April 13, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय १३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तेरहवाँ अध्याय राजा निमि के वंश का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि । उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठ को ऋत्विज् के रूप में वरण किया । वसिष्ठजी ने कहा कि ‘राजन् ! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले हीं वरण कर चुके हैं ॥ १ ॥ उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा । तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना ।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये ॥ २ ॥ विचारवान् निमि ने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभङ्गुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । जब तक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तब तक के लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजों को वरण कर लिया ॥ ३ ॥ गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करके लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है । उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमि को अपनी विचारशीलता और पाण्डित्य का बड़ा घमंड हैं, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय’ ॥ ४ ॥ निमि की दृष्टि में गुरु वसिष्ठ का यह शाप धर्म के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था । इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय’ ॥ ५ ॥ यह कहकर आत्मविद्या में निपुण निमि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया । परीक्षित् ! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजी ने भी अपना शरीर त्याग कर मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया ॥ ६ ॥ राजा निमि के यज्ञ में आये हुए श्रेष्ठ मुनियों ने राजा के शरीर को सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया । जब सत्रयाग की समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगों ने उनसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ ‘महानुभावो ! आपलोग समर्थ हैं । यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमि का यह शरीर पुनः जीवित हो उठे ।’ देवताओं ने कहा — ‘ऐसा ही हो ।’ उस समय निमि ने कहा — ‘मुझे देह का बन्धन नहीं चाहिये ॥ ८ ॥ विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्णरूप से श्रीभगवान् में ही लगा देते हैं और उन्हीं के चरणकमलों का भजन करते हैं । एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा — इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ॥ ९ ॥ अतः मैं अब दुःख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को धारण करना नहीं चाहता । जैसे जल में मछली के लिये सर्वत्र ही मृत्यु अवसर हैं, वैसे ही इस शरीर के लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’ ॥ १० ॥ देवताओं ने कहा — मुनियो ! राजा निमि बिना शरीर के ही प्राणियों के नेत्रों में अपनी इच्छा अनुसार निवास करें । वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीर से भगवान् का चिन्तन करते रहें । पलक उठने और गिरने से उनके अस्तित्व का पता चलता रहेगा ॥ ११ ॥ इसके बाद महर्षियों ने यह सोचकर कि ‘राजा के न रहने पर लोगों में अराजकता फैल जायगी’ निमि के शरीर का मन्थन किया । उस मन्थन से एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ जन्म लेने के कारण उसका नाम हुआ जनक । विदेह से उत्पन्न होने के कारण वैदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ । उसीने मिथिलापुरी बसायी ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ ॥ १४-१५ ॥ मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ ॥ १६ ॥ महाधृति का कृतिरात, कृतिरात का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा के पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा ॥ १७ ॥ इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे । वे जब यज्ञ के लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल) से सीताजी की उत्पत्ति हुई । इसीसे उनका नाम सीरध्वज पड़ा ॥ १८ ॥ सीरध्वज के कुशध्वज, कुशध्वज के धर्मध्वज और धर्मध्वज के दो पुत्र हुए — कृतध्वज और मितध्वज ॥ १९ ॥ कृतध्वज के केशिध्वज और मितध्वज के खाण्डिक्य हुए । परीक्षित् ! केशिध्वज आत्मविद्या में बड़ा प्रवीण था ॥ २० ॥ खाण्डिक्य था कर्मकाण्ड का मर्मज्ञ । वह केशिध्वज से भयभीत होकर भाग गया । केशिध्वज का पुत्र भानुमान और भानुमान् का शतद्युम्न था ॥ २१ ॥ शतद्युम्न से शुचि, शुचि से सनद्वाज, सनद्वाज से ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतु से अज, अज से पुरुजित्, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि से श्रुतायु, श्रुतायु से सुपार्श्वक, सुपार्श्वक से चित्ररथ और चित्ररथ से मिथिलापति क्षेमधि का जन्म हुआ ॥ २२-२३ ॥ क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ, सत्यरथ से उपगुरु और उपगुरु से उपगुप्त नामक पुत्र हुआ । यह अग्नि का अंश था ॥ २४ ॥ उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्त का युयुध, युयुध का सुभाषण, सुभाषण का श्रुत, श्रुत का जय, जय का विजय और विजय का ऋत नामक पुत्र हुआ ॥ २५ ॥ ऋत का शुनक, शुनक का वीतय, वीतय का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति और कृति का पुत्र हुआ महावशी ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! ये मिथिल के वंश में उत्पन्न सभी नरपति मैथिल’ कहलाते हैं । ये सब-के-सब आत्मज्ञान से सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी सुखदुःख आदि द्वन्द्वों से मुक्त थे । क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरों की इनपर महान् कृपा जो थी ॥ २७ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe