स्वामी श्री वृन्दावनदेवाचार्य जी
(सलेमाबाद)

श्री वृन्दावनदेवाचार्य जी स. 1754 से 1797 तक निम्बार्क सम्प्रदाय के अखिल भारतीय पीठ सलेमाबाद के पीठाधीश थे । वे भी सलेमाबाद के पूर्व पीठाधीशों के समान बड़े प्रतापी थे । परम रसिक तो वे थे ही । ‘मनिमंजरी’ सखी के रूप में प्रिया प्रियतम की मानसिक सेवा मे निरन्तर संलग्न रहने की उनकी स्वाभाविक स्थिति थी । पर विद्वान् भी वे कम नहीं थे । संस्कृत, पंजाबी, मारवाड़ी, बंगाली, मैथिली, ब्रजभाषा आदि का उन्हें अच्छा ज्ञान था । इन सभी भाषाओ मे वे धारावाही रूप से प्रवचन कर सकते थे । संगीत शास्त्र के भी वे महान् आचार्य थे । संगीत द्वारा मूर्च्छा, अपस्मार और कई प्रकार के मानसिक रोगो को ठीक कर देने की उनमें अद्‌भुत शक्ति थी । काव्य में भी उनकी गणना महान् कवियों में थी । कृष्णगढ नरेश महाराजा सावन्तसिंह (सन्त नागरीदास) और हिन्दी साहित्य के महाकवि घनानन्द आदि के वे काव्य और संगती के गुरु थे । उन्होंने ब्रजलीला और निकुन्ज-लीला दोनों का अपने काव्य में सुन्दर वर्णन किया है । ‘गीतामृत गंगा’ उनका गीत छन्दों का मुक्तक काव्य प्रसिद्ध है ।
उन्होंने अपने समय मे शैवों और दसनामियों द्वारा वैष्णवों पर किये जा रहे अत्याचारों को रोकने के लिए वैष्णव सम्प्रदायों को संगठित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया । उन्होंने गलता के आचार्य बालानन्दजी के सहयोग से जयपुर के पास ब्रह्मपुरी मे वैष्णव सम्प्रदायों का विशाल सम्मेलन बुलाया, जिसके संयोजक पदमाकर पुण्डरीक थे । इस सम्मेलन में तात्कालिक धर्म-संकट के निवारणार्थ त्यागी, वैरागी वैष्णवों की सेवा संगठन का सूत्रपात हुआ, जो कालान्तर मे अनी अखाडों के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
जनश्रुति है कि उन्होंने सर्व-सहारीनाथ नाम के एक शैव गोसाई को दीक्षा देकर उद्धार किया, जिसका राजस्थान मे आतंक था और जिसे वैष्णवों का वध करने और नर-मुण्डी और नर-कंकालों के ढ़ेर संग्रह करने का व्यसन था ।, एक बार वृन्दावन देवाचार्य जी बहुत से वैष्णवों के साथ तीर्थ भ्रमण करते हुए संध्या पंजाब के एक गाँव में पहुँचे । वहाँ गाँव के बाहर एक बाग मे पडाव डाला । रात्रि में जब सब लोग विश्राम कर रहे थे. बाग की चार दीवारी पर बने एक बुर्ज से किसी के रोने-चीखने की आवाज आई । कुछ वैष्णव उठकर उधर गये, पर देखा कहीं कुछ नहीं । कुछ देर बाद वही चीखने-चिल्लाने की आवाज फिर सुनाई दी । फिर कुछ लोगों ने बाहर जाकर देखा-भाला । अचानक एक वैष्णव को लगा जैसे आवाज दीवार मे ठुकी एक कील में से आ रही है । कौतुहलवश उन्होंने कोशिश कर कील को निकाल दिया । कील निकालते ही आवाज बन्द हो गयी । इसका रहस्य किसी की समझ में न आया । सब लोग अपने-अपने स्थान पर जाकर लेट गये । थोडी देर बाद उन्होंने देखा एक छाया को, जो कभी सफेद कपडे पहने उनके आस-पास टहलती दिखती, कभी भैंस के रूप में भाग-दौड़ करती । सब बहुत परेशान । सबने जाकर सारा वृतान्त आचार्य देव को कह सुनाया । वे बाहर आये तो उन्होने भी वही सब देखा । उन्होने थोडा-सा जल मन्त्र पढ़कर छाया कीं तरफ फेंक दिया । तब एक प्रेत मनुष्य का शरीर धारण कर उनके सामने प्रकट हुआ । उन्हें दण्डवत् प्रणाम कर बोला – ”आचार्यदेव, मैं इस बाग का चौकीदार था । अकाल मृत्यु होने के कारण भूत बनकर बाग में रहने लगा और स्वभाववश यहां आने वाले व्यक्तियों को तरह-तरह से परेशान करने लगा । तब लोगो ने एक स्याने द्वारा मन्त्रित कील से मुझे दीवार में गड़वा दिया । तब से मैं चीखता-चिल्लाता और कराहता रहा हूँ । आव आपके एक व्यक्ति ने कील उखाड़ कर मुझे मुक्त कर दिया और आपने जल छिड़क कर मेरी आत्मा को ठंडा कर दिया । अब आपसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे आप अपनी सेवा में अंगीकार करें । मैं आपकी और आपके साथ जितने लोग हैं, उसकी तत्परता से सेवा करूंगा ।”
आचार्यजी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की । सब वैष्णवों से कह दिया – ”यह भूत मार्ग में हमारी सेवा करता हुआ हमारे साथ चलेगा । इससे भय खाने की आवश्यकता नहीं ।
भूत जमात के साथ हो लिया । जब जमात एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने लगे तो वह क्षणभर में डेरे-तम्बू समेट ले । सारे सामान का गट्ठर बाँध दूसरे स्थान को ले जाये और वहाँ क्षण भर में डेरे-तम्बू तान दें । लोग उसे बिना पृथ्वी पर पग रखे सामान का पोटला सिर पर लिये तूफान की तरह भागते हुए देख आश्चर्य में डूब जाते ।
आचार्य जी ने उसकी सेवा से प्रसन्न हो परशुरामपुरी पहुँचकर उसके निमित्त ‘श्रीमद्‌भागवत’ का सप्ताह बैठाया और उसे प्रेत-योनि से मुक्त कर दिया ।
आचार्य जी के इस प्रकार के चमत्कार देख और उनकी रसिकता तथा विद्या, काव्य और संगीत आदि मे बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित हो बहुत से राजा-महाराजा और गुणी लोग उनके शिष्य हुए ।

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