श्रीमद्भागवतमहापुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय २९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
उनतीसवाँ अध्याय
पुरञ्जनोपाख्यान का तात्पर्य

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा — भगवन् ! मेरो समझ में आपके वचनों का अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है । विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं ॥ १ ॥

श्रीनारदजी ने कहा — राजन् ! पुरञ्जन (नगर का निर्माता) जीव हैं जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरोंवाला या बिना पैरों का शरीररूप पुर तैयार कर लेता है ॥ २ ॥ उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से कहा गया है, वह ईश्वर है, क्योंकि किसी भी प्रकार के नाम, गुण अथवा कर्मों से जीवों को उसका पता नहीं चलता ॥ ३ ॥ जीव ने जब सुख-स्वरूप सभी प्राकृत विषयों को भोगने की इच्छा की तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरोंवाला मानव-देह ही पसंद किया ॥ ४ ॥ बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरञ्जनी नाम की स्त्री जानो; इसीके कारण देह और इन्द्रिय आदि में मैं-मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसीका आश्रय लेकर शरीर में इन्द्रियों द्वारा विषय को भोगता है ॥ ५ ॥ दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकार के ज्ञान और कर्म होते हैं । इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही उसकी  सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समान रूप पाँच वृत्तियोंवाला प्राणवायु ही नगर की रक्षा करनेवाला पाँच फन का सर्प है ॥ ६ ॥ दोनों प्रकार की इन्द्रियों के नायक मन को ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये । शब्दादि पाँच विषय ही पाञ्चाल देश हैं, जिसके बीच में वह नौ द्वारोंवाला नगर बसा हुआ है ॥ ७ ॥

उस नगर में जो एक-एक स्थान पर दो-दो द्वार बताये गये थे — वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं । इनके साथ मुख, लिङ्ग और गुदा— ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं । इन्हीं में होकर वह जीव इन्द्रियों के साथ बाह्य विषयों में जाता हैं ॥ ८ ॥ इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख — ये पाँच पूर्व के द्वार हैं, दाहिने कान को दक्षिण का और बायें कान को उत्तर का द्वार समझना चाहिये ॥ ९ ॥ गुदा और लिङ्ग — ये नीचे दो छिद्र पश्चिम के द्वार हैं । खद्योता और
आविर्मुखी नाम के जो दो द्वार एक स्थान पर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभाजित नाम का देश है, जिसका इन द्वारों से जीव चक्षु-इन्द्रिय की सहायता से अनुभव करता है । (चक्षु-इन्द्रियों को ही पहले द्युमान् नाम का सखा कहा गया हैं) ॥ १० ॥ दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नाम के द्वार हैं और नासिका का विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घाणेन्द्रिय अवधूत नाम का मित्र है । मुख मुख्य नाम का द्वार हैं । उसमें रहनेवाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नाम का मित्र है ॥ ११ ॥

वाणी का व्यापार आपण है और तरह-तरह का अन्न बहूदन हैं तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है ॥ १२ ॥ कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्ग का शास्त्र और उपासना काण्डरूप निवृत्तिमार्ग का शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं । इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधर की सहायता से सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गों में जाता है ॥ १३ ॥ लिङ्ग ही आसुरी नाम का पश्चिमी द्वार है, स्त्री-प्रसङ्ग ग्रामक नाम का देश है और लिङ्ग में रहनेवाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नाम का मित्र है । गुदा निर्ऋति नाम का पश्चिमी द्वार है ॥ १४॥ नरक वैशस नाम का देश हैं और गुदा में स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नाम का मित्र है । इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो । वे हाथ और पाँव है; इन्हीं की सहायता से जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है ॥ १५ ॥ हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहनेवाला मन ही विषूचि (विषूचीन) नाम का प्रधान सेवक हैं । जीव उस मन के सत्वादि गुणों के कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोहको प्राप्त होता है ॥ १६ ॥

