श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-01
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः
पहला अध्याय
प्रकृतितत्त्वविमर्श: प्रकृति के अंश, कला एवं कलांश से उत्पन्न देवियों का वर्णन
प्रकृतिचरित्रवर्णनम्

श्रीनारायण बोले सृष्टिविधान में मूलप्रकृति पाँच प्रकार की कही गयी है गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री ॥ १ ॥

नारदजी बोले हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ ! आप कृपापूर्वक बतायें कि किस निमित्त उनका आविर्भाव होता है, उनका स्वरूप क्या है, उनका लक्षण क्या है तथा वे किस प्रकार पाँच रूपों में प्रकट हुईं। हे साधो ! इन सभी स्वरूपों का चरित्र, पूजाविधान, अभीष्ट गुण तथा किसका अवतार कहाँ हुआ — यह सब विस्तारपूर्वक मुझे बतायें ॥ २-३ ॥

श्रीनारायण बोले हे वत्स ! देवी प्रकृति के सम्पूर्ण लक्षण कौन बता सकता है ? फिर भी धर्मराज के मुख से मैंने जो सुना है, उसे यत्किंचित् रूप से बताता हूँ ॥ ४ ॥ ‘प्र’ अक्षर प्रकृष्ट का वाचक है और ‘कृति’ से सृष्टि का बोध होता है। जो देवी सृष्टिप्रक्रिया में प्रकृष्ट हैं, वे ही प्रकृति कही गयी हैं । ‘प्र’ शब्द प्रकृष्ट सत्त्वगुण, ‘कृ’ रजोगुण और ‘ति’ शब्द तमोगुण का प्रतीक कहा गया है। जो त्रिगुणात्मिका हैं, वे ही सर्वशक्ति से सम्पन्न होकर प्रधानरूप से सृष्टिकार्य में संलग्न रहती हैं, अतः उन्हें ‘प्रकृति’ या ‘प्रधान’ कहा जाता है ॥ ५–७ ॥ प्रथम का बोधक ‘प्र’ और सृष्टिवाचक ‘कृति’ शब्द के संयोग से सृष्टि के प्रारम्भ में जो देवी विद्यमान रहती हैं, उन्हें प्रकृति कहा गया है ॥ ८ ॥ सृष्टि के लिये योगमाया का आश्रय लेकर परमात्मा दो रूपों में विभक्त हो गये, जिनका दक्षिणार्ध भाग पुरुष और वामार्ध भाग प्रकृति कहा जाता है ॥ ९ ॥ वे ब्रह्मस्वरूपा हैं, नित्या हैं और सनातनी हैं। जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति अभिन्नरूप से स्थित है, वैसे ही परमात्मा और प्रकृतिरूपा शक्ति भी अभिन्न हैं ॥ १० ॥

हे ब्रह्मन्! हे नारद! इसीलिये योगीजन परमात्मा में स्त्री और पुरुषभाव से भेद नहीं मानते और सब कुछ ब्रह्ममय है ऐसा निरन्तर चिन्तन करते हैं ॥ ११ ॥ स्वतन्त्रभाव वाले श्रीकृष्ण की इच्छा से वे मूलप्रकृति भगवती सृष्टि करने की कामना से सहसा प्रकट हो गयीं। उनकी आज्ञा से भिन्न-भिन्न कर्मों की अधिष्ठात्री होकर एवं भक्तों के अनुरोध से उनपर अनुग्रह करने हेतु विग्रह धारण करने वाली वे पाँच रूपों में अवतरित हुईं ॥ १२-१३ ॥ वे ही विष्णुमाया नारायणी हैं तथा पूर्णब्रह्म स्वरूपा हैं। जो गणेशमाता दुर्गा शिवप्रिया तथा शिवरूपा हैं, ब्रह्मादि देवता, मुनि तथा मनुगण सभी उनकी पूजा-स्तुति करते हैं । वे सबकी अधिष्ठात्रीदेवी हैं, सनातनी हैं तथा शिवस्वरूपा हैं ॥ १४-१५ ॥ वे धर्म, सत्य, पुण्य तथा कीर्तिस्वरूपा हैं; वे यश, कल्याण, सुख, प्रसन्नता और मोक्ष भी देती हैं तथा शोक, दुःख और संकटों का नाश करने वाली हैं ॥ १६ ॥ वे अपनी शरण में आये हुए दीन और आर्तजनों की निरन्तर रक्षा करती हैं। वे ज्योतिस्वरूपा हैं, उनका विग्रह परम तेजस्वी है और वे भगवान् श्रीकृष्ण के तेज की अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ १७ ॥ वे सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और महेश्वर की शाश्वत शक्ति हैं। वे ही साधकों को सिद्धि देने वाली, सिद्धिरूपा, सिद्धेश्वरी, सिद्धि तथा ईश्वरी हैं । बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति तथा माया ये इनके नाम हैं । वे परमात्मा श्रीकृष्ण के पास सर्वशक्तिस्वरूपा होकर स्थित रहती हैं ॥ १८–२० ॥ श्रुतियों में इनके प्रसिद्ध गुणों का थोड़े में वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमों में भी वर्णन उपलब्ध है । उन अनन्ता अनन्त गुण हैं । अब दूसरे स्वरूप के विषय में सुनिये ॥ २१ ॥

