुकस्तदा ।
विरक्तः सोऽतिरक्तं तं साक्षात्पितरमात्मनः ॥ ३२ ॥

सूतजी बोले — [ हे ऋषियो !] ऐसा कहने वाले व्यासजी के पास उपस्थित विरक्त शुकदेवजी ने गृहस्थ-आश्रम में अनुरक्त अपने पिता से कहा ॥ ३२ ॥

॥ शुक उवाच ॥
किं त्वं वदसि धर्मज्ञ वेदव्यास महामते ।
तत्त्वेन शाधि शिष्यं मां त्वदाज्ञां करवाण्यलम् ॥ ३३ ॥

शुकदेवजी बोले — हे महामते! हे धर्मज्ञ! हे वेदव्यास! आप क्या कह रहे हैं, मुझ शिष्य को आप तत्त्वज्ञान का उपदेश दें; मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ॥ ३३ ॥

॥ व्यास उवाच ॥
त्वदर्थे यत्तपस्तप्तं मया पुत्र शतं समाः ।
प्राप्तस्त्वं चातिदुःखेन शिवस्याराधनेन च ॥ ३४ ॥
ददामि तव वित्तं तु प्रार्थयित्वाथ भूपतिम् ।
सुखं भुंक्ष्व महाप्राज्ञ प्राप्य यौवनमुत्तमम् ॥ ३५ ॥

व्यासजी बोले — हे पुत्र! तुम्हारे लिये मैंने सैकड़ों वर्ष कष्ट सहकर जो तपस्या की और शिवजी की आराधना की, उसके फलस्वरूप मैंने तुम्हें पाया है। किसी राजा से माँगकर मैं तुम्हें प्रचुर धन दूँगा, हे महाप्राज्ञ! तुम श्रेष्ठ यौवन प्राप्त करके सुख का उपभोग करो ॥ ३४-३५ ॥

॥ शुक उवाच ॥
किं सुखं मानुषे लोके ब्रूहि तात निरामयम् ।
दुःखविद्धं सुखं प्राज्ञा न वदन्ति सुखं किल ॥ ३६ ॥
स्त्रियं कृत्वा महाभाग भवामि तद्वशानुगः ।
सुखं किं परतन्त्रस्य स्त्रीजितस्य विशेषतः ॥ ३७ ॥
कदाचिदपि मुच्येत लोहकाष्ठादियन्त्रितः ।
पुत्रदारैर्निबद्धस्तु न विमुच्येत कर्हिचित् ॥ ३८ ॥
विण्मूत्रसम्भवो देहो नारीणां तन्मयस्तथा ।
कः प्रीतिं तत्र विप्रेन्द्र विबुधः कर्तुमिच्छति ॥ ३९ ॥
अयोनिजोऽहं विप्रर्षे योनौ मे कीदृशी मतिः ।
न वाञ्छाम्यहमग्रेऽपि योनावेव समुद्‌भवम् ॥ ४० ॥

शुकदेवजी बोले — हे तात! आप बतायें कि इस मनुष्यलोक में भला विपत्तिरहित कौन-सा सुख है? बुद्धिमान्‌ लोग दुःख से युक्त सुख को सुख नहीं कहते हैं ॥ ३६ ॥ हे महाभाग! स्त्री पाकर मैं उसी के वश में हो जाऊँगा। तब भला आप ही बताइये, परतन्त्र होकर और विशेषतः स्त्री के वश में रहकर मैं कौन-सा सुख पा सकूँगा ?॥ ३७ ॥ लौह या काष्ठ के फन्दे में जकड़ा हुआ पुरुष कदाचित्‌ छूट भी सकता है, किंतु पुत्र-कलत्र के बन्धन में फँसा हुआ प्राणी कभी भी बन्धनमुक्त नहीं हो पाता ॥ ३८ ॥ यह शरीर विष्ठा एवं मूत्र से परिपूर्ण रहता है; वैसे ही स्त्रियों का शरीर भी होता है। हे विप्रेन्द्र! तब कौन बुद्धिमान्‌ पुरुष उससे प्रीति करना चाहेगा ! ॥ ३९ ॥ हे विप्रशिरोमणे ! मैं अयोनिज हूँ, तब योनिजन्य सुख में मेरी बुद्धि कैसे होगी? मैं भविष्य में भी अपनी उत्पत्ति किसी योनि में नहीं चाहता ॥ ४० ॥

विट्सुखं किमु वाञ्छामि त्यक्त्वाऽऽत्मसुखमद्‌भुतम् ।
आत्मारामश्च भूयोऽपि न भवत्यतिलोलुपः ॥ ४१ ॥
प्रथमं पठिता वेदा मया विस्तारिताश्च ते ।
हिंसामयास्ते पतिताः कर्ममार्गप्रवर्तकाः ॥ ४२ ॥
बृहस्पतिर्गुरुः प्राप्तः सोऽपि मग्नो गृहार्णवे ।
अविद्याग्रस्तहृदयः कथं तारयितुं क्षमः ॥ ४३ ॥
रोगग्रस्तो यथा वैद्यः पररोगचिकित्सकः ।
तथा गुरुर्मुमुक्षोर्मे गृहस्थोऽयं विडम्बना ॥ ४४ ॥
कृत्वा प्रणामं गुरवे त्वत्समीपमुपागतः ।
त्राहि मां तत्त्वबोधेन भीतं संसारसर्पतः ॥ ४५ ॥
संसारेऽस्मिन्महाघोरे भ्रमणं नभचक्रवत् ।
न च विश्रमणं क्यापि सूर्यस्येव दिवानिशि ॥ ४६ ॥
किं सुखं तात संसारे निजतत्त्वविचारणात् ।
मूढानां सुखबुद्धिस्तु विट्सु कीटसुखं यथा ॥ ४७ ॥

अतः अद्भुत अध्यात्म सुख को छोड़कर मैं विष्ठा‌- मूत्रजन्य सुख को क्यों चाहूँ? अपने-आपमें रमण करने वाला कभी विषय-सुख का लोभी नहीं होता ॥ ४१ ॥ मैंने सांगोपांग वेदों का अध्ययन किया और जाना कि वे हिंसामय हैं तथा कर्ममार्ग के प्रवर्तक हैं । मुझे गुरुरूप में बृहस्पति प्राप्त हुए, वे भी गृहस्थी के सागर में डूबे हुए हैं। अविद्याग्रस्त हृदय वाले वे मेरा उद्धार कैसे कर सकते हैं ?॥ ४२-४३ ॥ जैसे कोई रोगग्रस्त वैद्य दूसरे के रोग की चिकित्सा करता हो, उसी प्रकार मुझ मोक्षार्थी के गुरु गृहस्थ हैं, यह विडम्बना ही है । इसलिये ऐसे गुरु को नमस्कार करके मैं आपके पास आया हूँ। अब आप तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर मेरी रक्षा करें; क्योंकि मैं इस संसाररूपी सर्प से अत्यन्त भयभीत हूँ ॥ ४४-४५ ॥ इस महाभयंकर संसार-चक्र में प्राणिमात्र को सर्वदा नक्षत्रों की भाँति चक्कर काटना पड़ता है और सूर्य की भाँति दिन-रात उन्हें भी कभी विश्राम करने का अवसर नहीं मिलता ॥ ४६ ॥ हे तात! इस संसार में आत्मज्ञान को छोड़कर कौन- सा सुख है ? मूढ जनों को सुख की वैसी ही प्रतीति होती है, जैसी विष्ठा के कीड़ों को विष्ठा में होती है ॥ ४७ ॥

अधीत्य वेदशास्त्राणि संसारे रागिणश्च ये ।
तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः ॥ ४८ ॥
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य वेदशास्त्राण्यधीत्य च ।
बध्यते यदि संसारे को विमुच्येत मानवः ॥ ४९ ॥
नातः परतरं लोके क्वचिदाश्चर्यमद्‌भुतम् ।
पुत्रदारगृहासक्तः पण्डितः परिगीयते ॥ ५० ॥
न बाध्यते यः संसारे नरो मायागुणैस्त्रिभिः ।
स विद्वान्स च मेधावी शास्त्रपारं गतो हि सः ॥ ५१ ॥
किं वृथाध्ययनेनात्र दृढबन्धकरेण च ।
पठितव्यं तदेवाशु मोचयेद्‌भवबन्धनात् ॥ ५२ ॥
गह्णाति पुरुषं यस्माद्‌गृहं तेन प्रकीर्तितम् ।
क्व सुखं बन्धनागारे तेन भीतोऽस्म्यहं पितः ॥ ५३ ॥
येऽबुधा मन्दमतयो विधिना मुषिताश्च ये ।
ते प्राप्य मानुषं जन्म पुनर्बन्धं विशन्त्युत ॥ ५४ ॥

वेदशास्त्रों को पढ़कर भी जो सांसारिक सुख में फँसे रहते हैं, भला उनसे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा? उन्हें तो कुत्ते, घोड़े एवं सूअर आदि पशुओं के समान धर्म वाला समझना चाहिये ॥ ४८ ॥ दुर्लभ मानव  तन को पाकर तथा वेदशास्त्रों का अध्ययन करके भी यदि मनुष्य इस संसार में बँधता है, तो दूसरा भला कौन बन्धनमुक्त हो सकता है? इससे बढ़कर संसार में कोई दूसरी अद्भुत बात नहीं है कि पुत्र-कलत्र और घर के बन्धन में पड़ा हुआ भी पण्डित कहलाता है! ॥ ४९-५० ॥ जो मनुष्य इस संसार में माया के सत्त्व, रज, तम- रूपी तीनों गुणों से बाँधा नहीं जाता है; वही विद्वान्‌, बुद्धिमान्‌ एवं शास्त्र में पारंगत है ॥ ५१ ॥ दृढ़ बन्धन में डालने वाले व्यर्थ विद्याध्ययन से क्या लाभ? उसी का अध्ययन करना चाहिये, जो शीघ्र ही भवबन्धन से मुक्त कर दे ॥ ५२ ॥ पुरुष को बन्धन में जकड़ लेने के कारण ही उसे गृह कहा गया है। अतः ऐसे बन्धनरूप घर में सुख कहाँ? हे पिताजी! इसीलिये मैं भयभीत हुँ ॥ ५३ ॥ जो अज्ञानी, मन्दबुद्धि तथा अभागे मनुष्य हैं; वे इस मानव-जन्म को पाकर भी पुनः बन्धन में पड़ जाते हैं ॥ ५४ ॥

॥ व्यास उवाच ॥
न गृहं बन्धनागारं बन्धने न च कारणम् ।
मनसा यो विनिर्मुक्तो गृहस्थोऽपि विमुच्यते ॥ ५५ ॥
न्यायागतधनः कुर्वन्वेदोक्तं विधिवत्क्रमात् ।
गृहस्थोऽपि विमुच्येत श्राद्धकृत्सत्यवाक् शुचिः ॥ ५६ ॥
ब्रह्मचारी यतिश्चैव वानप्रस्थो व्रतस्थितः ।
गृहस्थं समुपासन्ते मध्याह्नातिक्रमे सदा ॥ ५७ ॥
श्रद्धया चान्नदानेन वाचा सूनृतया तथा ।
उपकुर्वन्ति धर्मस्था गृहाश्रमनिवासिनः ॥ ५८ ॥
गृहाश्रमात्परो धर्मो न दृष्टो न च वै श्रुतः ।
वसिष्ठादिभिराचार्यैर्ज्ञानिभिः समुपाश्रितः ॥ ५९ ॥
किमसाध्यं महाभाग वेदोक्तानि च कुर्वतः ।
स्वर्गं मोक्षं च सज्जन्म यद्यद्वाञ्छति तद्‌भवेत् ॥ ६० ॥
आश्रमादाश्रमं गच्छेदिति धर्मविदो विदुः ।
तस्मादग्निं समाधाय कुरु कर्माण्यतन्द्रितः ॥ ६१ ॥

व्यासजी बोले — गृह बन्धनागार नहीं है और न बन्धन का कारण ही है। जो मन से बन्धनमुक्त है, वह गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥ जो न्यायमार्ग से धनोपार्जन करता है, शास्त्रोक्त कर्मो का विधिवत्‌ सम्पादन करता है, पितृश्राद्ध आदि यज्ञ करता है, सर्वदा सत्य बोलता है तथा पवित्र रहता है, वह गृह में रहते हुए भी मुक्त हो जाता है ॥ ५६ ॥ ब्रह्मचारी, संन्यासी, वानप्रस्थी तथा व्रतोपवास करने वाला — ये सब मनुष्य मध्याह्वोत्तरकाल मेँ गृहस्थ के पास ही जाते हैं । वे धार्मिक गृहस्थ श्रद्धा के साथ मधुर वचनों द्वारा सबका सत्कार करते एवं अन्नदान से उन्हें उपकृत करते हैं ॥ ५७-५८ ॥ गृहस्थ-आश्रम से बढकर कोई दूसरा आश्रम देखा या सुना नहीं गया । वसिष्ठ आदि आचार्यो और तत्त्वज्ञानियों ने इसका आश्रय ग्रहण किया है ॥ ५९ ॥ हे महाभाग! वेदोक्त कर्म करने वाले गृहस्थ के लिये क्या असाध्य रह जाता है? वह स्वर्ग, मोक्ष अथवा उत्तम कुल में जन्म – जो कुछ भी चाहता है, वह हो जाता है। ‘एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाना चाहिये ‘ —ऐसा धर्मज्ञों ने बताया है। अतः आलस्यरहित होकर गृहस्थसम्बन्धी कर्मों को सम्पादित करो ॥ ६०-६१ ॥

