श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
शुकदेवजी के प्रति राजा जनक का उपदेश
जनकोपदेशवर्णनम्

॥ सूत उवाच ॥
श्रुत्वा तमागतं राजा मन्त्रिभिः सहितः शुचिः ।
पुरः पुरोहितं कृत्वा गुरुपुत्रं समभ्यगात् ॥ १ ॥
कृत्वार्हणां नृपः सम्यग्दत्तासनमनुत्तमम् ।
पप्रच्छ कुशलं गां च विनिवेद्य पयस्विनीम् ॥ २ ॥
स च तां नृपपूजां वै प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि ।
पप्रच्छ कुशलं राज्ञे स्वं निवेद्य निरामयम् ॥ ३ ॥
कृत्वा कुशलसंप्रश्नमुपविष्टं सुखासने ।
शुक व्याससुतं शान्तं पर्यपृच्छत पार्थिवः ॥ ४ ॥
किं निमित्तं महाभाग निःस्पृहस्य च मां प्रति ।
जातं ह्यागमनं ब्रूहि कार्यं तन्मुनिसत्तम ॥ ५ ॥

सूतजी बोले शुकदेवजी को आया हुआ सुनकर पवित्रात्मा राजा जनक अपने पुरोहित को आगे करके मन्त्रियों सहित उन गुरुपुत्र के पास गये ॥ १ ॥ महाराज जनक ने उन्हें बड़े आदर से उत्तम आसन देकर विधिवत् सत्कार करने के पश्चात् एक दूध देने वाली गौ प्रदान करके उनसे कुशल पूछा ॥ २ ॥ शुकदेवजी ने भी राजा की पूजा को यथाविधि स्वीकार किया और अपना कुशल बताकर राजा से भी कुशल-मंगल पूछा ॥ ३ ॥ इस प्रकार कुशल- प्रश्न करके सुखदायी आसन पर बैठे हुए शान्तचित्त वाले व्यासपुत्र शुकदेवजी से महाराज जनक ने पूछा — हे महाभाग ! मेरे यहाँ आप नि:स्पृह का आगमन किस कारण हुआ ? हे मुनिश्रेष्ठ ! उस प्रयोजन को बताइये ? ॥ ४-५ ॥

॥ शुक उवाच ॥
व्यासेनोक्तो महाराज कुरु दारपरिग्रहम् ।
सर्वेषामाश्रमाणां च गृहस्थाश्रम उत्तमः ॥ ६ ॥
मया नाङ्गीकृतं वाक्यं मत्त्वा बन्धं गुरोरपि ।
न बन्धोऽस्तीति तेनोक्तो नाहं तत्कृतवान्पुनः ॥ ७ ॥
इति सन्दिग्धमनसं मत्वा स मुनिसत्तमः ।
उवाच वचनं तथ्यं मिथिलां गच्छ मा शुचः ॥ ८ ॥
याज्योऽस्ति जनकस्तत्र जीवन्मुक्तो नराधिपः ।
विदेहो लोकविदितः पाति राज्यमकण्टकम् ॥ ९ ॥
कुर्वन् राज्यं तथा राजा मायापाशैर्न बध्यते ।
त्वं बिभेषि कथं पुत्र वनवृत्तिः परन्तप ॥ १० ॥
पश्य तं नृपशार्दूलं त्यज मोहं मनोगतम् ।
कुरु दारान्महाभाग पृच्छ वा भूपतिं च तम् ॥ ११ ॥
सन्देहं ते मनोजातं कथयिष्यति पार्थिवः ।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य मामेहि तरसा सुत ॥ १२ ॥
सम्प्राप्तोऽहं महाराज त्वत्पुरे च तदाज्ञया ।
मोक्षकामोऽस्मि राजेन्द्र ब्रूहि कृत्यं ममानघ ॥ १३ ॥
तपस्तीर्थव्रतेज्याश्च स्वाध्यायस्तीर्थसेवनम् ।
ज्ञानं वा वद राजेन्द्र मोक्षं प्रति च कारणम् ॥ १४ ॥

