श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय १८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अठारहवाँ अध्याय
वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिय उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ-आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे ॥ १ ॥ उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम निकाल ले ॥ २ ॥ केश, रोएँ, नख और मूंछ-दाढ़ीरूप शरीर के मल को हटावे नहीं । दातुन न करे । जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ रहे ॥ ३ ॥ ग्रीष्म ऋतु में पञ्चाग्नि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछार सहे । जाडे के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे । इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ ४ ॥ कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले । उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिल पर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले ॥ ५ ॥ वानप्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं — इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे । देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के सञ्चित पदार्थों को अपने काम में न ले ॥ ६ ॥

नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोड़ाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे । वानप्रस्थ हो जाने पर वेदविहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे ॥ ७ ॥ वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है ॥ ८ ॥ इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीखने लगती है । वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योकि तप मेरा ही स्वरूप है ॥ ९ ॥ प्रिय उद्धव ! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान् तपस्या को स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्कामभाव से ही करना चाहिये ॥ १० ॥

प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नियमों का पालन करने में असमर्थ हो जाय, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्नि में प्रवेश कर जाय । (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ ११ ॥ यदि उसकी समझ में यह बात आ जाय कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरक के समान ही दुःखपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले ॥ १२ ॥ जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधि के अनुसार आठों प्रकार के श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे । इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज् को दे दे । यज्ञाग्नियों को अपने प्राणों में लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियों की अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियों का रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहण में विघ्न डालते हैं । वे सोचते हैं कि ‘अरे ! यह तो हमलोगों की अवहेलना कर, हमलोगों को लाँघकर परमात्मा को प्राप्त होने जा रहा है ॥ १४ ॥

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक से अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी तक जाय । तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रक्खे । यह नियम आपत्तिकाल को छोड़कर सदा के लिये है ॥ १५ ॥ नेत्रों से धरती देखकर पैर रक्खे, कपड़े से छानकर जल पिये, मुँह से प्रत्येक बात सत्यपूत — सत्य से पवित्र हुई ही निकाले और शरीर से जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक — सोच-विचार कर ही करे ॥ १६ ॥ वाणी के लिये मौन, शरीर के लिये निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिये प्राणायाम दण्ड हैं । जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीर पर बाँस के दण्ड धारण करने से दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ॥ १७ ॥ संन्यासी को चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितों को छोड़कर चारों वर्णों की भिक्षा ले । केवल अनिश्चित सात घरों से जितना मिल जाय, उतने से ही सन्तोष कर ले ॥ १८ ॥ इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्ती के बाहर जलाशय पर जाय, वहाँ हाथ-पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले; फिर शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें भिक्षा का भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले । दूसरे समय के लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ १९ ॥

संन्यासी को पृथ्वी पर अकेले ही विचरना चाहिये । उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वश में हों । वह अपने-आपमें ही मस्त रहे, आत्म-प्रेम में ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य रक्खे और सर्वत्र समानरूप से स्थित परमात्मा का अनुभव करता रहे ॥ २० ॥ संन्यासी को निर्जन और निर्भय एकान्त स्थान में रहना चाहिये । उसका हृदय निरन्तर मेरी भावना से विशुद्ध बना रहे । वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्ड के रूप में चिन्तन करे ॥ २१ ॥ वह अपनी ज्ञान-निष्ठा से चित्त के बन्धन और मोक्ष पर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियों का विषयों के लिये विक्षिप्त होना — चञ्चल होना बन्धन है और उनको संयम में रखना ही मोक्ष है ॥ २२ ॥ इसलिये संन्यासी को चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को जीत ले, भोगों की क्षुद्रता समझकर उनकी ओर से सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आपमें ही परम आनन्द का अनुभव करे । इस प्रकार वह मेरी भावना से भरकर पृथ्वी में विचरता रहे ॥ २३ ॥ केवल भिक्षा के लिये ही नगर, गाँव, अहीरों की बस्ती या यात्रियों की टोली में जाय । पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता-फिरता रहे ॥ २४ ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के आश्रम से ही ग्रहण करे; क्योंकि कटे हुए खेतों के दाने से बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्त को शुद्ध कर देती है और उससे बचा-खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥

विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् हैं । इस जगत् में कहीं भी अपने चित्त को लगाये नहीं । इस लोक और परलोक में जो कुछ करने-पाने की इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ २६ ॥ संन्यासी विचार करे कि आत्मा में जो मन, वाणी और प्राणों का संघातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही हैं । इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ॥ २७ ॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्ष की भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमों की मर्यादा में बद्ध नहीं है । वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नों को छोड़-छाड़कर, वेद-शास्त्र के विधि-निषेधों से परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ २८ ॥ वह बुद्धिमान् होकर भी बालकों के समान खेले । निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागल की तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियों का जानकार होकर भी पशुवृत्त से (अनियत आचारवान्) रहे ॥ २९ ॥ उसे चाहिये कि वेदों के कर्मकाण्ड-भाग की व्याख्या में न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्क से बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ ३० ॥

वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मन में किसी भी प्राणी से उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणी को उद्विग्न न करे । उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नता से सह ले; किसी का अपमान न करे । प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीर के लिये किसी से भी वैर न करे । ऐसा वैर तो पशु करते हैं ॥ ३१ ॥ जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में भी स्थित है । सबकी आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतों से बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं । (ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध हैं।) ॥ ३२ ॥

प्रिय उद्धव ! संन्यासी को किसी दिन यदि समय पर भोजन न मिले, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये । उसे चाहिये कि वह धैर्य रक्खे । मन में हर्ष और विषाद दोनों प्रकार के विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्ध के अधीन हैं ॥ ३३ ॥ भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षा से ही प्राणों की रक्षा होती है । प्राण रहने से ही तत्त्व का विचार होता है और तत्त्व-विचार से तत्त्व-ज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ॥ ३४ ॥ संन्यासी को प्रारब्ध के अनुसार अच्छी या बुरी — जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसी से पेट भर ले । वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायें, उन्हीं से काम चला ले । उनमें अच्छेपन या बुरेपन की कल्पना न करे ॥ ३५ ॥ जैसे मैं परमेश्वर होने पर भी अपनी लीला से ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमों का लीला से ही आचरण करे । वह शास्त्र-विधि के अधीन होकर-विधि-किङ्कर होकर न करे ॥ ३६ ॥ क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुष को भेद की प्रतीति ही नहीं होती । जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्मा के साक्षात्कार से नष्ट हो गयी । यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेद की प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जाने पर वह मुझसे एक हो जाता है ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसार के विषयों के भोग का फल दुःख-ही-दुःख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्ति के साधनों को न जानता हो तो भगवच्चिन्तन में तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण ग्रहण करे ॥ ३८ ॥ वह गुरु की दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले । जब तक ब्रह्म का ज्ञान हो, तब तक बड़े आदर से मुझे ही गुरु के रूप में समझता हुआ उनकी सेवा करे ॥ ३९ ॥ किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन-इन छहों पर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथि बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदय में न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासी का वेष धारणकर पेट पालता हैं तो वह संन्यास-धर्म का सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओं को, अपने-आपको और अपने हृदय में स्थित मुझको ठगने की चेष्टा करता है । अभी उस वेषमात्र के संन्यासी की वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों से हाथ धो बैठता है ॥ ४०-४१ ॥

संन्यासी का मुख्य धर्म है — शान्ति और अहिंसा । वानप्रस्थी का मुख्य धर्म है — तपस्या और भगवद्भाव । गृहस्थ का मुख्य धर्म है — प्राणियों की रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारी का मुख्य धर्म हैं — आचार्य की सेवा ॥ ४२ ॥ गृहस्थ भी केवल ऋतुकाल में ही अपनी स्त्री का सहवास करे । उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव — ये मुख्य धर्म हैं । मेरी उपासना तो सभी को करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभाव से अपने वर्णाश्रमधर्म के द्वारा मेरी सेवा में लगा रहता है और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती हैं ॥ ४४ ॥ उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकों का एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलय का परम कारण ब्रह्म हूँ । नित्य निरन्तर बढ़नेवाली अखण्ड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालन के द्वारा अन्तःकरण को शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्य को — मेरे स्वरूप को जान लेता है और ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियों का धर्म बतलाया है । यदि इस धर्मानुष्ठान में मेरी भक्ति का पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाय ॥ ४७ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्म का पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्मस्वरूप को किस प्रकार प्राप्त होता हैं ॥ ४८ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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