श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-33
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः
तैंतीसवाँ अध्याय
विभिन्न नरककुण्डों में जाने वाले पापियों तथा उनके पापों का वर्णन
नानाकर्मविपाकफलकथनम्

धर्मराज बोले — हे साध्वि ! भगवान् श्रीहरि की सेवामें संलग्न रहने वाला, विशुद्धात्मा, योगसिद्ध, व्रती, तपस्वी तथा ब्रह्मचारी पुरुष निश्चित ही नरक में नहीं जाता ॥ १ ॥ जो बलशाली मनुष्य बल के अभिमान में आकर अपने कटुवचन से बान्धवों को दग्ध करता है, वह वह्निकुण्ड नामक नरक में जाता है और अपने शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक उस वह्निकुण्ड में वास करके वह तीन जन्मों तक रौद्रदग्ध पशुयोनि प्राप्त करता है ॥ २-३ ॥ जो मूर्ख घर पर आये हुए भूखे-प्यासे दुःखी ब्राह्मण को भोजन नहीं कराता है, वह तप्तकुण्ड नामक नरक में जाता है । उस ब्राह्मण के शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक उस दुःखप्रद नरक में वास करके वह सात जन्मों तक पक्षी की योनि में पैदा होकर तपते हुए स्थान पर वह्निशय्या पर यातना भोगता है ॥ ४-५ ॥ जो मनुष्य रविवार, सूर्यसंक्रान्ति, अमावास्या और श्राद्ध के अवसर पर क्षार पदार्थों से वस्त्र धोता है, वह क्षारकुण्ड नामक नरक में जाता है और उस वस्त्र में विद्यमान सूतों की संख्या के बराबर वर्षों तक वहाँ निवास करता है। इसके बाद भारतवर्ष में सात जन्मों तक रजकयोनि में उसे जन्म लेना पड़ता है ॥ ६-७ ॥

जो अधम मनुष्य मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की निन्दा करता है, जो वेद-शास्त्र तथा पुराणों की निन्दा करता है, जो ब्रह्मा-विष्णु- शिव आदि देवताओं की निन्दा में संलग्न रहता है और जो मनुष्य गौरी-सरस्वती आदि देवियों की निन्दा में तत्पर रहता है — वे सब उस भयानक नरककुण्ड में जाते हैं, जिससे बढ़कर दुःखदायी दूसरा कोई कुण्ड नहीं होता । उस कुण्ड में अनेक कल्पों तक वास करके वह मनुष्य सर्पयोनि को प्राप्त होता है । भगवती की निन्दा के अपराध का कोई प्रायश्चित्त ही नहीं है ॥ ८–११ ॥ जो मनुष्य अपने या दूसरे के द्वारा दी गयी देवता अथवा ब्राह्मण की वृत्ति को छीनता है, वह साठ हजार वर्षों के लिये विट्कुण्ड नामक नरक में जाता है और उतने ही वर्षों तक विष्ठाभोजी बनकर वहाँ रहता है । इसके बाद वह पुनः पृथ्वी पर साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कृमि होता है ॥ १२-१३ ॥ जो व्यक्ति दूसरों के बनवाये तड़ाग में अपने नाम से निर्माण करता है और फिर जनता के लिये उसका उत्सर्ग (लोकार्पण) करता है, वह उस दोष के कारण मूत्रकुण्ड नामक नरक में जाता है। वहाँपर वह उस तड़ाग के रज- कण की संख्या बराबर वर्षों तक उसी मूत्र आदि को ग्रहण करते हुए रहता है और पुनः भारतवर्ष में पूरे सौ वर्षों तक वृष की योनि में रहता है ॥ १४-१५ ॥

