April 21, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-08 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः आठवाँ अध्याय ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओं के शरीर से तेजःपुंज का निकलना और उस तेजोराशि से भगवती का प्राकट्य देव्याः स्वरूपोद्भववर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! उन देवताओं ने शीघ्रतापूर्वक भगवान् विष्णु के प्रिय धाम वैकुण्ठ में पहुँचकर वहाँ उन श्रीहरि का विशाल सदन देखा, जो सम्पूर्ण शोभाओं से युक्त तथा दिव्य महलों से सुशोभित था । सुन्दर तथा सुखदायक वह भवन सरोवर, बावली एवं नदियों से सुशोभित था, जिनमें हंस, सारस, चक्रवाक आदि पक्षी कलरव कर रहे थे। उस भवन के चारों ओर सुशोभित हो रहे दिव्य उपवनों में चम्पा, अशोक, कहार, मन्दार, मौलसिरी, मालती, तिलक, आमड़ा और कुरबक आदि विविध प्रकार के वृक्ष लगे हुए थे। उपवनों में चारों ओर कोयलों की कूक सुनायी दे रही थी, मोर नृत्य कर रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। नन्द-सुनन्द आदि भक्तिपरायण पार्षद तथा त्याग- वृत्तिसम्पन्न अनन्य भक्त भगवान् विष्णु की स्तुति कर रहे थे। वहाँ रत्नजटित महल बने हुए थे, जिनपर सुनहरे चित्र बने हुए थे; सुन्दर-सुन्दर कक्षों से सुशोभित वे महल ऊँचाई में आकाश को छू रहे थे। वहाँ देवता और गन्धर्व गा रहे थे अप्सराएँ नाच रही थीं और वह मन को मुग्ध करने वाले तथा मधुर कण्ठध्वनि वाले किन्नरों से मण्डित था । वैदिक सूक्तों के द्वारा आदरपूर्वक भगवान् विष्णु की स्तुति करते हुए शान्त स्वभाव वाले वेदपाठपरायण मुनियों से वह भवन अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥ १-८ ॥ भगवान् विष्णु के भवन पर पहुँचकर देवताओं ने सुन्दर स्वरूप वाले तथा हाथ में स्वर्ण की छड़ी धारण किये हुए जय-विजय नामक द्वारपालों को देखकर उनसे कहा कि आप दोनों में से कोई एक जाकर भगवान् विष्णु से कह दे कि आपके दर्शन की अभिलाषा से ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता द्वार पर खड़े हैं ॥ ९-१० ॥ व्यासजी बोले — उनकी बात सुनकर विजय ने तुरन्त भगवान् विष्णु के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके सभी देवताओं के आगमन की बात उनको बतायी ॥ ११ ॥ विजय ने कहा — हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे दैत्यों का दमन करने वाले लक्ष्मीकान्त ! हे विभो ! इस समय सभी देवता आये हुए हैं और वे द्वार पर खड़े हैं। आपके दर्शन के इच्छुक ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, अग्नि, यम आदि देवता वेदवाक्यों से आपकी स्तुति कर रहे हैं ॥ १२-१३ ॥ व्यासजी बोले — लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु विजय की बात सुनकर देवों से मिलने हेतु अत्यधिक उत्साहित होकर शीघ्रतापूर्वक अपने भवन से बाहर निकल आये ॥ १४ ॥ वहाँ जाकर भगवान् विष्णु ने द्वार पर स्थित उन देवताओं को थकान से व्याकुल तथा दुःखित देखकर अपनी प्रेमभरी दृष्टि से उन्हें आनन्दित किया ॥ १५ ॥ उन सभी देवताओं ने दैत्यों का संहार करने वाले तथा वेदों के द्वारा सुनिश्चित किये गये ( तत्त्वस्वरूप) देवाधिदेव भगवान् विष्णु को प्रणाम किया और मधुर वाणी में उनकी स्तुति की ॥ १६ ॥ देवता बोले — हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाले! हे दयासिन्धो! हे महाराज ! हम शरणागतों की रक्षा कीजिये ॥ १७ ॥ विष्णु बोले — हे देवताओ ! आप सभी लोग आसनों पर बैठ जाइये और फिर अपना कुशल-क्षेम बताइये । आप लोग एक साथ मिलकर यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? ब्रह्मा तथा शिव सहित आप सभी देवता चिन्तामग्न, दुःखित और उदास क्यों हो गये हैं ? आप लोग अपना प्रयोजन शीघ्र बताएँ ॥ १८-१९ ॥ देवता बोले — हे महाराज! पापकर्म में संलग्न, अजेय, महादुष्ट, वरदान पाकर अभिमान में चूर तथा पापी महिषासुर से हम लोग पीड़ित हैं ॥ २० ॥ ब्राह्मणों द्वारा देवताओं को दिये गये यज्ञभागों को वह स्वयं ग्रहण कर लेता है। हम सभी देवता उससे भयभीत होकर पर्वतों की कन्दराओं में भटकते फिरते हैं ॥ २१ ॥ हे मधुसूदन ! ब्रह्माजी के वरदान से वह अजेय बन गया है, अतः इस कार्य को अत्यन्त गुरुतर जानकर हम लोग आपकी शरण में आये हैं। दानवों की माया को जानने वाले तथा दानवों का वध करनेवाले हे कृष्ण! आप ही देवताओं का उद्धार करने में समर्थ हैं, अतः उसके वध का कोई उपाय कीजिये ॥ २२-२३ ॥ विधाता ने उसे वर दे दिया है कि तुम पुरुषमात्र से सदा अवध्य रहोगे। तब ऐसी कौन स्त्री होगी जो रण में उस शठ को मार सके ? ॥ २४ ॥ क्या भगवती पार्वती, लक्ष्मी, इन्द्राणी अथवा सरस्वती भी इस अत्यन्त दुष्ट तथा वरदान के कारण अत्यन्त अभिमानी महिषासुर का वध करने में समर्थ होंगी ? अतएव हे भक्तवत्सल ! हे भूधर ! आप अपनी बुद्धि से भलीभाँति विचार करके उसके मरण का जो भी उपाय हो उसके द्वारा हमलोगों का यह कार्य सम्पन्न कर दीजिये ॥ २५-२६ ॥ व्यासजी बोले — यह बात सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराते हुए उनसे कहने लगे — पहले भी हमलोगों ने महिषासुर से युद्ध किया था, किंतु वह नहीं मारा जा सका ॥ २७ ॥ अब एक ही उपाय है कि यदि सभी देवताओं के तेज से कोई श्रेष्ठ रूपवती सुन्दरी उत्पन्न की जाय तो वही समरांगण में उसे अपने पराक्रम से मार सकती है। हम सबकी शक्ति के अंशों से निर्मित कोई वीर नारी ही सैकड़ों प्रकार की माया रचने में निपुण और वरप्राप्ति के कारण अभिमान में चूर उस महिषासुर का वध करने में समर्थ होगी ॥ २८-२९ ॥ अब आप सभी देवतागण तेजांशों से प्रार्थना करें; साथ ही हमारी स्त्रियाँ भी प्रार्थना करें, जिससे कि उन आविर्भूत तेजांशों के द्वारा एक तेजोराशि उत्पन्न हो जाय ॥ ३० ॥ उस समय रुद्र आदि हम सब मुख्य देवतागण त्रिशूल आदि जो भी दिव्य आयुध हैं, वह सब उसे दे देंगे। तत्पश्चात् सभी प्रकार के आयुध धारण करने वाली तथा सम्पूर्ण तेज से सम्पन्न वह देवी उस दुराचारी, पापी तथा मदोन्मत्त दानव को मार डालेगी ॥ ३१-३२ ॥ व्यासजी बोले — भगवान् विष्णु के ऐसा कहते ही ब्रह्माजी के मुख से अपने आप एक अत्यन्त असह्य तेजःपुंज निकल पड़ा। वह तेज लाल रंग का था, उसकी आकृति सुन्दर थी, वह पद्मराग मणि के समान प्रभावाला था। उसमें कुछ शीतलता एवं ऊष्णता भी थी और वह अनेक किरणों से सुशोभित था । हे महाराज ! भगवान् विष्णु और शिव ने भी उस निःसृत तेज को देखा । [ उसे देखकर] अमित पराक्रम वाले वे दोनों आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३३–३५ ॥ तत्पश्चात् शंकरजी के शरीर से भी चाँदी के सदृश वर्ण वाला, अत्यन्त अद्भुत, तीव्र, देखने में असह्य तथा महाप्रचण्ड तेज निकला जो दैत्यों को भयभीत कर देने वाला तथा देवताओं को आश्चर्य में डाल देने वाला था। वह भयानक रूप वाला, पर्वत के समान विशाल तथा दूसरे तमोगुण जैसा था ॥ ३६-३७ ॥ साक्षात् तदनन्तर भगवान् विष्णु के शरीर से सत्त्वगुणसम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यन्त दीप्तिमान् दूसरी तेजोराशि प्रकट हुई ॥ ३८ ॥ इसके बाद इन्द्र के शरीर से विचित्र आकार वाला, असह्य, पूर्ण गोलाकार और सर्वगुणात्मक तेज प्रादुर्भूत हुआ ॥ ३९ ॥ कुबेर, यम, अग्नि तथा वरुण के भी शरीरों से सभी ओर महान् तेज निकलने लगा। इसी प्रकार अन्य देवताओं के शरीरों से भी अतिशय प्रदीप्त तेज निकला। वह महान् तेजोराशि अत्यन्त दीप्तिमान् थी ॥ ४०-४१ ॥ दूसरे हिमालयपर्वत के सदृश उस महादिव्य तेजोराशि को देखकर विष्णु आदि सभी प्रधान देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४२ ॥ उसी क्षण वहाँ सभी देवताओं के देखते-देखते उस तेजःपुंज से अत्यन्त श्रेष्ठ, सुन्दर तथा सबको विस्मित कर देने वाली एक स्त्री प्रकट हो गयी ॥ ४३ ॥ सभी देवताओं के शरीर से आविर्भूत वह नारी त्रिगुणात्मिका, अठारह भुजाओं वाली, मनोहर, त्रिवर्णा तथा विश्व को मोह में डाल देनेवाली साक्षात् महालक्ष्मी थीं। वे उज्ज्वल मुखवाली, कृष्णवर्ण के नेत्रोंवाली, अत्यन्त लाल अधरोष्ठ से सुशोभित, ताम्रवर्ण की हथेली से सुन्दर लगने वाली, कान्ति से सम्पन्न तथा दिव्य आभूषणों से अलंकृत थीं ॥ ४४-४५ ॥ देवताओं के शरीर से उत्पन्न तेजोराशि से प्रकट वे अठारह भुजाओं वाली भगवती असुरों का विनाश करने के लिये हजारों भुजाओं से सुशोभित हो गयीं ॥ ४६ ॥ जनमेजय बोले — हे कृष्णद्वैपायन! हे महाभाग ! हे सर्वज्ञ ! हे मुनिवर ! अब आप उन भगवती के शरीर की उत्पत्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। उन सब देवताओं के शरीर से निकला हुआ तेज बाद में एकत्र हो गया अथवा पृथक्-पृथक् ही रहा ? उनके अंग-प्रत्यंग विभिन्न देवताओं के तेज से सम्पन्न थे अथवा नहीं? उनके शरीर के विभिन्न अंग – मुख, नासिका, नेत्र आदि अलग-अलग देवताओं के तेज से निर्मित थे अथवा सब तेज एक साथ मिलकर बने थे? हे व्यासजी ! उनके शरीर के अंगों की उत्पत्ति के विषय में विस्तारपूर्वक बताइये। जिस देवता के तेज से उनका जो-जो अद्भुत अंग बना, वह सब मुझे बताइये ॥ ४७–५० ॥ जिन-जिन देवताओं ने उन भगवती को जो-जो आयुध तथा आभूषण आदि समर्पित किये, आपके मुखारविन्द से निकली सारी बात मैं सुनना चाहता हूँ । हे ब्रह्मन् ! आपके मुखकमल से निकले महालक्ष्मी के चरित्ररूपी अमृतमय रस का पान करते हुए मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ ५१-५२ ॥ सूतजी बोले — [ हे मुनिवृन्द ! ] उन राजा जनमेजय का यह वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र श्रीव्यासजी उन्हें प्रसन्न करते हुए यह मधुर वचन कहने लगे ॥ ५३ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! हे महाभाग ! हे कुरुश्रेष्ठ ! सुनिये, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनके शरीर की उत्पत्ति के विषय में विस्तारपूर्वक आपसे कहता हूँ ॥ ५४ ॥ स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र भी भगवती के यथार्थ रूप को बता पाने में कभी भी समर्थ नहीं हैं तब देवी का जो रूप है, जैसा है और जिस उद्देश्य से बना है, उसे मैं कैसे जान सकता हूँ? बस, मेरी वाणी इतना ही कह सकती है कि वे भगवती प्रकट हुईं ॥ ५५-५६ ॥ वे देवी नित्यस्वरूपा हैं और सदा ही सर्वत्र विराजमान रहती हैं। वे एक होती हुई भी गुरुतर कार्य पड़ने पर देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये नाना प्रकार के रूप धारण कर लेती हैं ॥ ५७ ॥ जिस प्रकार नाटक का कोई नट एक होता हुआ भी रंगमंचपर जाकर लोगों के मनोरंजन हेतु अनेक रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार रूपरहित तथा निर्गुणा होती हुई भी ये भगवती देवताओं का कार्य सम्पन्न करने के लिये अपनी लीला से अनेक सगुण रूप धारण कर लिया करती हैं और किये जाने वाले कर्म के अनुसार धात्वर्थ- गुणसंयुक्त उनके अनेक गौण नाम पड़ जाते हैं ॥ ५८-६० ॥ हे राजन् ! देवताओं के तेजसमूह से उन भगवती का मनोहर रूप जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसे मैं अपनी बुद्धि के अनुसार बता रहा हूँ ॥ ६१ ॥ भगवान् शंकर का जो तेज था, उससे उन भगवती का गौरवर्ण, सुन्दर आकार वाला तथा अत्यन्त विशाल मुखकमल निर्मित हुआ ॥ ६२ ॥ यमराज के तेज से उनके कोमल, घुँघराले, बहुत लम्बे, मेघ के समान कृष्ण वर्णवाले और मनोहर केश बने ॥ ६३ ॥ अग्नि के तेज से उन भगवती के तीनों नेत्र बने। तीन प्रकार के वर्णों से सुशोभित वे नेत्र काले, लाल तथा श्वेत थे ॥ ६४ ॥ उनकी भौंहें दोनों सन्ध्याओं के तेज से बनीं। वे टेढ़ी, चिकनी, काले रंग की, अत्यन्त तेजोमय तथा कामदेव के धनुष की भाँति प्रतीत हो रही थीं ॥ ६५ ॥ उनके दोनों उत्तम कान वायु के तेज से बने, जो न बहुत बड़े तथा न बहुत छोटे थे। वे कामदेव के झूले के सदृश प्रतीत हो रहे थे। तिल के फूल के समान आकृतिवाली, अत्यन्त मनोहर और स्निग्ध नाक कुबेर के तेज से उत्पन्न हुई ॥ ६६-६७ ॥ हे राजन् ! उन देवी के नुकीले, चिकने, चमकीले, कुन्द के अग्रभाग के सदृश तथा समान दाँत प्रजापति के तेज से उत्पन्न हुए ॥ ६८ ॥ उनका रक्तवर्ण अधरोष्ठ अरुण के तेज से उत्पन्न हुआ तथा ऊपर का अत्यन्त मनोहर उत्तरोष्ठ (ऊपर का ओष्ठ) कार्तिकेय के तेज से उत्पन्न हुआ ॥ ६९ ॥ उन देवी की अठारह भुजाएँ विष्णु के तेज से प्रकट हुईं तथा उनकी रक्तवर्ण की अँगुलियाँ वसुओं के तेज से उत्पन्न हुईं। उनके दोनों उत्तम स्तन चन्द्रमा के तेज से आविर्भूत हुए तथा तीन रेखाओं से युक्त उनका मध्यभाग इन्द्र के तेज से उत्पन्न हुआ। उनकी जाँघें तथा ऊरु- प्रदेश वरुण के तेज से उत्पन्न हुए तथा उनका विशाल नितम्ब पृथ्वी के तेज से उत्पन्न हुआ ॥ ७०-७२ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार उस तेजोराशि से सुन्दर आकारवाली, दिव्य रूप से सम्पन्न तथा मधुर स्वर वाली भगवती नारी-रूप में प्रकट हुईं ॥ ७३ ॥ मनोहर अंग-प्रत्यंगवाली, सुन्दर दाँतों वाली तथा भव्य नेत्रों वाली उन देवी को देखकर महिषासुर से पीड़ित समस्त देवता अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ ७४ ॥ उसी समय भगवान् विष्णु ने सभी देवताओं से कहा — हे देवताओ ! अब आप लोग अपने-अपने सभी शुभ भूषण एवं आयुध इन देवी को प्रदान करें। अपने-अपने आयुधों से नानाविध तेजस्वी शस्त्रास्त्र उत्पन्न करके सभी लोग शीघ्र ही देवी को अर्पित कर दें ॥ ७५-७६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवी के स्वरूपोद्भव का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ Content is available only for registered users. 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