शुकदेवजी बोले महाराज ! मेरे पिता व्यासजी ने मुझसे कहा कि विवाह कर लो; क्योंकि सब आश्रमों में गृहस्थ-आश्रम ही श्रेष्ठ है । गुरुरूप पिता की आज्ञा को बन्धनकारक मानकर मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने समझाया कि गृहस्थाश्रम बन्धन नहीं है, फिर भी मैंने उसे स्वीकार नहीं किया ॥ ६-७ ॥ इस प्रकार मुझे संशययुक्त चित्त वाला समझकर मुनिश्रेष्ठ व्यास ने तथ्ययुक्त वचन कहा तुम मिथिला चले जाओ, खेद न करो । वहाँ राजर्षि जनक रहते हैं, वे याज्ञिक एवं जीवन्मुक्त राजा हैं । संसारमें विदेह नाम से विख्यात वे वहाँ निष्कण्टक राज्य कर रहे हैं ॥ ८-९ ॥ हे पुत्र! महाराज जनक राज्य करते हुए भी माया के जाल में नहीं बँधते, तब हे परन्तप ! तुम वनवासी होते हुए भी क्यों भयभीत हो रहे हो ? ॥ १० ॥ उन नृपश्रेष्ठ विदेह को देखो और अपने मन में उठते हुए मोह का त्याग करो। हे महाभाग ! विवाह करो, अन्यथा जाकर उन राजा से ही पूछो। वे राजा तुम्हारे मन में उत्पन्न सन्देह का समाधान कर देंगे । तत्पश्चात् हे पुत्र! उनकी बात सुनकर तुम शीघ्र ही मेरे पास चले आना ॥ ११-१२ ॥ हे महाराज ! मैं उन्हीं के आदेश से आपकी पुरी में आया हूँ। हे राजेन्द्र ! हे अनघ ! मैं मोक्ष का अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये ॥ १३ ॥ हे राजेन्द्र ! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान इनमें से जो मोक्ष का साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये ॥ १४ ॥

॥ जनक उवाच ॥
शृणु विप्रेण कर्तव्यं मोक्षमार्गाश्रितेन यत् ।
उपनीतो वसेदादौ वेदाभ्यासाय वै गुरौ ॥ १५ ॥
अधीत्य वेदवेदान्तान्दत्त्वा च गुरुदक्षिणाम् ।
समावृत्तस्तु गार्हस्थ्ये सदारो निवसेन्मुनिः ॥ १६ ॥
न्यायवृत्तिस्तु सन्तोषी निराशी गतकल्मषः ।
अग्निहोत्रादिकर्माणि कुर्वाणः सत्यवाक्शुचिः ॥ १७ ॥
पुत्रं पौत्रं समासाद्य वानप्रस्थाश्रमे वसेत् ।
तपसा षड्‌रिपूञ्जित्वा भार्यां पुत्रे निवेश्य च ॥ १८ ॥
सर्वानग्नीन्यथान्यायमात्मन्यारोप्य धर्मवित् ।
वसेत्तुर्याश्रमे श्रान्तः शुद्धे वैराग्यसम्भवे ॥ १९ ॥
विरक्तस्याधिकारोऽस्ति संन्यासे नान्यथा क्वचित् ।
वेदवाक्यमिदं तथ्यं नान्यथेति मतिर्मम ॥ २० ॥
शुकाष्टचत्वारिशद्वै संस्कारा वेदबोधिताः ।
चत्वारिंशद्‌गृहस्थस्य प्रोक्तास्तत्र महात्मभिः ॥ २१ ॥
अष्टौ च मुक्तिकामस्य प्रोक्ताः शमदमादयः ।
आश्रमादाश्रमं गच्छेदिति शिष्टानुशासनम् ॥ २२ ॥

जनकजी बोले मोक्षमार्गावलम्बी विप्र को जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयन संस्कार के बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्र का अध्ययन करने हेतु गुरु के सांनिध्य में रहना चाहिये । वहाँ वेद-वेदान्तों का अध्ययन करके दीक्षान्त गुरुदक्षिणा देकर वापस लौटे मुनि को विवाह करके पत्नी के साथ गृहस्थी में रहना चाहिये । [गृहस्थाश्रम में रहते हुए ] न्यायोपार्जित धन का अर्जन करे, सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसी से कोई आशा न रखे । पापों से मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और [ मन, वचन, कर्मसे सदा ] पवित्र रहे। पुत्र-पौत्र हो जाने पर [ समयानुसार ] वानप्रस्थ-आश्रम में रहे । वहाँ तपश्चर्याद्वारा [ काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य – इन] छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्रीरक्षा का भार पुत्र को सौंप देने के पश्चात् वह धर्मात्मा सब अग्नियों का अपने में न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयों के भोग से शान्ति मिल जाने के बाद हृदय में विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होने पर चौथे आश्रम का आश्रय ले ले । विरक्त को ही संन्यास लेने का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं — यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं ऐसा मेरा मानना है ॥ १५-२० ॥

हे शुकदेवजी! वेदों में कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थ के लिये चालीस संस्कार महात्माओं ने बताये हैं। मुमुक्षु के लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं । एक आश्रम से ही [क्रमश: ] दूसरे आश्रम में जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनों का आदेश है ॥ २१-२२ ॥

॥ शुक उवाच ॥
उत्पन्ने हृदि वैराग्ये ज्ञानविज्ञानसम्भवे ।
अवश्यमेव वस्तव्यमाश्रमेषु वनेषु वा ॥ २३ ॥

शुकदेवजी बोले चित्तमें वैराग्य और ज्ञान- विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अवश्य ही गृहस्थादि आश्रमों में रहना चाहिये अथवा वनों में ॥ २३ ॥

॥ जनक उवाच ॥
इन्द्रियाणि बलिष्ठानि न नियुक्तानि मानद ।
अपक्वस्य प्रकुर्वन्ति विकारांस्ताननेकशः ॥ २४ ॥
भोजनेच्छां सुखेच्छां च शय्येच्छामात्मजस्य च ।
यती भूत्वा कथं कुर्याद्विकारे समुपस्थिते ॥ २५ ॥
दुर्जरं वासनाजालं न शान्तिमुपयाति वै ।
अतस्तच्छमनार्थाय क्रमेण च परित्यजेत् ॥ २६ ॥
ऊर्ध्वं सुप्तः पतत्येव न शयानः पतत्यधः ।
परिव्रज्य परिभ्रष्टो न मार्गं लभते पुनः ॥ २७ ॥
यथा पिपीलिका मूलाच्छाखायामधिरोहति ।
शनैः शनैः फलं याति सुखेन पदगामिनी ॥ २८ ॥
विहङ्गस्तरसा याति विघ्नशङ्कामुदस्य वै ।
श्रान्तो भवति विश्रम्य सुखं याति पिपीलिका ॥ २९ ॥
मनस्तु प्रबलं काममजेयमकृतात्मभिः ।
अतः क्रमेण जेतव्यमाश्रमानुक्रमेण च ॥ ३० ॥

जनकजी बोले हे मानद ! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वश में नहीं रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धि वाले मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती हैं ॥ २४ ॥ यदि मनुष्य के मन में भोजन की, शयन की, सुख की और पुत्र की इच्छा बनी रहे तो वह संन्यासी होकर भी इन विकारों के उपस्थित होने पर क्या कर पायेगा? ॥ २५ ॥ वासनाओं का जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नहीं मिटता । इसलिये उसकी शान्ति के लिये मनुष्य को क्रम से उसका त्याग करना चाहिये ॥ २६ ॥ ऊँचे स्थान पर सोने वाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोने वाला कभी नहीं गिरता । यदि संन्यास- ग्रहण कर लेने पर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २७ ॥ जिस प्रकार चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़कर शाखा पर चढ़ जाती है और वहाँ से फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरों से चलकर फलतक पहुँच जाती है । विघ्न- शंका के भय से कोई पक्षी बड़ी तीव्र गति से आसमान में उड़ता है और [ परिणामत: ] थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर [ अपने अभीष्ट स्थान पर] पहुँच जाती है ॥ २८-२९ ॥ मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमों के अनुक्रम से ही इसे क्रमश: जीतने का प्रयत्न करना चाहिये ॥ ३० ॥

गृहस्थाश्रमसंस्थोऽपि शान्तः सुमतिरात्मवान् ।
न च हृष्येन्न च तपेल्लाभालाभे समो भवेत् ॥ ३१ ॥
विहतं कर्म कुर्वाणस्त्यजंश्चिन्तान्वितं च यत् ।
आत्मलाभेन सन्तुष्टो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ३२ ॥
पश्याहं राज्यसंस्थोऽपि जीवन्मुक्तो यथानघ ।
विचरामि यथाकामं न मे किञ्चित्प्रजायते ॥ ३३ ॥
भुञ्जानो विविधान्भोगान्कुर्वन्कार्याण्यनेकशः ।
भविष्यामि यथाहं त्वं तथा मुक्तो भवानघ ॥ ३४ ॥
कथ्यते खलु यद्‌दृश्यमदृश्यं बध्यते कुतः ।
दृश्यानि पञ्चभूतानि गुणास्तेषां तथा पुनः ॥ ३५ ॥
आत्मा गम्योऽनुमानेन प्रत्यक्षो न कदाचन ।
स कथं बध्यते ब्रह्मन्निर्विकारो निरञ्जनः ॥ ३६ ॥
मनस्तु सुखदुःखानां महतां कारणं द्विज ।
जाते तु निर्मले ह्यस्मिन्सर्वं भवति निर्मलम् ॥ ३७ ॥

गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है । वह हानि-लाभ में समान भाव रखता है ॥ ३१ ॥ जो पुरुष शास्त्रप्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तन से सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ हे अनघ ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन्मुक्त हूँ; मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किंतु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नहीं होता ॥ ३३ ॥ जिस प्रकार मैं अनेक भोगों को भोगता हुआ तथा अनेक कार्यों को करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ ! आप भी मुक्त हो जाइये ॥ ३४ ॥ ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धन में आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश — ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द – ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं ॥ ३५ ॥ आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थिति में हे ब्रह्मन् ! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धन में कैसे पड़ सकता है ? हे द्विज ! मन ही महान् सुख-दुःख का कारण है, इसी के निर्मल होने पर सब कुछ निर्मल हो जाता है ॥ ३६-३७ ॥

भ्रमन्सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वा स्नात्वा पुनः पुनः ।
निर्मलं न मनो यावत्तावत्सर्वं निरर्थकम् ॥ ३८ ॥
न देहो न च जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप ।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥ ३९ ॥
शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा न वै बध्येत कर्हिचित् ।
बन्धमोक्षौ मनःसंस्थौ तस्मिञ्छान्ते प्रशाम्यति ॥ ४० ॥
शत्रुर्मित्रमुदासीनो भेदाः सर्वे मनोगताः ।
एकात्मत्वे कथं भेदः सम्भवेद्‌द्वैतदर्शनात् ॥ ४१ ॥
जीवो ब्रह्म सदैवाहं नात्र कार्या विचारणा ।
भेदबुद्धिस्तु संसारे वर्तमाना प्रवर्तते ॥ ४२ ॥
अविद्येयं महाभाग विद्या चैतन्निवर्तनम् ।
विद्याविद्ये च विज्ञेये सर्वदैव विचक्षणैः ॥ ४३ ॥
विनातपं हि छायाया ज्ञायते च कथं सुखम् ।
अविद्यया विना तद्वत्कथं विद्यां च वेत्ति वै ॥ ४४ ॥
गुणा गुणेषु वर्तन्ते भूतानि च तथैव च ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु को दोषस्तत्र चात्मनः ॥ ४५ ॥
मर्यादा सर्वरक्षार्थं कृता वेदेषु सर्वशः ।
अन्यथा धर्मनाशः स्यात्सौगतानामिवानघ ॥ ४६ ॥
धर्मनाशे विनष्टः स्याद्वर्णाचारोऽतिवर्तितः ।
अतो वेदप्रदिष्टेन मार्गेण गच्छतां शुभम् ॥ ४७ ॥

