April 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-10 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-दशमोऽध्यायः दसवाँ अध्याय राजा जनमेजय द्वारा प्रह्लाद के साथ नर-नारायण के युद्ध का कारण पूछना, व्यासजी द्वारा उत्तर में संसार के मूल कारण अहंकार का निरूपण करना तथा महर्षि भृगु द्वारा भगवान् विष्णु को शाप देने की कथा भृगुशापकारणवर्णनम् जनमेजय बोले — हे व्यासजी ! इस कथानक में मुझे यह महान् संशय हो रहा है कि जब वे नर-नारायण शान्तस्वभाव, भगवान् विष्णु के अंशस्वरूप, तप को ही अपना सर्वस्व मानने वाले, तीर्थ में निवास करने वाले, सत्त्वगुणसम्पन्न, वन के फल- मूल का सदा आहार करने वाले, धर्मपुत्र, महात्मा, तपस्वी तथा सत्यनिष्ठ थे; तब वे युद्ध में परस्पर राग-द्वेष से ग्रस्त कैसे हो गये और उन्होंने उत्कृष्ट तपस्या का त्याग करके संग्राम क्यों किया ? ॥ १-३ ॥ उन दोनों मुनियों ने शान्ति सुख का त्याग करके प्रह्लाद के साथ पूरे सौ दिव्य वर्षों तक युद्ध किसलिये किया ? ॥ ४ ॥ उन दोनों मुनियों ने प्रह्लाद के साथ वह संग्राम क्यों किया ? हे महाभाग ! आप मुझे उस युद्ध का कारण बताइये ॥ ५ ॥ (स्त्री, धन तथा कोई कार्य विशेष ही प्रायः युद्ध के कारण होते हैं) उन विरक्त मुनियों को युद्ध का विचार क्यों उत्पन्न हुआ? हे परन्तप ! उन्होंने उस प्रकार का तप किसी को प्रसन्न करने के लिये, सुखभोग के लिये अथवा स्वर्ग के लिये – किस उद्देश्य से किया था? शान्त चित्तवाले उन मुनियों ने समस्त फल प्रदान करने वाला कठोर तप तो किया था, किंतु उन्होंने कौन-सा अद्भुत फल प्राप्त किया ? उन्होंने तपस्या से शरीर को कष्ट दिया और पूरे सौ दिव्य वर्षों तक बार-बार संग्राम करके परिश्रम के द्वारा अपने को संतप्त किया। उन मुनियों ने न राज्य के लिये, न धन के लिये, न स्त्री के लिये और न तो गृह के लिये ही यह युद्ध किया तो फिर उन्होंने महात्मा प्रह्लाद के साथ किसलिये युद्ध किया? ॥ ६–९१/२ ॥ युद्ध शरीर के लिये कष्टदायक होता है — इस सनातन बात को जानते हुए कोई तृष्णारहित पुरुष आखिर ऐसा युद्ध किसलिये करेगा? हे धर्मज्ञ ! उत्तम बुद्धि वाला मनुष्य इस लोक में सदा सुखदायी कर्म ही करता है, दुःखप्रद कर्म नहीं —यह सनातन सिद्धान्त है। तब धर्मपुत्र, भगवान् विष्णु के अंशस्वरूप, सर्वज्ञ तथा सभी गुणों से विभूषित उन मुनियों ने वह धर्मविनाशक युद्ध क्यों किया ? हे व्यासजी ! कोई मूर्ख भी अच्छी प्रकार आचरित सुख के आगार और महाफलदायी तप का त्याग करके दारुण युद्ध करना नहीं चाहता ॥ १०-१३१/२ ॥ मैंने सुना है कि राजा ययाति स्वर्ग से च्युत हो गये थे । अहंकारजन्य पाप के कारण वे पृथ्वीतल पर गिरा दिये गये थे। वे यज्ञकर्ता, दानी और धर्मनिष्ठ थे; किंतु केवल थोड़े से अहंकार भरे शब्दों का उच्चारण करने के कारण वज्रपाणि इन्द्र ने उन्हें [स्वर्ग से पृथ्वी पर ] गिरा दिया था । यह निश्चित है कि बिना अहंकार के युद्ध हो ही नहीं सकता । अन्ततः मुनि को उस युद्ध का क्या फल मिला, उससे तो केवल उनका पुण्य ही नष्ट हुआ ॥ १४-१६१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! धर्म का निर्णय करते समय सर्वज्ञ मुनियों ने अहंकार को ही संसार का मूल कारण कहा है और इसे [सत्त्वादि भेद से] तीन प्रकार का बतलाया है। [ ऐसी स्थिति में] शरीरधारी होकर मुनि नारायण उस अहंकार का त्याग करने में कैसे समर्थ हो सकते थे ? यह निश्चित है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता ॥ १७-१८१/२ ॥ तप, दान तथा यज्ञ सात्त्विक अहंकार से होते हैं। हे महाभाग ! राजस और तामस अहंकार से कलह उत्पन्न होता है । हे राजेन्द्र ! यह निश्चय है कि छोटी-सी भी क्रिया चाहे वह शुभ हो अथवा अशुभ- बिना अहंकार के कभी नहीं हो सकती । जगत् में अहंकार से बढ़कर बन्धन में डालने वाला दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। अतः जिस अहंकार से ही यह विश्व निर्मित है, उसके बिना यह संसार कैसे रह सकता है ? ॥ १९–२११/२ ॥ हे पृथ्वीपते ! जब ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अहंकारयुक्त रहते हैं, तब अन्य प्राणियों और मुनियों की बात ही क्या? यह चराचर जगत् अहंकार के वशीभूत होकर भ्रमण करता रहता है। सभी जीव कर्म के अधीन हैं और उसीके अनुसार बार- बार उनका जन्म तथा मरण होता रहता है। हे महीपते ! देवता, मनुष्य और पशु-पक्षियों का इस संसार में बराबर चक्कर काटना रथ के पहिये के भ्रमण के समान बताया गया है ॥ २२-२४१/२ ॥ इस विस्तृत संसार में उत्तम – अधम सभी योनियों में भगवान् विष्णु के अवतारों की संख्या कौन मनुष्य जान सकता है ? साक्षात् नारायण श्रीहरि को मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह और वामन तक का शरीर धारण करना पड़ा। वे जगत्प्रभु, वासुदेव, भगवान् जनार्दन भी विधि के अधीन होकर विभिन्न युगों में असंख्य अवतार धारण करते रहते हैं ॥ २५–२७१/२ ॥ हे महाराज ! सातवें वैवस्वत मन्वन्तर में भगवान् श्रीहरि ने जो-जो अवतार लिये थे, उन्हें आप ध्यानपूर्वक सुनें । हे महाराज ! देवश्रेष्ठ और सबके स्वामी भगवान् विष्णु को महर्षि भृगु के शाप के कारण अनेक अवतार धारण करने पड़े थे ॥ २८-२९१/२ ॥ राजा बोले — हे महाभाग ! हे पितामह! मेरे मन में यह संदेह हो रहा है कि भृगु ने भगवान् को शाप क्यों दे दिया ? हे मुने! भगवान् विष्णु ने उन भृगुमुनि का कौन-सा अप्रिय कार्य कर दिया था, जिससे रुष्ट होकर महर्षि भृगु ने सभी देवताओं द्वारा नमस्कार किये जाने वाले भगवान् विष्णु को शाप दे दिया ॥ ३०-३११/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, मैं आपको भृगु के शाप का कारण बताता हूँ । पूर्वकाल में कश्यपतनय हिरण्यकशिपु नामक एक राजा था। उस समय जब भी वह देवताओं के साथ परस्पर संघर्ष करने लगता था, तब युद्ध आरम्भ हो जाने पर सारा संसार व्याकुल हो उठता था ॥ ३२-३३१/२ ॥ बाद में हिरण्यकशिपु का वध हो जाने पर प्रह्लाद राजा बने । शत्रुओं को कष्ट पहुँचाने वाले वे प्रह्लाद भी देवताओं को पीड़ित करने लगे । अतः इन्द्र और प्रह्लाद में भयानक संग्राम आरम्भ हो गया । हे राजन् ! पूरे सौ वर्ष तक देवताओं ने लोगों को अचम्भे में डाल देने वाला भीषण युद्ध किया और प्रह्लाद को पराजित कर दिया। हे राजन् ! तब शाश्वत धर्म को समझकर वे महान् विरक्ति को प्राप्त हुए और विरोचनपुत्र बलि को राज्य पर प्रतिष्ठित करके तप करने के लिये गन्धमादन पर्वत पर चले गये ॥ ३४–३७१/२ ॥ राज्य प्राप्त करके ऐश्वर्यशाली राजा बलि ने देवताओं से शत्रुता कर ली, जिससे [ देवताओं और दैत्यों में] पुनः परस्पर अत्यन्त भीषण युद्ध होने लगा। उसमें देवताओं तथा अमित तेजस्वी इन्द्र ने दैत्यों को जीत लिया। हे राजन् ! उस समय इन्द्र के सहायक बनकर भगवान् विष्णु ने दैत्यों को राज्य से च्युत कर दिया ॥ ३८-३९१/२ ॥ तदनन्तर हारे हुए दैत्य [ अपने गुरु] शुक्राचार्य की शरण में गये । [ सभी दैत्य उनसे कहने लगे — ] हे ब्रह्मन् ! आप प्रतापशाली होते हुए भी हमारी सहायता क्यों नहीं कर रहे हैं ? हे मन्त्रज्ञों में श्रेष्ठ ! यदि हमारी रक्षा हेतु आप सहायक न हुए तो हम लोग यहाँ नहीं रह पायेंगे और निश्चय ही हमें पाताल में जाना पड़ेगा ॥ ४०-४१/२ ॥ व्यासजी बोले — दैत्यों के ऐसा कहने पर दयालु शुक्राचार्य मुनि ने उनसे कहा — हे असुरो ! डरो मत। मैं अपने तेज से [तुम लोगों को धरातल पर] स्थापित करूँगा और मन्त्रों तथा औषधियों से सर्वदा तुम लोगों की सहायता करूँगा । तुम लोग चिन्तामुक्त होकर उत्साह बनाये रखो ॥ ४२-४३१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार शुक्राचार्य का आश्रय पाकर वे दैत्य निर्भय हो गये। उधर देवताओं ने गुप्तचरों से यह समाचार सुन लिया। तत्पश्चात् शुक्राचार्य के मन्त्र के प्रभाव को समझकर अत्यन्त घबराये हुए देवताओं ने इन्द्र के साथ परस्पर मन्त्रणा करके यह योजना बनायी कि जबतक शुक्राचार्य के मन्त्र के प्रभाव से दैत्य हमें राज्यच्युत करें, उसके पहले ही हम लोग युद्ध करने के लिये शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान कर दें और बलपूर्वक उनका वध करके बचे हुए दैत्यों को पाताल भेज दें ॥ ४४-४६१/२ ॥ तदनन्तर अत्यधिक रोष में भरे देवताओं ने हाथों में शस्त्र धारणकर दैत्यों पर चढ़ाई कर दी। इन्द्र की प्रेरणा से भगवान् विष्णुसहित सभी देवता उनपर टूट पड़े। तब देवताओं के द्वारा मारे जा रहे वे दैत्य आतंकित तथा भयभीत होकर शुक्राचार्य की शरण में गये और ‘रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’- ऐसा बार-बार कहने लगे ॥ ४७-४८१/२ ॥ देवताओं के द्वारा पीड़ित किये गये उन महाबली दैत्यों को देखकर मन्त्र और औषधि के प्रभाव से शक्तिशाली बने शुक्राचार्य ने उनसे ‘डरो मत’ – ऐसा वचन कहा। तब शुक्राचार्य को देखते ही सभी देवता उन दैत्यों को छोड़कर चले गये ॥ ४९-५० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्धका ‘भृगुशापकारणवर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Content is available only for registered users. 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