जो शुद्ध सत्त्वरूपा महालक्ष्मी हैं, वे भी परमात्मा की ही शक्ति हैं, वे सर्वसम्पत्स्वरूपिणी तथा सम्पत्तियों की अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ २२ ॥ वे शोभामयी, अति संयमी, शान्त, सुशील, सर्वमंगलरूपा हैं और लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, अहंकारादि से रहित हैं ॥ २३ ॥ भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, अपने स्वामी के लिये सबसे अधिक पतिव्रता, प्रभु के लिये प्राणतुल्य, वे देवी सती उनकी प्रेमपात्र तथा प्रियवादिनी, सभी धन-धान्यकी अधिष्ठात्री तथा आजीविकास्वरूपिणी महालक्ष्मी वैकुण्ठ में अपने स्वामी भगवान् विष्णु की सेवामें तत्पर रहती हैं ॥ २४-२५ ॥ वे स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं में राजलक्ष्मी,गृहस्थ मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थों में शोभारूप से विराजमान रहती हैं । वे मनोहर हैं। वे पुण्यवान् लोगोंमें कीर्तिरूपसे, राजपुरुषों में प्रभारूप से, व्यापारियों में वाणिज्यरूप से तथा पापियों में कलहरूप से विराजती हैं । वे दयारूपा कही गयी हैं, वेदों में उनका निरूपण हुआ है, वे सर्वमान्य, सर्वपूज्य तथा सबके लिये वन्दनीय हैं । अब आप अन्य स्वरूप के विषय में मुझसे सुनिये ॥ २६-२८१/२

जो परमात्मा की वाणी, बुद्धि, विद्या तथा ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं; सभी विद्याओं की विग्रहरूपा हैं, वे देवी सरस्वती हैं। वे मनुष्यों को बुद्धि, कवित्व शक्ति, मेधा, प्रतिभा और स्मृति प्रदान करती हैं । वे भिन्न- भिन्न सिद्धान्तों के भेद-निरूपण का सामर्थ्य रखने वाली, व्याख्या और बोधरूपिणी तथा सारे सन्देहों का नाश करने वाली कही गयी हैं । वे विचारकारिणी, ग्रन्थकारिणी, शक्तिरूपिणी तथा स्वर-संगीत-सन्धान तथा ताल की कारणरूपा हैं। वे ही विषय, ज्ञान तथा वाणीस्वरूपा हैं; सभी प्राणियों की संजीवनी शक्ति हैं; वे व्याख्या और वाद-विवाद करने वाली हैं; शान्तिस्वरूपा हैं तथा वीणा और पुस्तक धारण करने वाली हैं। वे शुद्ध सत्त्वगुणमयी, सुशील तथा श्रीहरि की प्रिया हैं । उनकी कान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और श्वेत कमल के समान है । रत्नमाला लेकर परमात्मा श्रीकृष्ण का जप करती हुई वे साक्षात् तपःस्वरूपा हैं तथा तपस्वियों को उनकी तपस्या का फल प्रदान करने वाली हैं। वे सिद्धिविद्यास्वरूपा और सदा सब प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करने वाली हैं। जिनकी कृपा के बिना विप्रसमूह सदा मूक और मृततुल्य रहता है, उन श्रुतिप्रतिपादित तथा आगम में वर्णित तृतीया शक्ति जगदम्बिका भगवती सरस्वती का यत्किंचित् वर्णन मैंने किया। अब अन्य शक्ति के विषय में आप मुझसे सुनिये ॥ २९–३७ ॥

वे विचक्षण सावित्री चारों वर्णों, वेदांगों, छन्दों, सन्ध्यावन्दन के मन्त्रों एवं समस्त तन्त्रों की जननी हैं। वे द्विजातियों की जातिरूपा हैं; जपरूपिणी, तपस्विनी, ब्राह्मणों की तेजरूपा और सर्वसंस्काररूपिणी हैं ॥ ३८-३९ ॥ वे ब्रह्मप्रिया सावित्री और गायत्री परम पवित्र रूप से विराजमान रहती हैं, तीर्थ भी अपनी शुद्धि के लिये जिनके स्पर्श की इच्छा करते हैं ॥ ४० ॥ वे शुद्ध स्फटिक की कान्तिवाली, शुद्धसत्त्व-गुणमयी, सनातनी, पराशक्ति तथा परमानन्दरूपा हैं । हे नारद! वे परब्रह्मस्वरूपा, मुक्तिप्रदायिनी, ब्रह्मतेजोमयी, शक्तिस्वरूपा तथा शक्ति की अधिष्ठातृ- देवता भी हैं, जिनके चरणरज से समस्त संसार पवित्र हो जाता है । इस प्रकार चौथी शक्ति का वर्णन कर दिया। अब पाँचवीं शक्ति के विषय में आपसे कहता हूँ ॥ ४१–४३ ॥

जो पंच प्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्ण की वामांगार्धस्वरूपा और गुण-तेज में परमात्मा के समान ही हैं; वे परावरा, सारभूता, परमा, आदिरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी, धन्य, मान्य और पूज्य हैं ॥ ४४–४६ ॥ वे परमात्मा श्रीकृष्ण के रासक्रीडा की अधिष्ठातृदेवी हैं, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित हैं; वे देवी रासेश्वरी, सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद-स्वरूपा, सन्तोष तथा हर्षरूपा, आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं ॥ ४७-४९ ॥ वे इच्छारहित, अहंकाररहित और भक्तों पर अनुग्रह करने वाली हैं। बुद्धिमान् लोगों ने वेदविहित मार्ग से ध्यान करके उन्हें जाना है ॥ ५० ॥ वे ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनिश्रेष्ठों के दृष्टिपथ में भी नहीं आतीं। वे अग्नि के समान शुद्ध वस्त्रों को धारण करने वाली, विविध अलंकारों से विभूषित, कोटिचन्द्रप्रभा से युक्त और पुष्ट तथा समस्त ऐश्वर्यों से समन्वित विग्रह वाली हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण की अद्वितीय दास्यभक्ति तथा सम्पदा प्रदान करने वाली हैं ॥ ५१-५२ ॥ वाराहकल्प में उन्होंने [व्रजमण्डल में] वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लिया, जिनके चरणकमलों के स्पर्श से पृथ्वी पवित्र हुई । ब्रह्मादि देवों के द्वारा भी जो अदृष्ट थीं, वे भारतवर्ष में सर्वसाधारण को दृष्टिगत हुईं। हे मुने! स्त्रीरत्नों में सारस्वरूप वे भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में उसी प्रकार सुशोभित हैं, जैसे आकाशमण्डल में नवीन मेघों के बीच विद्युत्-लता सुशोभित होती है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने आत्मशुद्धि हेतु जिनके चरणकमल के नख के दर्शन के लिये साठ हजार वर्षों तक तपस्या की, किंतु स्वप्न में भी नखज्योति का दर्शन नहीं हुआ; साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या ? उन्हीं ब्रह्मा ने पृथ्वीतल के वृन्दावन में तपस्या के द्वारा उनका दर्शन किया। मैंने पाँचवीं देवी का वर्णन कर दिया; वे ही राधा कही गयी हैं ॥ ५३-५७ ॥