बुद्धि (राजमहिषी पुरञ्जनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्था में विकार को प्राप्त होती है और जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियादि को विकृत करती हैं, उसके गुणों से लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूप में उसकी वृत्तियों का अनुकरण करने को बाध्य होता है — यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है ॥ १७ ॥ शरीर ही रथ है । उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं । देखने में संवत्सररूप काल के समान ही उसका अप्रतिहत वेग हैं, वास्तव में वह गतिहीन है । पुण्य और पाप — ये दो प्रकार के कर्म ही उसके पहिये है, तीन गुण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं ॥ १८ ॥ मन बागडोर हैं, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठने का स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द्व जुए हैं, इन्द्रिय के पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं ॥ १९ ॥ पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की गति हैं । इस रथ पर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ता है । ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रियों विषयों को अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना हैं ॥ २० ॥

जिसके द्वारा काल का ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज हैं । उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं । ये बारी-बारी से चक्कर लगाते हुए मनुष्य की आयु को हरते रहते हैं ॥ २१ ॥ वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता । तब मृत्युरूप यवनराज ने लोक का संहार करने के लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया ॥ २२ ॥ आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही उस यवनराज के पैदल चलनेवाले सैनिक हैं तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्यु के मुख में ले जानेवाला शीत और उष्ण दो प्रकार का ज्वर ही प्रज्वार नाम का उसका भाई हैं ॥ २३ ॥

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञान से आच्छादित होकर अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्षों तक मनुष्यशरीर में पड़ा रहता है ॥ २४ ॥ वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मन के धर्मों को अपने में आरोपित कर मैं-मेरेपन के अभिमान से बँधकर क्षुद्र विषयों का चिन्तन करता हुआ तरह-तरह के कर्म करता रहता है ॥ २५ ॥ यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जबतक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान् के स्वरूप को नहीं जानता, तबतक प्रकृति के गुणों में ही बँधा रहता है ॥ २६ ॥ उन गुणों का अभिमानी होने से वह विवश होकर सात्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है ॥ २७ ॥ वह कभी तो सात्त्विक कर्मों के द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कर्मों के द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकॉ में जाता है — जहाँ उसे तरह-तरह के कर्मों का क्लेश उठाना पड़ता है और कभी तमोगुणी कर्मों के द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियों में जन्म लेता है ॥ २८ ॥

इस प्रकार अपने कर्म और गुणों के अनुसार देवयोनि, मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता हैं ॥ २९ ॥ जिस प्रकार बेचारा भूख से व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ अपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता हैं, उसी प्रकार यह जीव चित्त में नाना प्रकार की वासनाओं को लेकर ऊँचे-नीचे मार्ग से ऊपर, नीचे अथवा मध्य के लोकों में भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है ॥ ३०-३१ ॥ आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक — इन तीन प्रकार के दुःखों में से किसी भी एक से जीव का सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता । यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति ही है ॥ ३२ ॥

वह ऐसी ही है जैसे कोई सिर पर भारी बोझा ढोकर ले जानेवाला पुरुष उसे कंधे पर रख ले । इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये — यदि किसी उपाय से मनुष्य एक प्रकार के दुःख से छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिर पर सवार हो जाता है ॥ ३३ ॥ शुद्धहृदय नरेन्द्र ! जिस प्रकार स्वप्न में होनेवाला स्वप्नान्तर उस स्वप्न से सर्वथा छुटने का उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफलभोग से सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं हो स्कता; क्योंकि कर्म और कर्मफलभोग दोनों ही अविद्यायुक्त होते हैं ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिङ्गशरीर से विचरनेवाले प्राणी को स्वप्न के पदार्थ न होने पर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्यपदार्थ वस्तुतः न होने पर भी, जबतक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते है और जीव को जन्म-मरणरूप संसार से मुक्ति नहीं मिलती । (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही हैं) ॥ ३५ ॥

राजन् ! जिस अविद्या के कारण परमार्थस्वरूप आत्मा को यह जन्म मरणरूप अनर्थपरम्परा प्राप्त हुई हैं, उसकी निवृत्ति गुरुस्वरूप श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति होने पर हो सकती है ॥ ३६ ॥ भगवान् वासुदेव में एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकार से किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव कर देता है ॥ ३७ ॥ राज़र्षे ! यह भक्तिभाव भगवान् की कथाओं के आश्रित रहता है । इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती हैं ॥ ३८ ॥ राजन् ! जहाँ भगवद्गुणों को कहने और सुनने में तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाज में सब ओर महापुरुषों के मुख से निकले हुए श्रीमधुसूदनभगवान् के चरित्ररूप शुद्ध अमृत की अनेकों नदियाँ बहती रहती है । जो लोग अतृप्तचित से श्रवण में तत्पर अपने कर्णकुहरों द्वारा उस अमृत का छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते ॥ ३९-४० ॥

हाय ! स्वभावतः प्राप्त होनेवाले इन क्षुधा-पिपासादि विघ्नों से सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि के कथामृत-सिन्धु से प्रेम नहीं करता ॥ ४१ ॥ साक्षात् प्रजापतियों के पति ब्रह्माजी, भगवान् शङ्कर, स्वायम्भुव मनु, दक्षादि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारी, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं — ये जितने ब्रह्मवादी मुनिगण हैं, समस्त वाङ्मय के अधिपति होनेपर भी तप, उपासना और समाधि के द्वारा ढूंढ-ढूँढ़कर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वर को आजतक न देख सके ॥ ४२-४४ ॥ वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है । अनेकों महानुभाव उसकी आलोचना करके मन्त्रों में बताये हुए वज्रहस्तत्वादि गुणों से युक्त इन्द्रादि देवताओं के रूप में, भिन्न-भिन्न कर्मों के द्वारा, यद्यपि उस परमात्मा का ही यज़न करते हैं तथापि उसके स्वरूप को वे भी नहीं जानते ॥ ४५ ॥ हृदय में बार-बार चिन्तन किये जाने पर भगवान् जिस समय जिस जीव पर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्ग को बद्धमूल आस्था से छुट्टी पा जाता है ॥ ४६ ॥

बर्हिष्मन् ! तुम इन कर्मों में परमार्थबुद्धि मत करो । ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थ का तो स्पर्श भी नहीं करते । ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है ॥ ४७ ॥ जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेद को कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तव में उसका मर्म नहीं जानते । इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं ॥ ४८ ॥ पूर्व की ओर अग्रभागवाले कुशाऑ से सम्पूर्ण भूमण्डल को आच्छादित करके अनेकों पशुओं का वध करने से तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तव में तुम्हें कर्म या उपासना — किसी के भी रहस्य का पता नहीं है । वास्तव में कर्म तो वही हैं, जिससे श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान् में चित्त लगे ॥ ४९ ॥ श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियों के आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्यों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्हीं से संसार में सबका कल्याण हो सकता है ॥ ५० ॥ ‘जिससे किसी को अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा हैं’ ऐसा जो पुरुष जानता हैं, वही ज्ञानी हैं और जो ज्ञानी हैं वहीं गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है ॥ ५१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं —
पुरुषश्रेष्ठ ! यहाँतक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर हो गया । अब मैं एक भलीभाँति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो ॥ ५२ ॥ ‘पुष्पवाटिका में अपनी हरिनी के साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है वह दूब आदि छोटे-छोटे अङ्कुरों को चर रहा हैं । उसके कान भौंरों के मधुर गुंजार में लग रहे हैं । उसके सामने ही दूसरे जीवों को मारकर अपना पेट पालनेवाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं और पीछे से शिकारी व्याध ने बींधने के लिये उसपर बाण छोड़ दिया हैं । परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ भी पता नहीं है । एक बार इस हरिन की दशा पर विचार करो ॥ ५३ ॥

राजन् ! इस रूपक का आशय सुनो । यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशा पर विचार करो । पुष्प की तरह ये स्त्रियाँ केवल देखने में सुन्दर हैं, इन स्त्रियों के रहने का घर ही पुष्पवाटिका हैं । इसमें रहकर तुम पुष्पों के मधु और गन्ध के समान क्षुद्र सकाम कर्मों के फलरूप, जीभ और जननेन्द्रिय को प्रिय लगनेवाले भोजन तथा स्त्रीसङ्ग आदि तुच्छ भोगों को ढूंढ़ रहे हो । स्त्रियों से घिरे रहते हो और अपने मन को तुमने उन्हीं में फँसा रखा है । स्त्री-पुत्रों का मधुर भाषण ही भौंरों का मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं । सामने ही भेड़ियों के झुंड के समान काल के अंश दिन और रात तुम्हारी आयु को हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थी के सुखों में मस्त हो रहे हो । तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाण से तुम्हारे हृदय को दूर से ही बींध डालना चाहता है ॥ ५४ ॥

