March 30, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय १४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौदहवाँ अध्याय गृहस्थ सम्बन्धी सदाचार राजा युधिष्ठिर ने पूछा — देवर्षि नारदजी ! मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रम के इस पद को किस साधन से प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥ नारदजी ने कहा — युधिष्ठिर ! मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे और गृहस्थ-धर्म के अनुसार सब काम करे, परन्तु उन्हें भगवान् के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओं की सेवा भी करे ॥ २ ॥ अवकाश के अनुसार विरक्त पुरुषों में निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान् के अवतारों की लीला-सुधा का पान करता रहे ॥ ३ ॥ जैसे स्वप्न टूट जाने पर मनुष्य स्वप्न के सम्बन्धियों से आसक्त नहीं रहता — वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्सङ्ग के द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यो-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि की आसक्ति स्वयं छोड़ता चले । क्योंकि एक-न-एक दिन ये छूटनेवाले ही हैं ॥ ४ ॥ बुद्धिमान् पुरुष को आवश्यकता अनुसार ही घर और शरीर की सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं । भीतर से विरक्त रहे और बाहर से रागी के समान लोगों में साधारण मनुष्यों-जैसा ही व्यवहार कर ले ॥ ५ ॥ माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र, जातिवाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहे, भीतर से ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे ॥ ६ ॥ बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदि के द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकार के धन भगवान् के ही दिये हुए हैं — ऐसा समझकर प्रारब्ध के अनुसार उनका उपभोग करता हुआ सञ्चय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधु-सेवा आदि कर्मों में लगा दे ॥ ७ ॥ मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उनकी भूख मिट जाय । इससे अधिक सम्पत्ति से जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये ॥ ८ ॥ हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलनेवाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान ही समझे । उनमें और पुत्रों में अन्तर ही कितना है ॥ ९ ॥ गृहस्थ मनुष्यों को भी धर्म, अर्थ और काम के लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसी से सन्तोष करना चाहिये ॥ १० ॥ अपनी समस्त भोग-सामग्रियों को कुत्ते, पतित और चाण्डालपर्यन्त सब प्राणियों को यथायोग्य बाँटकर ही अपने काम में लाना चाहिये और तो क्या, अपनी स्त्री को भी — जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी है — अतिथि आदि की निर्दोष सेवा में नियुक्त रखें ॥ ११ ॥ लोग स्त्री के लिये अपने प्राण तक दे डालते हैं । यहाँ तक कि अपने माँ-बाप और गुरु को भी मार डालते हैं । उस स्त्री पर से जिसने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवान् पर भी विजय प्राप्त कर ली ॥ १२ ॥ यह शरीर अन्त में कीड़े, विष्ठा या राख की ढेरी होकर रहेगा । कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती हैं वह स्त्री, और कहाँ अपनी महिमा से आकाश को भी ढक रखनेवाला अनन्त आत्मा ! ॥ १३ ॥ गृहस्थ को चाहिये कि प्रारब्ध से प्राप्त और पञ्चयज्ञ आदिं से बचे हुए अन्न से ही अपना जीवन-निर्वाह करे । जो बुद्धिमान् पुरुष इसके सिवा और किसी वस्तु में स्वत्व नहीं रखते, उन्हें संतों का पद प्राप्त होता हैं ॥ १४ ॥ अपनी वर्णाश्रम विहित वृत्ति के द्वारा प्राप्त सामग्रियों से प्रतिदिन देवता, ऋषि, मनुष्य, भूत और पितृगण का तथा अपने आत्मा का पूजन करना चाहिये । यह एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न रूपों में आराधना है ॥ १५ ॥ यदि अपने को अधिकार आदि यज्ञ के लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्निहोत्र आदि के द्वारा भगवान् की आराधना करनी चाहिये ॥ १६ ॥ युधिष्ठिर ! वैसे तो समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् ही हैं, परन्तु ब्राह्मण के मुख में अर्पित किये हुए हविष्यान्न से उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अग्नि के मुख में हवन करने से नहीं ॥ १७ ॥ इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियों में यथायोग्य उनके उपयुक्त सामग्रियों के द्वारा सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान भगवान् की पूजा करनी चाहिये । इनमें प्रधानता ब्राह्मणों की ही है ॥ १८ ॥ धनी द्विज को अपने धन के अनुसार आश्विन मास के कृष्णपक्ष में अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि) का भी महालय-श्राद्ध करना चाहिये ॥ १९ ॥ इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकर की संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेष की संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण के समय, द्वादशी के दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रों में, वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन — इन चार महीनों की कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघ की मघा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीने की वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदि से युक्त हो — चाहे चन्द्रमा पूर्ण हों या अपूर्ण; द्वादशी तिथि का अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उतराभाद्रपदा के साथ योग, एकादशी तिथि का तीनों उत्तरा नक्षत्रों से योग अथवा जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र से योग ये सारे समय पितृगणों का श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं । ये योग केवल श्राद्ध के लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मों के लिये उपयोगी हैं । ये कल्याण की साधना के उपयुक्त और शुभ की अभिवृद्धि करनेवाले हैं । इन अवसरों पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये । इसमें जीवन की सफलता हैं ॥ २०-२४ ॥ इन शुभ संयोगों में जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणों की पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियों को समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है ॥ २५ ॥ युधिष्ठिर ! इसी प्रकार स्त्री के पुंसवन आदि, सन्तान के जातकर्मादि तथा अपने यश-दीक्षा आदि संस्कारों के समय, शव-दाह के दिन या वार्षिक श्राद्ध उपलक्ष्य में अथवा अन्य माङ्गलिक कर्मों में दान आदि शुभ कर्म करने चाहिये ॥ २६ ॥ युधिष्ठिर ! अब मैं उन स्थानों का वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेय की प्राप्ति करानेवाले हैं । सबसे पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों ॥ २७ ॥ जिनमें यह सारा चर और अचर जगत् स्थित है, उन भगवान् की प्रतिमा जिस देश में हो, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणों से युक्त ब्राह्मणों के परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान् की पूजा होती हो और पुराणों में प्रसिद्ध गङ्गा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं ॥ २८-२९ ॥ पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषों के द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्राम क्षेत्र), नैमिषारण्य, फाल्गुन क्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, विन्दुसरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजी के आश्रम — अयोध्या-चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुलपर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान् के अर्चावतार हैं — वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं । कल्याणकामी पुरुष को बार-बार इन देशों का सेवन करना चाहिये । इन स्थानों पर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्यों को उनका हजार गुना फल मिलता हैं ॥ ३०-३३ ॥ युधिष्ठिर ! पात्र-निर्णय के प्रसङ्ग में पात्र के गुणों को जाननेवाले विवेकी पुरुषों ने एकमात्र भगवान् को ही सत्पात्र बतलाया है । यह चराचर जगत् उन्हीं का स्वरूप है ॥ ३४ ॥ अभी तुम्हारे इसी यज्ञ की बात हैं, देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकों के रहनेपर भी अग्रपूजा के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को ही पात्र समझा गया ॥ ३५ ॥ असंख्य जीवों से भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्ष के एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं । इसलिये उनकी पूजा से समस्त जीवों की आत्मा तृप्त हो जाती है ॥ ३६ ॥ उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदि के शरीर रूप पुरों की रचना की है तथा वे ही इन पुरों में जीवरूप से शयन भी करते हैं । इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है ॥ ३७ ॥ युधिष्ठिर ! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि शरीरों में उनकी विभिन्नता के कारण न्यूनाधिकरूप से प्रकाशमान हैं । इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरों की अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्यों में भी, जिसमें भगवान् का अंश-तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ ॥ ३८ ॥ युधिष्ठिर ! त्रेता आदि युग में जब विद्वानों ने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरे का अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगॉ ने उपासना की सिद्धि के लिये भगवान् प्रतिमा की प्रतिष्ठा की ॥ ३९ ॥ तभी से कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्री से प्रतिमा में ही भगवान् की पूजा करते हैं । परन्तु जो मनुष्य से द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमा उपासना करने पर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ॥ ४० ॥ युधिष्ठिर ! मनुष्यों में भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया हैं । क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणों से भगवान् के वेदरूप शरीर को धारण करता हैं ॥ ४१ ॥ महाराज ! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या ये जो सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं । क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं ॥ ४२ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे चतुर्दशोध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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