प्रत्येक भुवन में सभी देवियाँ और नारियाँ इन्हीं प्रकृतिदेवी की अंश, कला, कलांश अथवा अंशांश से उत्पन्न हैं ॥ ५८ ॥ भगवती के पूर्णावतार रूप में जो-जो प्रधान अंशस्वरूपा पाँच विद्यादेवियाँ कही गयी हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ; सुनिये ॥ ५९ ॥ लोकपावनी गंगा प्रधान अंशस्वरूपा हैं, वे भगवान् विष्णुके श्रीविग्रहसे प्रकट हुई हैं तथा सनातनरूप से ब्रह्मद्रव होकर विराजती हैं ॥ ६० ॥ गंगा पापियों के पापरूप ईंधन के दाह के लिये धधकती अग्नि के समान हैं; किंतु [ भक्तों के लिये ] सुखस्पर्शिणी तथा स्नान-आचमनादि से मुक्तिपद- प्रदायिनी हैं ॥ ६१ ॥ गंगा गोलोकादि दिव्य लोकों में जाने के लिये सुखद सीढ़ी के समान, तीर्थों को पावन करने वाली तथा नदियों में श्रेष्ठतम हैं । भगवान् शंकर के जटाजूट में मुक्तामाल की भाँति सुशोभित होने वाली वे गंगा भारतवर्ष में तपस्वी-जनों की तपस्या को शीघ्र सफल करती रहती हैं। उनका जल चन्द्रमा, दुग्ध और श्वेत कमल के समान धवल है और वे शुद्ध सत्त्वरूपिणी हैं। वे निर्मल, निरहंकार, साध्वी और नारायणप्रिया हैं ॥ ६२-६४ ॥

विष्णुवल्लभा तुलसी भी भगवती की प्रधानांशस्वरूपा हैं। वे सती सदा भगवान् विष्णु के चरण पर विराजती हैं और उनकी आभूषणरूपा हैं । हे मुने! उनसे तप, संकल्प और पूजादि के सभी सत्कर्मों का सम्पादन होता है, वे सभी पुष्पों की सारभूता हैं तथा सदैव पवित्र एवं पुण्यप्रदा हैं ॥ ६५-६६ ॥ वे अपने दर्शन एवं स्पर्श से शीघ्र ही मोक्षपद देने वाली हैं। कलि के पापरूप शुष्क ईंधन को जलाने के लिये वे अग्निस्वरूपा हैं। जिनके चरणकमल के संस्पर्श से पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है और तीर्थ भी जिनके दर्शन तथा स्पर्श से स्वयं को पवित्र करने के लिये कामना करते हैं ॥ ६७-६८ ॥ जिनके बिना सम्पूर्ण जगत् में सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। जो मुमुक्षुजनों को मोक्ष देने वाली हैं, कामिनी हैं और सब प्रकारके भोग प्रदान करनेवाली हैं। कल्पवृक्षस्वरूपा जो परदेवता भारतीयों को प्रसन्न करने के लिये भारतवर्ष में वृक्षरूप में प्रादुर्भूत हुईं ॥ ६९–७० ॥

कश्यप की पुत्री मनसादेवी भी शक्ति के प्रधान अंश से प्रकट हुई हैं। वे भगवान् शंकर की प्रिय शिष्या हैं तथा अत्यन्त ज्ञानविशारद हैं। नागराज अनन्त की बहन, नागों से पूजित नागमाता, नागों पर शासन करने वाली, सुन्दरी तथा नागवाहिनी हैं । वे बड़े-बड़े नागगणों से समन्वित, नागरूपी आभूषण से भूषित, नागराजों से वन्दित, सिद्धा, योगिनी तथा नागों पर शयन करनेवाली हैं ॥ ७१–७३ ॥ वे भगवान् विष्णु की परम भक्त हैं, वे विष्णुपूजा में लगी रहती हैं और विष्णुरूपा हैं । वे तपरूपिणी हैं, तपस्वियों को उनके तप का फल प्रदान करती हैं और तपस्विनी हैं। दिव्य तीन लाख वर्षों तक भगवान् श्रीहरि की तपस्या में निरत रहकर वे भारतवर्ष के तपस्वियों तथा तपस्विनियों में पूज्य हुईं ॥ ७४-७५ ॥ सभी मन्त्रों की अधिष्ठात्री देवी मनसा ब्रह्मतेज से देदीप्यमान रहती हैं। ब्रह्मध्यान में सदा निरत वे परमा ब्रह्मस्वरूपा ही हैं। वे पतिव्रता, श्रीकृष्ण के अंश से प्रकट महामुनि जरत्कारु की पत्नी और तपस्वियों में श्रेष्ठ आस्तीक मुनि की माता हैं ॥ ७६-७७ ॥