इस प्रकार अपने को मृगकी-सी स्थिति में देखकर तुम अपने चित्त को हृदय के भीतर निरुद्ध करो और नदी की भाँति प्रवाहित होनेवाली श्रवणेन्द्रिय की बाह्य वृत्ति को चित में स्थापित करो (अन्तर्मुखी करो) । जहाँ कामी पुरुषों की चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रम को छोड़कर परमहंसों के आश्रय श्रीहरि को प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयों से विरत हो जाओ ॥ ५५ ॥

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा — भगवन् ! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उसपर विशेषरूप से विचार भी किया । मुझे कर्म का उपदेश देनेवाले इन आचार्यों को निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं हैं; यदि ये इस विषय को जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते ॥ ५६ ॥ विप्रवर ! मेरे उपाध्यायों ने आत्मतत्त्व के विषय में मेरे हृदय में जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरह से काट दिया । इस विषय में इन्द्रियों की गति न होने के कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को भी मोह हो जाता है ॥ ५७ ॥ वेदवादियों का कथन जगह-जगह सुना जाता है कि ‘पुरुष इस लोक में जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूलशरीर को यहीं छोड़कर परलोक में कर्मों से ही बने हुए दूसरी देह से उनका फल भोगता है । किन्तु यह बात कैसे हो सकती है ? (क्योंकि उन कर्मों का कर्ता स्थूलशरीर तो यहीं नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षण में अदृश्य हो जाते हैं, वे परलोक में फल देने के लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं ? ॥ ५८-५९ ॥

श्रीनारदजी ने कहा — राजन् ! (स्थूल शरीर तो लिङ्गशरीर के अधीन है, अतः कर्मों का उत्तरदायित्व उसपर हैं) जिस मनःप्रधान लिङ्गशरीर की सहायता से मनुष्य कर्म करता है, वह तो मरने के बाद भी उसके साथ रहता ही है; अतः वह परलोक में अपरोक्षरूप से स्वयं उसी के द्वारा उनका फल भोगता है ॥ ६० ॥ स्वप्नावस्था में मनुष्य इस जीवित शरीर का अभिमान तो छोड़ देता है, किन्तु इसके समान अथवा इससे भिन्न प्रकार के पशु-पक्षी आदि शरीर से वह मन में संस्काररूप से स्थित कर्मों का फल भोगता रहता है ॥ ६१ ॥ इस मन के द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादि को ये मेरे हैं और देहादिक ‘यह मैं हूँ ऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मों को भी यह अपने ऊपर ले लेता हैं और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों की चेष्टाओं से उनके प्रेरक चित्त का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्त की भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों से पूर्वजन्म के कर्मों का भी अनुमान होता है (अतः कर्म अदृष्टरूप से फल देने के लिये कालान्तर में मौजूद रहते हैं) ॥ ६३ ॥ कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तु का इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया-जिसे न कभी देखा, न सुना ही-उसका स्वप्न में, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता हैं ॥ ६४ ॥ राजन् ! तुम निश्चय मानो कि लिङ्गदेह के अभिमानी जीव को उसका अनुभव पूर्वजन्म में हो चुका है । क्योंकि जो वस्तु पहले अनुभव की हुई नहीं होती, उसकी मन में वासना भी नहीं हो सकती ॥ ६५ ॥

राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो । मन ही मनुष्य के पूर्वरूपों को तथा भावी शरीरादि को भी बता देता है, और जिनका भावी जन्म होनेवाला नहीं होता, उन तत्त्ववेत्ताओं की विदेहमुक्ति का पता भी उनके मन से ही लग ज्ञाता है ॥ ६६ ॥ कभी-कभी स्वप्न में देश, काल अथवा क्रियासम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं (जैसे पर्वत की चोटी पर समुद्र, दिन में तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) । इनके दीखने में निद्रादोष को ही कारण मानना चाहिये ॥ ६७ ॥ मन के सामने इन्द्रियों से अनुभव होने योग्य पदार्थ ही भोगरूप में बार-बार आते हैं और भोग समाप्त होने पर चले जाते हैं, ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियों से अनुभव ही न हो सके । इसका कारण यही है कि सब जीव मनसहित हैं ॥ ६८ ॥

साधारणतया तो सब पदार्थों का क्रमशः ही भान होता है, किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तन में लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्व में स्थित हो जाय, तो उसमें भगवान् का संसर्ग होने से एक साथ समस्त विश्व का भी भान हो सकता है — जैसे राहु दृष्टि का विषय न होने पर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमा के संसर्ग से दीखने लगता है ॥ ६९ ॥ राजन् ! जबतक गुणों का परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयों का सङ्घात यह अनादि लिङ्गदेह बना हुआ है, तबतक जीव के अंदर स्थूलदेह के प्रति मैं-मेरा’ इस भाव का अभाव नहीं हो सकता ॥ ७० ॥ सुषुप्ति, मुर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादि के समय भी इन्द्रियों की व्याकुलता के कारण ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ की स्पष्ट प्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता हैं ॥ ७१ ॥ जिस प्रकार अमावस्या की रात्रि में चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्था में स्पष्ट प्रतीत होनेवाला यह एकादश इन्द्रियविशिष्ट लिङ्गशरीर गर्भावस्था और बाल्यकाल में रहते हुए भी इन्द्रियों का पूर्ण विकास न होने के कारण प्रतीत नहीं होता ॥ ७२ ॥ जिस प्रकार स्वप्न में किसी वस्तु का अस्तित्व न होनेपर भी जागे बिना स्वप्नजनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती-उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है; इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसार से छुटकारा नहीं हो पाता ॥ ७३ ॥

इस प्रकार पञ्चतन्मात्राओं से बना हुआ तथा सोलह तत्त्वॉ के रूप में विकसित यह त्रिगुणमय सङ्घात ही लिङ्गशरीर है । यही चेतनाशक्ति से युक्त होकर जीव कहा जाता है ॥ ७४ ॥ इसके द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहों को ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसीसे उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदि का अनुभव होता है ॥ ७५ ॥ जिस प्रकार जोंक जबतक दूसरे तृण को नहीं पकड़ लेती, तबतक पहले को नहीं छोड़ती — उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होने पर भी जबतक देहारम्भक कर्मों की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तबतक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता । राजन् ! यह मनःप्रधान लिङ्गशरीर ही जीव के जन्मादि का कारण है ॥ ७६-७७ ॥ जीव जब इन्द्रियजनित भोगों का चिन्तन करते हुए बार-बार उन्हीं के लिये कर्म करता है, तब उन कर्मों के होते रहने से अविद्यावश वह देहादि के कर्मों में बँध जाता है ॥ ७८ ॥ अतएव उस कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये सम्पूर्ण विश्व को भगवद्रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरि का भजन करो । उन्हीं से इस विश्व की उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हीं में लय होता है ॥ ७९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! भक्तश्रेष्ठ श्रीनारदजी ने राजा प्राचीनबर्हि को जीव और ईश्वर के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया । फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोक को चले गये ॥ ८० ॥ तब राजर्षि प्राचीनबर्हि भी प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के लिये कपिलाश्रम को चले गये ॥ ८१ ॥ वहाँ उन वीरवर ने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र मन से भक्तिपूर्वक श्रीहरि के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया ॥ ८२ ॥

निष्पाप विदुरजी ! देवर्षि नारद के परोक्षरूप से कहे हुए इस आत्मज्ञान को जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा, वह शीघ्र ही लिङ्गदेह के बन्धन से छूट जायगा ॥ ८३ ॥ देवर्षि नारद के मुख से निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्द के यश से सम्बद्ध होने के कारण त्रिलोकी को पवित्र करनेवाला, अन्तःकरण का शोधक तथा परमात्मपद को प्रकाशित करनेवाला है । जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायगा और फिर उसे इस संसार-चक्र में नहीं भटकना पड़ेगा ॥ ८४ ॥ विदुरजी ! गृहस्थाश्रमी पुरञ्जन के रूपक से परोक्षरूप में कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरुजी की कृपा से प्राप्त किया था । इसका तात्पर्य समझ लेने से बुद्धियुक्त जीव का देहाभिमान निवृत हो जाता है तथा उसका ‘परलोक में जीव किस प्रकार कर्मों का फल भोगता है’ यह संशय भी मिट जाता है ॥ ८५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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