जो अकेले ही मिष्टान्न आदि का भक्षण करता है, वह श्लेष्मकुण्ड नामक नरक में जाता है और उसी श्लेष्मा को खाते हुए पूरे सौ वर्षों तक वहाँ रहता है। इसके बाद वह भारतवर्ष में पूरे सौ वर्षों तक प्रेतयोनि में पड़ा रहता है; यहाँ श्लेष्मा, मूत्र तथा पीव आदि का उसे भक्षण करना पड़ता है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १६-१७ ॥ जो मनुष्य माता, पिता, गुरु, पत्नी, पुत्र, पुत्री और अनाथ का भरण-पोषण नहीं करता; वह गरकुण्ड (विषकुण्ड) नामक नरक में जाता है और वहाँ पर उसी विष को खाते हुए वह पूरे सौ वर्षों तक पड़ा रहता है । तदनन्तर वह सौ वर्षों तक के लिये भूतयोनि में जाता है, इसके बाद वह शुद्ध होता है ॥ १८-१९ ॥ जो मनुष्य अतिथि को देखकर [उसके प्रति उपेक्षाभाव से] अपनी दृष्टि को वक्र कर लेता है, उस पापी के जल को देवता तथा पितर ग्रहण नहीं करते और ब्रह्महत्या आदि जो कुछ भी पाप हैं, उन सबका फल उसे इसी लोक में भोगना पड़ता है । अन्त में वह दूषिकाकुण्ड नामक नरक में जाता है और वहाँ पर दूषित पदार्थों को खाते हुए पूरे सौ वर्षों तक निवास करता है। तत्पश्चात् सौ वर्षों तक भूतयोनि में रहने के अनन्तर उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ २०-२२ ॥ यदि कोई मनुष्य ब्राह्मण को द्रव्य का दान करने के बाद वह द्रव्य किसी अन्य को दे देता है, तो वह वसाकुण्ड नामक नरक में जाता है और उसी वसा को खाते हुए उसे सौ वर्षों तक वहीं रहना पड़ता है। तदनन्तर उसे भारतवर्ष में सात जन्मों तक गिरगिट होना पड़ता है। उसके बाद वह महान् क्रोधी, दरिद्र तथा अल्पायु प्राणी के रूप में जन्म लेता है ॥ २३-२४ ॥

यदि कोई स्त्री परपुरुष से सम्बन्ध रखती है अथवा कोई पुरुष परनारी में वीर्याधान करता है, वह शुक्रकुण्ड नामक नरक में जाता है। वहाँपर उसी वीर्य को खाते हुए उसे पूरे सौ वर्षों तक रहना पड़ता है । इसके बाद वह सौ वर्षों तक कीटयोनि में रहता है, तदनन्तर शुद्ध होता है ॥ २५-२६ ॥ जो व्यक्ति गुरु अथवा ब्राह्मण को मारकर उनके शरीर से रक्त बहाता है, वह असृक्कुण्ड नामक नरक में जाता है और उसी रक्त का पान करते हुए उसे वहाँ सौ वर्षों तक रहना पड़ता है । तदनन्तर वह भारतवर्ष में सात जन्मों तक व्याघ्र का जन्म प्राप्त करता है । इस प्रकार वह क्रम से शुद्ध होता है और वह फिर से मानवयोनि में जन्म लेता है ॥ २७-२८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण का प्रेमपूर्वक गुणगान करने वाले भक्त को देखकर जो मनुष्य खेदपूर्वक आँसू बहाता है तथा उनके गुणसम्बन्धी संगीत के अवसर पर जो उपहास करता है, वह सौ वर्षों तक अश्रुकुण्ड नामक नरक में वास करता है और वहाँ उसी अश्रु को भोजन के रूप में उसे ग्रहण करना पड़ता है, तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक चाण्डाल की योनि में पैदा होता है, तब वह शुद्ध होता है ॥ २९-३० ॥ उसी प्रकार जो मनुष्य सहृदय व्यक्ति के साथ सदा शठता का व्यवहार करता है, वह गात्रमलकुण्ड नामक नरक में जाता है और सौ वर्षों तक वहाँ वास करता है। तदनन्तर वह तीन जन्मों तक गर्दभ- योनि में तथा तीन जन्मों तक श्रृंगाल – योनि में जन्म लेता है, इसके बाद वह निश्चित ही शुद्ध हो जाता है ॥ ३१-३२ ॥

जो मनुष्य किसी बहरे को देखकर हँसता है और अभिमानपूर्वक उसकी निन्दा करता है, वह कर्णविट्कुण्ड नामक नरक में सौ वर्षों तक वास करता है और वहाँ रहते हुए कान की मैल का भोजन करता है। तत्पश्चात् वह सात जन्मों तक दरिद्र तथा बहरा होता है । पुनः सात जन्मों तक अंगहीन होकर वह जन्म लेता है, तदनन्तर उसकी शुद्धि होती है ॥ ३३-३४ ॥ जो मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर अपने भरण- पोषण के लिये जीवों की हत्या करता है, वह मज्जाकुण्ड नामक नरक में लाख वर्षों तक वास करता है और वहाँ पर भोजन में उसे वही मज्जा ही मिलती है। तदनन्तर वह सात जन्मों तक खरगोश और मछली. तीन जन्मों तक सूअर और सात जन्मों तक कुक्कुट होकर जन्म लेता है, फिर कर्मों के प्रभाव से वह मृग आदि योनियाँ प्राप्त करता है, तत्पश्चात् वह शुद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ३५-३६१/२ 

जो मनुष्य अपनी कन्या को पाल-पोसकर धन के लोभ से उसे बेच देता है, वह महामूर्ख मांसकुण्ड नामक नरक में जाता है । उस कन्या के शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक वह उस नरक में रहता है और वहाँ पर उसे भोजन के रूप में वही मांस खाना पड़ता है । यमदूत उसपर दण्ड – प्रहार करते हैं । उसे मांस तथा रक्त का बोझ मस्तक पर उठाकर ढोना पड़ता है और रक्त आदि को चाटकर वह अपनी क्षुधा शान्त करता है । तत्पश्चात् वह पापी साठ हजार वर्षों तक भारतवर्ष में उस कन्या की विष्ठा का कीड़ा बनकर रहता है । इसके बाद भारतवर्ष में सात जन्मों तक व्याध, तीन जन्मों तक सूअर, सात जन्मों तक कुक्कुट, सात जन्मों तक मेढक और जोंक तथा पुनः सात जन्मों तक कौए की योनि प्राप्त करता है, तत्पश्चात् वह शुद्ध होता है ॥ ३७–४११/२ 

जो मनुष्य व्रतों, उपवासों और श्राद्धों आदि के अवसर पर क्षौरकर्म करता है, वह सम्पूर्ण कर्मों के लिये अपवित्र हो जाता है। हे सुन्दरि ! वह नख आदि कुण्डों में उन दिनों की संख्या के बराबर वर्षों तक वास करता है, उन्हीं दुष्पदार्थों का भक्षण करता है और डण्डों से पीटा जाता है ॥ ४२-४३१/२ 

जो भारतवर्ष में केशयुक्त मिट्टी से बने पार्थिव लिंग की पूजा करता है, वह उस मृदा में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक केशकुण्ड नामक नरक में निवास करता है । तदनन्तर भगवान् शिव के कोप के कारण वह यवनयोनि में जन्म लेता है और फिर वह राक्षसयोनि में जन्म ग्रहण करता है तथा सौ वर्ष के पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ४४-४५१/२ 

जो मनुष्य विष्णुपदतीर्थ ( गयातीर्थ ) – में पितरों को पिण्ड नहीं देता, वह अपने शरीर के रोमों की संख्या बराबर वर्षों तक अस्थिकुण्ड नामक अत्यन्त भयानक कुण्ड में वास करता है । तत्पश्चात् वह मानवयोनि प्राप्तकर सात जन्मों तक लँगड़ा तथा महान् दरिद्र होता है। तत्पश्चात् उसकी देहशुद्धि हो जाती है ॥ ४६-४७१/२

जो महामूर्ख मनुष्य अपनी गर्भवती स्त्री के साथ सहवास करता है, वह सौ वर्षों तक अत्यन्त तपते हुए ताम्रकुण्ड नामक नरक में निवास करता है ॥ ४८१/२ 

जो व्यक्ति पति-पुत्रहीन स्त्री तथा ऋतुस्नाता स्त्री का अन्न खाता है, वह जलते हुए लोहकुण्ड नामक नरक में सौ वर्षों तक रहता है। इसके बाद वह सात जन्मों तक रजक तथा कौए की योनि पाता है। उस समय वह दरिद्र रहता है और विशाल घावों से युक्त रहता है, तदनन्तर वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ४९-५०१/२ 

जो व्यक्ति चर्म से स्पर्शित हाथ के द्वारा देवद्रव्य का स्पर्श करता है, वह सौ वर्षों तक चर्मकुण्ड नामक नरक में वास करता है ॥ ५११/२ 

जो ब्राह्मण किसी शूद्र से स्वीकृति प्राप्त कर उसका अन्न खाता है, वह तप्तसुराकुण्ड नामक नरक में सौ वर्षों तक वास करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मों तक शूद्रयाजी ( शूद्रों का यज्ञ करानेवाला) ब्राह्मण होता है और शूद्रों का श्राद्धान्न ग्रहण करता है, तदनन्तर वह अवश्य ही शुद्ध हो जाता है ॥ ५२-५३१/२ 

जो कटुभाषी मनुष्य कठोर वचन के द्वारा अपने स्वामी को सदा पीडित करता रहता है, वह तीक्ष्णकण्टककुण्ड नामक नरक में वास करता है और उसे वहाँ पर कण्टक ही खाने को मिलते हैं । यमदूत के द्वारा डंडे से वह चार गुना ताडित किया जाता है। उसके बाद वह सात जन्म तक अश्व की योनि प्राप्त करता है, फिर वह शुद्ध हो जाता है ॥ ५४-५५१/२ 

जो दयाहीन मनुष्य विष के द्वारा किसी प्राणी की हत्या करता है, वह हजार वर्षों तक विषकुण्ड नामक नरक में रहता है और वहाँ पर उसे उसी विष का भोजन करना पड़ता है। उसके बाद वह नरघाती सात जन्मों तक बड़े-बड़े घावों से युक्त तथा सात जन्मों तक कोढ़ से ग्रस्त रहता है, तत्पश्चात् वह अवश्य ही शुद्ध हो जाता है ॥ ५६-५७१/२ 

पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में जो वृषवाहक गाय को और बैल को डण्डे से स्वयं मारता है अथवा सेवक के द्वारा मरवाता है, उसे चार युगों तक तपते हुए तैलकुण्ड नामक नरक में वास करना पड़ता है और तत्पश्चात् उस गाय के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक उसे बैल होना पड़ता है ॥ ५८-५९१/२

हे साध्वि ! जो मनुष्य भाले से अथवा अग्नि में तपाये गये लोहे से किसी प्राणी की उपेक्षापूर्वक हत्या कर देता है, वह दस हजार वर्षों तक कुन्तकुण्ड नामक नरक में वास करता है। तत्पश्चात् उत्तम मानवयोनि में जन्म प्राप्त करके वह उदररोग से पीडित होता है। इस प्रकार एक ही जन्म में कष्ट भोगने के पश्चात् वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ६०-६११/२ 

जो अधम द्विज भगवत्प्रसाद का त्याग करके मांसस्वाद के लोभ से व्यर्थ ही मांस भक्षण करता है, वह कृमिकुण्ड में जाता है । वहाँ अपने शरीर के रोमों की संख्या के समान वर्षों तक रोम का ही भक्षण करता हुआ वह पड़ा रहता है । फिर तीन जन्मों तक म्लेच्छ जाति में जन्म लेकर पुनः द्विज होता है ॥ ६२-६३१/२ 

जो ब्राह्मण शूद्रों का यज्ञ कराता है, शूद्रों का श्राद्धान्न खाता है तथा शूद्रों का शव जलाता है, वह अपने शरीर में जितने रोएँ हैं; उतने वर्षों तक पूयकुण्ड नामक नरक में अवश्य वास करता है । हे सुव्रते ! वह उस नरक में यमदूत के द्वारा यमदण्ड से पीटा जाता है तथा पीव का भोजन करते हुए पड़ा रहता है । तत्पश्चात् वह भारतवर्ष में जन्म लेकर सात जन्मों तक शूद्र रहता है । उस समय वह अत्यन्त रोगी, दरिद्र, बहरा तथा गूँगा रहता है ॥ ६४–६६१/२ 

कृष्णवर्णवाले तथा जिसके मस्तक पर कमल- चिह्न विद्यमान हो, उस सर्प को जो मनुष्य मारता है, वह अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक के लिये सर्पकुण्ड नामक नरक में जाता है । उसे वहाँ पर सर्प काटते हैं तथा यमदूत उसे पीटते हैं । सर्प की विष्ठा खाते हुए वह उस नरक में वास करता है। तत्पश्चात् उसे निश्चय ही सर्पयोनि प्राप्त होती है। तदनन्तर वह मानवयोनि प्राप्त करता है, उस समय वह दाद आदि रोगों से युक्त तथा अल्प आयु वाला होता है। उसके बाद सर्प के काटने से अत्यन्त कष्टपूर्वक उसकी मृत्यु होती है, यह निश्चित है ॥ ६७–६९ ॥ ब्रह्मा के विधान के अनुसार रक्तपान आदि पर जीवित रहने वाले [मच्छर आदि ] क्षुद्र जन्तुओं को जो व्यक्ति मारता है, वह उन जन्तुओं की संख्या के बराबर वर्षों तक दंशकुण्ड और मशककुण्ड नामक नरक में निवास करता है। वे जन्तु उसे दिन-रात काटते रहते हैं, उसे वहाँ खाने को कुछ भी नहीं मिलता और वह जोर-जोर से रोता – चिल्लाता रहता है । यमदूत उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे पीटते हैं। तत्पश्चात् वह उन्हीं क्षुद्र जन्तुओं की योनि में जाता है और पुनः यवनजाति में जन्म लेता है । तदनन्तर वह अंगहीन मानव होकर जन्म लेता है, तब उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ७०-७२१/२ 

जो मूर्ख मनुष्य मधुमक्खियों को मारकर मधु का भक्षण करता है, वह उन मारी गयी मक्खियों की संख्या के बराबर वर्षों तक गरलकुण्ड में वास करता है। वहाँ पर उसे मधुमक्खियाँ काटती रहती हैं, वह सदा विष से जलता रहता है और यमदूत उसे पीटते रहते हैं। उसके बाद वह मक्खियों की योनि में जन्म लेता है, तदनन्तर उसकी शुद्धि होती है ॥ ७३-७४१/२ 

जो मनुष्य किसी विप्र को अथवा दण्ड न देने योग्य किसी व्यक्ति को दण्डित करता है, वह वज्र के समान दाँतों वाले भयानक जन्तुओं से भरे वज्रदंष्ट्रकुण्ड नामक नरक में शीघ्र ही जाता है । उस दण्डित व्यक्ति के शरीर में जितने रोम होते हैं; उतने वर्षों तक वह उस नरक में निवास करता है । उसे नरक के वे कीड़े दिन – रात काटते रहते हैं और वह चीखता-चिल्लाता है। हे भद्रे ! यमदूत उसे सदा पीटते रहते हैं, जिससे वह रोता है और प्रतिक्षण हाहाकार करता रहता है । तदनन्तर वह सात जन्मों तक सूअर की योनि में और तीन जन्मों तक कौवे की योनि में उत्पन्न होता है, उसके बाद वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ७५–७८ ॥ जो मूर्ख धन के लोभ से प्रजा को दण्ड देता है, वह वृश्चिककुण्ड नामक नरक में जाता है और उस प्रजा के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक उस नरक में वास करता है । तत्पश्चात् सात जन्मों तक वह भारतवर्ष में बिच्छुओं की योनि में जन्म लेता है। इसके पश्चात् मनुष्ययोनि में जन्म प्राप्त करता है तथा अंगहीन और रोगी होकर वह शुद्ध हो जाता है- यह सत्य है ॥ ७९-८० ॥ जो ब्राह्मण शस्त्र लेकर दूसरे लोगों के लिये दूत का काम करता है, जो विप्र सन्ध्या – वन्दन नहीं करता तथा जो भगवान् श्रीहरि की भक्ति से विमुख है, वह शर आदि कुण्डों में (शरकुण्ड, शूलकुण्ड, खड्गकुण्ड आदि में) अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक निवास करता है । वह वहाँ पर निरन्तर शर आदि से बेधा जाता है, इसके पश्चात् वह मनुष्य शुद्ध हो जाता है ॥ ८१-८२ ॥

अभिमान में चूर रहने वाला जो व्यक्ति अन्धकारपूर्ण कारागार में प्रजाओं को मारता पीटता है, वह अपने इस दोष के प्रभाव से गोलकुण्ड नामक नरक में जाता है । वह गोलकुण्ड प्रतप्त कीचड़ तथा जल से युक्त, अन्धकारपूर्ण, अत्यन्त भयंकर तथा तीखे दाँतों वाले कीटों से परिपूर्ण है । उन कीड़ों से सदा काटा जाता हुआ वह व्यक्ति प्रजाओं के शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षोंतक उस नरक में निवास करता है। तत्पश्चात् मनुष्य का जन्म पाकर वह उन प्रजाओं का सेवक बनता है, इस प्रकार क्रम से वह शुद्ध हो जाता है ॥ ८३–८५ ॥ जो मनुष्य सरोवर से निकले हुए नक्र आदि जल-जन्तुओं की हत्या करता है, वह नक्रकुण्ड नामक नरक में जाता है और वहाँ उस नक्र के शरीर में विद्यमान काँटों की संख्या के बराबर वर्षों तक निवास करता है। तत्पश्चात् वह निश्चितरूप से नक्र आदि योनियों में जन्म लेता है और बार-बार दण्ड पाने पर शीघ्र ही उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ८६-८७ ॥ जो मनुष्य पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में जन्म लेकर कामवासना के वशीभूत हो परायी स्त्री का वक्ष, नितम्ब, स्तन तथा मुख देखता है; वह अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक काककुण्ड नामक नरक में वास करता है । वहाँ कौवे उसकी आँखें नोचते रहते हैं। तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक संतप्त होता रहता है ॥ ८८-८९ ॥

जो मूढ भारतवर्ष में जन्म पाकर देवता तथा ब्राह्मण का स्वर्ण चुराता है, वह अपने शरीर के रोमों की बराबर संख्या के वर्षों तक मन्थानकुण्ड नामक नरक में अवश्य वास करता है। यमदूत उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे डण्डों से पीटते हैं । उसे वहाँ उनकी विष्ठा खानी पड़ती है । तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक अन्धा तथा सात जन्मों तक दरिद्र रहता है । तदनन्तर वह पापी तथा अति क्रूर मनुष्य भारत में स्वर्णकार का जन्म लेकर स्वर्ण का व्यवसाय करता है ॥ ९०-९२ ॥ हे सुन्दरि ! जो मनुष्य भारतवर्ष में जन्म पाकर ताँबे तथा लोहे की चोरी करता है, वह बीजकुण्ड नामक नरक में जाता है और अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक वहाँ निवास करता है । वहाँ कीड़ों की विष्ठा खाता हुआ कीड़ों से ढकी आँखों वाला वह प्राणी यमदूतों द्वारा पीटा जाता है और तब कालक्रम से वह शुद्ध होता है ॥ ९३-९४ ॥ जो व्यक्ति भारतवर्ष में जन्म पाकर देवताओं की मूर्ति तथा देवसम्बन्धी द्रव्यों की चोरी करता है, वह अपने शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक दुस्तर वज्रकुण्ड नामक नरक में निश्चित-रूप से निवास करता है । उसे वहाँ भूखा रहना पड़ता है। उन वज्रों के द्वारा यमदूतों से पीटे जाने पर उसका शरीर दग्ध हो जाता है और वह रोने- चिल्लाने लगता है, तत्पश्चात् उस मनुष्य की शुद्धि हो जाती है ॥ ९५-९६ ॥ जो मनुष्य ब्राह्मण और देवता के रजत, गव्य पदार्थ तथा वस्त्रों को चुराता है; वह अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक तप्तपाषाणकुण्ड नामक नरक में निश्चितरूप से वास करता है । तत्पश्चात् तीन जन्मों तक कच्छप, तीन जन्मों तक श्वेतकुष्ठी, एक जन्म में श्वेत दागवाला और फिर श्वेत पक्षी होता
है । उसके बाद वह सात जन्मों तक रक्तदोष से युक्त, शूलरोग से पीडित तथा अल्पायु मनुष्य होता है; तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ ९७–९९ ॥

जो व्यक्ति देवता और ब्राह्मण के पीतल तथा कांसे के बर्तनों का हरण करता है, वह अपने शरीर के लोमसंख्यक वर्षों तक तीक्ष्णपाषाणकुण्ड नामक नरक में वास करता है। फिर वह सात जन्मों तक भारतवर्ष में घोड़े की योनि में उत्पन्न होता है। उसके बाद वह अधिक अंगोंवाला तथा पैर के रोग से ग्रस्त होता है । तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ १००-१०१ ॥ जो मनुष्य किसी व्यभिचारिणी स्त्री का अन्न तथा उस स्त्री की जीविका पर आश्रित रहने वाले व्यक्ति का अन्न खाता है, वह अपने शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक लालाकुण्ड नामक नरक में निश्चितरूप से निवास करता है। वहाँ पर वह यमदूतों द्वारा पीटा जाता है और अत्यन्त दु:खी होकर उसे वही लाला (लार) खानी पड़ती है । तदनन्तर वह मानवयोनि में उत्पन्न होकर नेत्र तथा शूल के रोग से पीड़ित होता है । इसके बाद वह क्रम से शुद्ध हो जाता है ॥ १०२-१०३ ॥ जो ब्राह्मण भारतवर्ष में म्लेच्छों की सेवा करने वाला तथा मसिजीवी (मसि पर आश्रित रहकर अपनी जीविका चलानेवाला) है, वह अपने शरीर के रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक मसीकुण्ड नामक नरक में वास करता है और वहाँ बहुत दुःख पाता है । यमदूत उसे पीटते हैं और उसे वहाँपर उसी मसि ( स्याही ) -का सेवन करना पड़ता है । हे साध्वि ! तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक काले रंग का पशु होता है । तदनन्तर वह तीन जन्मों तक काले रंग का छाग बकरा होता है। और उसके बाद तीन जन्मों तक ताड़ का वृक्ष होता है; तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ॥ १०४-१०६ ॥