हे नारद! भगवती की प्रधान अंशस्वरूपा जो मातृकाओं में पूज्यतम देवसेना हैं, वे ही षष्ठी नाम से कही गयी हैं ॥ ७८ ॥ वे पुत्र-पौत्र आदि प्रदान करने वाली, तीनों लोकों की जननी तथा पतिव्रता हैं । वे मूल- प्रकृति की षष्ठांशस्वरूपा हैं, इसलिये षष्ठी कही गयी हैं ॥ ७९ ॥ शिशुओं के जन्म स्थान पर ये योगिनी परम वृद्धारूप में विराजमान रहती हैं। समस्त जगत् में बारह महीने सदा इनकी पूजा होती रहती है। सूतिकागृह में बालक के जन्म के छठे दिन तथा इक्कीसवें दिन उनकी पूजा कल्याणकारिणी होती है ॥ ८०-८१ ॥ ये षष्ठीमाता मुनियों से वन्दित, नित्य कामना पूर्ण करने वाली, दयारूपा एवं सदा रक्षा करने वाली पराशक्ति हैं । जल, थल, आकाश और गृह में भी बालकों के कल्याण में सदा निरत रहती हैं ॥ ८२ ॥

मंगलचण्डिका भी देवी मूलप्रकृति की प्रधान अंशस्वरूपा हैं। वे प्रकृतिदेवी के मुख से प्रकट हुई हैं और सदा सभी प्रकार के मंगल प्रदान करने वाली हैं। उत्पत्ति के समय वे मंगलरूपा तथा संहार के समय कोपरूपिणी हैं । इसीलिये विद्वानों ने इन्हें मंगलचण्डी कहा है। प्रत्येक मंगलवार को सर्वत्र इनकी पूजा होती है । ये पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य, यश और मंगल प्रदान करती हैं। प्रसन्न होकर ये सभी नारियों की सभी कामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं । वे महेश्वरी रुष्ट होने पर क्षणमात्र में समस्त सृष्टि का संहार करने में सक्षम हैं ॥ ८३–८६१/२

पराशक्ति के प्रधान अंशरूप से कमललोचना भगवती काली का प्राकट्य हुआ है। वे शुभ- निशुम्भ के साथ युद्धकाल में जगदम्बा दुर्गा के ललाट से प्रकट हुई हैं एवं दुर्गा के अर्धांश से उत्पन्न होकर उन्हीं के समान गुण और तेज से सम्पन्न हैं। वे करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान, पुष्ट तथा उज्ज्वल विग्रहवाली हैं। वे बलशालिनी पराशक्ति सभी शक्तियों में प्रधान रूप से विराजमान हैं । परम योगरूपिणी वे देवी सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। वे प्रभु श्रीकृष्ण की अनुगामिनी हैं और अपने तेज, पराक्रम तथा गुणों में श्रीकृष्ण के समान ही हैं ॥ ८७–९० ॥ श्रीकृष्ण के चिन्तन में संलग्न रहने के कारण वे सनातनी कृष्णवर्णा हो गयीं। अपने निःश्वासमात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संहार करने में वे समर्थ हैं । फिर भी लोकशिक्षण के लिये लीलापूर्वक उन्होंने दैत्यों से युद्ध किया । पूजा से प्रसन्न होकर वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं; ब्रह्मा आदि देवता, मुनि, मनुगण तथा सभी मनुष्य उनकी उपासना करते हैं ॥ ९१-९२१/२

भगवती प्रकृति के प्रधान अंशरूप से वे वसुन्धरादेवी प्रकट हुई हैं। वे सभी प्राणी- पदार्थों की आधाररूपा हैं तथा सभी प्रकार के शस्यों के स्वरूपवाली कही गयी हैं। वे रत्नों की निधि हैं। रत्नगर्भा तथा समस्त समुद्रों की आश्रयरूपा हैं। वे राजा-प्रजा सभी से सदा पूजित तथा वन्दित हैं, वे सभी की आश्रय तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाली हैं, जिनके बिना चराचर सम्पूर्ण जगत् निराधार हो जाता है ॥ ९३-९५१/२