देवान्पितॄन्मनुष्यांश्च सन्तर्प्य विधिवत्सुत ।
पुत्रमुत्पाद्य धर्मज्ञ संयोज्य च गृहाश्रमे ॥ ६२ ॥
त्यक्त्वागृहं वनं गत्वा कर्तासि व्रतमुत्तमम् ।
वानप्रस्थाश्रमं कृत्वा संन्यासं च ततः परम् ॥ ६३ ॥
इन्द्रियाणि महाभाग मादकानि सुनिश्चितम् ।
अदारस्य दुरन्तानि पञ्चैव मनसा सह ॥ ६४ ॥
तस्माद्दारान्प्रकुर्वीत तज्जयाय महामते ।
वार्धके तप आतिष्ठेदिति शास्त्रोदितं वचः ॥ ६५ ॥

हे धर्मज्ञ पुत्र! देवताओं, पितरों एवं आश्रित- जनों को विधिवत्‌ सन्तुष्ट करके, पुत्र उत्पन्न करके और उसे भी गृहस्थ-आश्रम में लगाकर पुन: गृह त्यागकर वन में जाकर श्रेष्ठ व्रत का आश्रय ग्रहण करो। वहाँ वानप्रस्थ-आश्रम पूर्ण करके उसके बाद संन्यास धारण करो ॥ ६२-६३ ॥ हे महाभाग! इन्द्रियाँ मनुष्य को निश्चितरूप से प्रमत्त बना देती हैं । जो मनुष्य स्त्रीरहित होता है, उसे मन पाँचों इन्द्रियों सहित विकल कर देता है ॥ ६४ ॥ हे महामते! इसलिये उन बलवान्‌ इन्द्रियों पर विजय पाने के लिये स्त्रीपरिणय करके गृहस्थ बनना चाहिये, तत्पश्चात्‌ वृद्धावस्था में तप करना चाहिये यह शास्त्रवचन है ॥ ६५ ॥

विश्वामित्रो महाभाग तपः कृत्वातिदुश्चरम् ।
त्रीणि वर्षसहस्राणि निराहारो जितेन्द्रियः ॥ ६६ ॥
मोहितश्च महातेजा वने मेनकया स्थितः ।
शकुन्तला समुत्पन्ना पुत्री तद्वीर्यजा शुभा ॥ ६७ ॥
दृष्ट्वा दाशसुतां कालीं पिता मम पराशरः ।
कामबाणार्दितः कन्यां तां जग्राहोडुपे स्थितः ॥ ६८ ॥
ब्रह्मापि स्वसुतां दृष्ट्वा पञ्चबाणप्रपीडितः ।
धावमानश्च रुद्रेण मूर्च्छितश्च निवारितः ॥ ६९ ॥
तस्मात्त्वमपि कल्याण कुरु मे वचनं हितम् ।
कुलजां कन्यकां वृत्वा वेदमार्गं समाश्रय ॥ ७० ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे व्यासेन गृहस्थधर्मवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हे महाभाग! वन में स्थित महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र किसी समय तीन सहस्र वर्षों तक निराहार और जितेन्द्रिय रहकर अत्यन्त कठोर तप करके भी मेनका को देखकर मोहित हो गये और उन्हीं के तेज से पुत्रीरूप में सुन्दर शकुन्तला पैदा हुई ॥ ६६-६७ ॥ मेरे पिता पराशरजी भी धीवर की कृष्णवर्णा कन्या को देखकर काम-बाण से आहत हो गये और उन्होंने नाव पर ही उसे स्वीकार कर लिया था ॥ ६८ ॥ ब्रह्माजी भी अपनी कन्या को देखकर काम से पीड़ित हो गये और बेसुध होकर उसके पीछे दौड़ते रहे; तब शिवजी ने उन्हें रोका ॥ ६९ ॥ अतः हे कल्याणकारी पुत्र! तुम मेरा हितकर वचन मान लो और किसी कुलीन कन्या से विवाह करके सनातन वेदमार्ग का पालन करो ॥ ७० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘व्यासेन गृहस्थधर्मवर्णनम्’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.