सभी तीर्थों में घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नहीं हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है । हे परन्तप ! बन्धन तथा मोक्ष का कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मुक्ति का कारण है ॥ ३८-३९ ॥ आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नहीं है । अतः बन्धन और मोक्ष तो मन के भीतर हैं, मन की शान्ति से ही शान्ति है ॥ ४० ॥ शत्रुता, मित्रता या उदासीनता के सभी भेदभाव भी मन में ही रहते हैं । इसलिये एकात्मभाव होने पर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभाव से ही उत्पन्न होता है ॥ ४१ ॥ ‘मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ’ – इस विषय में और विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है । भेदबुद्धि तो संसार में आसक्त रहने पर ही होती है ॥ ४२ ॥ हे महाभाग ! बन्धन का मुख्य कारण अविद्या ही है । इस अविद्या को दूर करने वाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरुषों को चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्या का अनुसन्धानपूर्वक अनुशीलन किया करें ॥ ४३ ॥ धूप के बिना छाया के सुख का ज्ञान कैसे हो सकता है, उसी प्रकार अविद्या के बिना विद्या का ज्ञान कैसे किया जा सकता है ॥ ४४ ॥ गुणों में गुण, पंचभूतों में पंचभूत तथा इन्द्रियों के विषयों में इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्मा का क्या दोष है ? ॥ ४५ ॥

हे पवित्रात्मन्! सबकी सुरक्षा के लिये वेदों में सब प्रकार से मर्यादा की व्यवस्था की गयी है । यदि ऐसा न होता तो नास्तिकों की भाँति सब धर्मों का नाश हो जाता । धर्म के नष्ट हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायगा और सब वर्णों की आचार-परम्परा का उल्लंघन हो जायगा । इसलिये वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने वालों का कल्याण होता है ॥ ४६-४७ ॥

॥ शुक उवाच ॥
सन्देहो वर्तते राजन्न निवर्तति मे क्वचित् ।
भवता कथितं यत्तच्छृण्वतो मे नराधिप ॥ ४८ ॥
वेदधर्मेषु हिंसा स्यादधर्मबहुला हि सा ।
कथं मुक्तिप्रदो धर्मो वेदोक्तो बत भूपते ॥ ४९ ॥
प्रत्यक्षेण त्वनाचारः सोमपानं नराधिप ।
पशूनां हिंसनं तद्वद्‌भक्षणं चामिषस्य च ॥ ५० ॥
सौत्रामणौ तथा प्रोक्तः प्रत्यक्षेण सुराग्रहः ।
द्यूतक्रीडा तथा प्रोक्ता व्रतानि विविधानि च ॥ ५१ ॥
श्रूयते स्म पुरा ह्यासीच्छशबिन्दुर्नृपोत्तमः ।
यज्वा धर्मपरो नित्यं वदान्यः सत्यसागरः ॥ ५२ ॥
गोप्ता च धर्मसेतूनां शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
यज्ञाश्च विहितास्तेन बहवो भूरिदक्षिणाः ॥ ५३ ॥
चर्मणां पर्वतो जातो विन्ध्याचलसमः पुनः ।
मेघाम्बुप्लावनाज्जाता नदी चर्मण्वती शुभा ॥ ५४ ॥
सोऽपि राजा दिवं यातः कीर्तिरस्याचला भुवि ।
एवं धर्मेषु वेदेषु न मे बुद्धिः प्रवर्तते ॥ ५५ ॥
स्त्रीसङ्गेन सदा भोगे सुखमाप्नोति मानवः ।
अलाभे दुःखमत्यन्तं जीवन्मुक्तः कथं भवेत् ॥ ५६ ॥

शुकदेवजी बोले हे राजन् ! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नहीं होता ॥ ४८ ॥ हे भूपते! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं । [ ऐसी दशा में] वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है ? हे राजन्! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है । सौत्रामणियज्ञ में तो प्रत्यक्षरूप से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकार के व्रत बताये गये हैं ॥ ४९–५१ ॥ सुना जाता है कि प्राचीन काल में शशबिन्दु नाम के एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे । वे धर्मरूपी सेतु के रक्षक तथा कुमार्गगामी जनों के नियन्ता थे। उन्होंने पुष्कल दक्षिणावाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे ॥ ५२-५३ ॥ [उन यज्ञों में] पशुओं के चर्म से विन्ध्यपर्वत के समान ऊँचा पर्वत – सा बन गया । मेघों के जल बरसाने से चर्मण्वती नाम की शुभ नदी बह चली ॥ ५४ ॥ वे राजा भी दिवंगत हो गये, किंतु उनकी कीर्ति भूमण्डल पर अचल हो गयी। जब इस प्रकार के धर्मों का वर्णन वेद में है, तब हे राजन् ! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है ॥ ५५ ॥ स्त्री के साथ भोग में पुरुष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलने पर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशा में भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा ? ॥ ५६ ॥

॥ जनक उवाच ॥
हिंसा यज्ञेषु प्रत्यक्षा साहिंसा परिकीर्तिता ।
उपाधियोगतो हिंसा नान्यथेति विनिर्णयः ॥ ५७ ॥
यथा चेन्धनसंयोगादग्नौ धूमः प्रवर्तते ।
तद्वियोगात्तथा तस्मिन्निर्धूमत्वं विभाति वै ॥ ५८ ॥
अहिंसां च तथा विद्धि वेदोक्तां मुनिसत्तम ।
रागिणां सापि हिंसैव निःस्पृहाणां न सा मता ॥ ५९ ॥
अरागेण च यत्कर्म तथाहङ्कारवर्जितम् ।
अकृतं वेदविद्वांसः प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ६० ॥
गृहस्थानां तु हिंसैव या यज्ञे द्विजसत्तम ।
अरागेण च यत्कर्म तथाहंकारवर्जितम् ॥ ६१ ॥
साहिंसैव महाभाग मुमुक्षूणां जितात्मनाम् ॥ ६२ ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकाय जनकोपदेशवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

जनकजी बोले यज्ञों में जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तव में अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोग से होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं – ऐसा शास्त्रों का निर्णय है ॥ ५७ ॥ जिस प्रकार [गीली ] लकड़ी के संयोग से अग्नि से धुआँ निकलता है, उसके अभाव में उस अग्नि में धुँआ नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर ! वेदोक्त हिंसा को भी आप अहिंसा ही समझिये । रागीजनों द्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनों के लिये वह हिंसा नहीं कही गयी है ॥ ५८-५९ ॥ जो कर्म रागरहित तथा अहंकाररहित होकर किया जाता हो, उस कर्म को वैदिक विद्वान् मनीषीजन न किये हुए समान ही कहते हैं ॥ ६० ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! रागी गृहस्थों के द्वारा यज्ञ में जो हिंसा होती है, वही हिंसा है । हे महाभाग ! जो कर्म रागरहित तथा अहंकारशून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनों के लिये अहिंसा ही है ॥ ६१-६२ ॥

इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘शुकाय जनकोपदेशवर्णनं’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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