हे मुनीश्वर ! अब आप देवी प्रकृति की जो-जो कलाएँ हैं, उन्हें सुनिये। जिस-जिस देवता की जो भार्या हैं, उन सबका मैं वर्णन करता हूँ। सभी लोकों में पूज्या स्वाहा- देवी अग्निदेव की भार्या हैं, जिनके बिना देवगण यज्ञभाग प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो पाते । यज्ञदेव की पत्नी दीक्षा तथा दक्षिणा हैं, जो सर्वत्र पूजित हैं तथा जिनके बिना लोकों में किये गये सभी कर्म निष्फल रहते हैं। पितृदेवों की पत्नी स्वधादेवी हैं। ये मुनियों, मनुओं तथा मनुष्यों से पूजित हैं; जिनके बिना किया गया कोई भी पितृकर्म निष्फल रहता है । वायुदेव की पत्नी स्वस्तिदेवी हैं, प्रत्येक लोक में उनकी पूजा होती है । उनके बिना किया गया आदान-प्रदान निष्फल रहता है ॥ ९६–१००१/२

भगवान् गणपति की पत्नी पुष्टिदेवी हैं, जो समस्त संसार में पूजित हैं और जिनके बिना नर-नारी क्षीण शरीर वाले रहते हैं । भगवान् अनन्त की पत्नी तुष्टि हैं, वे सभी से वन्दित तथा पूजित हैं, जिनके बिना संसार में सभी लोग सन्तुष्ट नहीं रहते । ईशानदेव की पत्नी सम्पत्तिदेवी हैं, जिनकी सभी देव-मानव पूजा करते हैं तथा जिनके बिना संसार में सभी लोग दरिद्र रहते हैं ॥ १०१-१०३१/२

धृतिदेवी भगवान् कपिल की पत्नी हैं, वे सभी के द्वारा सर्वत्र पूजित हैं, संसार में जिनके बिना सभी लोग धैर्यहीन रहते हैं। सतीदेवी सत्यदेव की पत्नी हैं जिन्हें सभी चाहते हैं; वे मुक्तलोगों के द्वारा पूजित हैं और जगत्-प्रिय हैं। इनके बिना लोग बन्धुत्वविहीन हो जाते हैं। दयादेवी मोह की पत्नी हैं, वे साध्वी सबसे पूजित और जगत्-प्रिय हैं। जिनके बिना सभी लोग सर्वत्र निष्फल हो जाते हैं। प्रतिष्ठादेवी पुण्यदेव की पत्नी हैं। वे पुण्यदायिनी तथा सर्वत्र पूजित हैं, जिनके अभाव में सभी प्राणी जीवित रहते भी मृतकतुल्य हो जाते हैं । कीर्तिदेवी सुकर्मदेव की पत्नी कही गयी हैं, जिनकी पूजा सौभाग्यशाली लोग करते हैं और जिनके बिना सम्पूर्ण संसार यशहीन होकर मृतकतुल्य हो जाता है ॥ १०४–१०८१/२

उद्योगदेव की पत्नी क्रियादेवी हैं, जो सभी के द्वारा पूजित तथा मान्य हैं, हे नारद! इनके बिना सम्पूर्ण जगत् विधिहीन हो जाता है । अधर्म की पत्नी मिथ्यादेवी हैं, जिन्हें सभी धूर्तजन पूजते हैं तथा जिनके बिना विधिनिर्मित धूर्त-समुदायरूप जगत् नष्ट हो जाता है । सत्ययुग में ये मिथ्यादेवी तिरोहित रहती हैं, त्रेतायुग में सूक्ष्मरूप में रहती हैं, द्वापर में आधे शरीर वाली होकर रहती हैं; किंतु कलियुग में महाप्रगल्भ होकर ये बलपूर्वक सर्वत्र व्याप्त रहती हैं और अपने भाई कपट के साथ घर- घर घूमती-फिरती हैं ॥ १०९–११२१/२

हे नारद! सुशील की शान्ति और लज्जा नामक दो सर्वपूजित भार्याएँ हैं, जिनके बिना यह समस्त जगत् उन्मत्त की भाँति हो जाता है। ज्ञान की तीन पत्नियाँ हैं बुद्धि, मेधा और धृति; जिनके बिना सारा संसार मूर्ख तथा मत्त बना रहता है । धर्म की पत्नी मूर्ति अत्यन्त मनोहर कान्तिवाली हैं, जिनके बिना परमात्मा तथा विश्वसमूह भी निराधार रहते हैं । ये सर्वत्र शोभारूपा, लक्ष्मीरूपिणी, मूर्तिमयी, साध्वी, श्रीरूपा, मूर्तिरूपा, सभी की मान्य, धन्य और अतिपूज्य हैं ॥ ११३–११६१/२

रुद्र की पत्नी कालाग्नि हैं । वे ही सिद्धयोगिनी तथा निद्रारूपा हैं, जिनके संयोग से रात्रि में सभी लोग निद्रा से व्याप्त हो जाते हैं । काल की तीन पत्नियाँ हैं सन्ध्या, रात्रि और दिवा । जिनके बिना विधाता भी काल की गणना नहीं कर सकते । लोभ की दो पत्नियाँ क्षुधा और पिपासा हैं, ये धन्य, मान्य और पूजित हैं । जिनसे व्याप्त यह सम्पूर्ण जगत् नित्य ही चिन्ताग्रस्त रहता है। तेज की दो पत्नियाँ प्रभा और दाहिका हैं, जिनके बिना जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मा सृष्टि करने में समर्थ नहीं होते ॥ ११७-१२०१/२

काल की दो पुत्रियाँ मृत्यु और जरा हैं, जो ज्वर की प्रिय पत्नियाँ हैं । जिनके द्वारा सृष्टि-विधान के अन्तर्गत ब्रह्मा का बनाया यह संसार नष्ट होता रहता है । निद्रा की एक पुत्री तन्द्रा और दूसरी प्रीति — ये दोनों सुख की पत्नियाँ हैं । जिनसे हे नारद! ब्रह्मा के द्वारा निर्मित यह सारा जगत् व्याप्त है । वैराग्य की दो पत्नियाँ श्रद्धा और भक्ति सभी की पूज्या हैं, जिनसे हे मुने! यह जगत् निरन्तर जीवन्मुक्त के समान हो जाता है ॥ १२१–१२३१/२

देवताओं की माता अदिति हैं और गायों की उत्पत्ति सुरभि हुई है। दैत्यों की माता दिति, कद्रू, विनता और दनु सृष्टिनिर्माण में इनका उपयोग हुआ है । ये सभी प्रकृतिदेवी की कलाएँ कही गयी हैं ॥ १२४-१२५ ॥ प्रकृतिदेवी की अन्य बहुत-सी कलाएँ हैं, उनमें से कुछ के विषय में मुझसे सुनिये। चन्द्रमा की पत्नी रोहिणी, सूर्य की पत्नी संज्ञा, मनु की पत्नी शतरूपा, इन्द्र की पत्नी शची, बृहस्पति की पत्नी तारा, वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती, गौतमऋषि की पत्नी अहल्या और अत्रि की भार्या अनसूया, कर्दम की पत्नी देवहूति तथा दक्ष की भार्या प्रसूति हैं ॥ १२६–१२८ ॥ पितरों की मानसी कन्या मेनका हैं, जो अम्बिका की माता हैं। लोपामुद्रा, कुन्ती, कुबेरपत्नी, वरुणपत्नी, बलि की पत्नी विन्ध्यावली, कान्ता, दमयन्ती, यशोदा, देवकी, गान्धारी, द्रौपदी, हरिश्चन्द्र की सत्यवादिनी तथा प्रिय भार्या शैव्या, वृषभानुप्रिया राधा की माता तथा कुल का उद्वहन करने वाली पतिव्रता वृषभानुभार्या, मन्दोदरी, कौसल्या, सुभद्रा, कौरवी, रेवती, सत्यभामा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, जाम्बवती, नाग्नजिती, मित्रविन्दा, रुक्मिणी, साक्षात् लक्ष्मी कही जाने वाली सीता, काली, व्यासमाता महासती योजनगन्धा, बाणपुत्री उषा, उसकी सखी चित्रलेखा, प्रभावती, भानुमती, साध्वी मायावती, परशुराम की माता रेणुका, बलराम की माता रोहिणी और श्रीकृष्ण की बहन दुर्गारूपी एकनन्दा ये सब प्रकृतिदेवी की कलारूपा अनेक शक्तियाँ भारतवर्ष में विख्यात हैं ॥ १२९-१३६ ॥