जो मनुष्य देवता अथवा ब्राह्मण के अन्न, फसल, ताम्बूल, आसन और शय्या आदि की चोरी करता है; वह चूर्णकुण्ड नामक नरक में जाता है और वहाँ सौ वर्षों तक निवास करता है । वह यमदूतों द्वारा पीटा जाता है। तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक मेष और कुक्कुट होता है। उसके बाद वानर होता है । तदनन्तर भारतभूमि पर काशरोग से पीड़ित, वंशहीन, दरिद्र तथा अल्पायु मनुष्य होता है; इसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ १०७–१०९ ॥ जो मनुष्य किसी ब्राह्मण के धन का हरण करके उससे चक्र (कोल्हू)- सम्बन्धी व्यवसाय करता है, वह चक्रकुण्ड नामक नरक में डण्डों से पीटा जाता हुआ सौ वर्षों तक वास करता है। उसके बाद वह मानवयोनि में उत्पन्न होता है और तीन जन्मों तक अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त रोगी तथा वंशहीन तैलकार (तेल का व्यापार करनेवाला) होता है; तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११०-१११ ॥ हे साध्वि ! जो व्यक्ति गौओं और ब्राह्मण के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है, वह सौ युगों तक वक्रतुण्ड नामक नरक में निवास करता है । तत्पश्चात् वह सात जन्मों तक वक्र अंगोंवाला, हीन अंगवाला, दरिद्र, वंशहीन तथा भार्याहीन मानव होता है । उसके बाद वह तीन जन्मों तक गीध, तीन जन्मों तक सूअर, तीन जन्मों तक बिल्ली और तीन जन्मों तक मोर होता है; तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११२–११४ ॥

जो ब्राह्मण कछुए का निषिद्ध मांस खाता है, वह सौ वर्षों तक कूर्मकुण्ड नामक नरक में निवास करता है। वहाँ पर उसे कछुए सदा नोंच – नोंचकर खाते रहते हैं। तत्पश्चात् वह तीन जन्मों तक कछुए, तीन जन्मों तक सूअर, तीन जन्मों तक बिल्ली और तीन जन्मों तक मोर की योनि में जन्म लेता है । उसके बाद वह शुद्ध हो जाता है ॥ ११५-११६ ॥ जो व्यक्ति किसी देवता या ब्राह्मण का घृत, तेल आदि चुराता है, वह पापी ज्वालाकुण्ड और भस्मकुण्ड नामक नरक में जाता है। वहाँपर वह एक सौ वर्षों तक वास करते हुए तेल में पकाया जाता है । इसके बाद वह सात जन्मों तक मछली और सात जन्मोंतक चूहा होता है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ ११७-११८ ॥ जो मनुष्य पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में किसी देवता या ब्राह्मण के सुगन्धित तेल, इत्र, आँवलाचूर्ण तथा अन्य सुगन्धित द्रव्य की चोरी करता है; वह दग्धकुण्ड नामक नरक में वास करता है। वहाँ पर वह अपने शरीर में विद्यमान रोमों की संख्या के बराबर वर्षों तक निवास करता है और दिन-रात दग्ध होता रहता है । इसके बाद वह सात जन्मोंतक दुर्गन्धिक होता है पुनः तीन जन्मों तक कस्तूरी मृग और सात जन्मों तक मन्थान नामक कीड़ा होता है, तत्पश्चात् वह मनुष्ययोनि में उत्पन्न होता है ॥ ११९–१२१ ॥ हे साध्वि ! जो बलिष्ठ पुरुष भारतवर्ष में अपने बल से अथवा छल से अथवा हिंसा के द्वारा किसी दूसरे की पैतृक सम्पत्ति का हरण करता है, वह तप्तसूचीकुण्ड नामक नरक में वास करता है। वह उस नरक में दिन-रात उसी तरह संतप्त होता रहता है, जैसे कोई जीव तप्त तेल में निरन्तर दग्ध होता रहता है । जलाये जाने पर भी कर्मभोग के कारण उसका देह न तो भस्मसात् होता है और न तो उसका नाश ही होता है, अपितु वह पापी सात मन्वन्तर तक वहाँ सन्तप्त होता रहता है। वह सदा चिल्लाता रहता है, भूखा रहता है और यमदूत उसे पीटते रहते हैं । उसके बाद वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है । तत्पश्चात् वह मानवयोनि में उत्पन्न होकर भूमिहीन और दरिद्र होता है । उसके बाद वह शुद्ध हो जाता है और अपनी योनि में जन्म प्राप्तकर पुनः शुभ आचरण करने लगता है ॥ १२२–१२६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नानाकर्मविपाकफलकथन’ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥

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