जो-जो ग्रामदेवियाँ हैं, वे सभी प्रकृति की कलाएँ हैं। देवी के कलांश का अंश लेकर ही प्रत्येक लोक में स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं। इसलिये किसी नारी के अपमान से प्रकृति का ही अपमान माना जाता है। जिसने वस्त्र, अलंकार और चन्दन से पति-पुत्रवती साध्वी ब्राह्मणी का पूजन किया; उसने मानो प्रकृतिदेवी का ही पूजन किया है। इसी प्रकार जिसने आठ वर्ष की विप्रकन्या का वस्त्र, अलंकार तथा चन्दन से पूजन सम्पन्न कर लिया, उसने स्वयं प्रकृतिदेवी की पूजा कर ली । उत्तम, मध्यम अथवा अधम सभी स्त्रियाँ प्रकृति से ही उत्पन्न होती हैं ॥ १३७–१४० ॥ प्रकृतिदेवी के सत्त्वांश से उत्पन्न स्त्रियों को उत्तम जानना चाहिये। वे सुशील एवं पतिव्रता होती हैं उनके राजस अंश से उत्पन्न स्त्रियाँ मध्यम कही गयी हैं, वे प्रायः भोगप्रिय होती हैं । वे सुख-भोगादि के वशीभूत होती हैं तथा अपने ही कार्य में सदा तत्पर रहती हैं। अधम स्त्रियाँ प्रकृति के तामस अंश से उत्पन्न हैं, उनका कुल अज्ञात रहता है । वे कलहप्रिय, कटुभाषिणी, धूर्त, स्वच्छन्द विचरण करने वाली तथा कुल का नाश करने वाली होती हैं। जो पृथ्वी पर कुलटा, स्वर्ग में अप्सराएँ तथा अन्य पुंश्चली नारियाँ हैं; वे प्रकृति के तामसांश से प्रकट कही गयी हैं । इस प्रकार मैंने प्रकृतिदेवी के सभी रूपों का वर्णन कर दिया ॥ १४१–१४४ ॥

भगवती प्रकृति के वे सभी रूप पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में पूजित हैं, सर्वप्रथम राजा सुरथ ने दुर्गति का नाश करने वाली दुर्गादेवी का पूजन किया था। तत्पश्चात् रावण का वध करने की इच्छा से श्रीरामचन्द्र ने उनका पूजन किया था । तभी से जगज्जननी दुर्गा तीनों लोकों में पूजित हैं ॥ १४५-१४६ ॥ जो प्रारम्भ में दक्षकन्या सती के रूप में प्रकट हुईं और दैत्य-दानवों का संहार करने के उपरान्त यज्ञ में पति-निन्दा के कारण देहत्याग करके हिमवान्‌ की भार्या से उत्पन्न हुईं और उन्होंने पुनः पशुपति भगवान् शंकर को पति रूप में प्राप्त किया । हे नारद! बाद में स्वयं श्रीकृष्णरूप गणेश तथा विष्णु की कलाओं से युक्त स्कन्द ये उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए॥ १४७-१४८१/२

राजा मंगल ने सर्वप्रथम लक्ष्मीजी की पूजा की थी। उसके बाद तीनों लोकों में देवता, मुनि और उनकी पूजा की। राजा अश्वपति ने सावित्रीदेवी की सर्वप्रथम पूजा की, तत्पश्चात् तीनों लोकों में देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों से वे पूजित हुईं। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम भगवती सरस्वती की पूजा की थी। तत्पश्चात् वे तीनों लोकों में देवताओं तथा श्रेष्ठ मुनियों द्वारा पूजित हुईं। कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोप-गोपियों, बालक-बालिकाओं, सुरभि तथा गायों के साथ राधारानी का पूजन किया था। तत्पश्चात् तीनों लोकों में परमात्मा की आज्ञा से ब्रह्मादि देवों तथा मुनियों द्वारा पुष्प, धूपादि से भक्तिपूर्वक परम प्रसन्नता के साथ वे निरन्तर पूजित तथा वन्दित होने लगीं ॥ १४९–१५४१/२

भगवान् शंकर के उपदेश से पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में राजा सुयज्ञ के द्वारा सर्वप्रथम इन भगवती का पूजन किया गया । तदनन्तर परमात्मा की आज्ञा से तीनों लोकों में पुष्प, धूप आदि से मुनियों के द्वारा ये निरन्तर भक्तिपूर्वक पूजित होने लगीं ॥ १५५-१५६१/२

भारतवर्ष में प्रकृतिदेवी की जो-जो कलाएँ प्रकट हुईं, वे सभी पूजित हैं । हे मुने! प्रत्येक ग्राम और नगर में वे ग्रामदेवियाँ पूजित हैं । इस प्रकार मैंने आगमों के अनुसार प्रकृतिदेवी का सम्पूर्ण शुभ चरित्र तथा स्वरूप आपको बता दिया; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १५७–१५९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘प्रकृतिचरित्रवर्णन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

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