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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ५५
श्रीकृष्ण-जन्माष्टमीव्रत की कथा एवं विधि

राजा युधिष्ठिर ने कहा — अच्युत ! आप विस्तार से (अपने जन्म-दिन) जन्माष्टमी व्रत का विधान बतलाने की कृपा करे ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन ! जब मथुरा में कंस मारा गया, उस समय माता देवकी मुझे अपनी गोद में लेकर रोने लगीं । पिता वसुदेवजी भी मुझे तथा बलदेवजी को आलिङ्गित कर गद्गदवाणी से कहने लगे — ‘आज मेरा जन्म सफल हुआ, जो मैं अपने दोनों पुत्रों को कुशल से देख रहा हूँ ।om, ॐ सौभाग्य से आज हम सभी एकत्र मिल रहे है ।’ हमारे माता-पिता को अति हर्षित देखकर बहुत से लोग वहाँ एकत्र हुए और मुझसे कहने लगे — ‘भगवन ! आपने बहुत बड़ा काम किया, जो इस दुष्ट कंस को मारा । हम सभी इससे बहुत पीड़ित थे । आप कृपाकर यह बतलाये कि आप माता देवकी के गर्भ से कब आविर्भूत हुए थे ? हम सब उस दिन महोत्सव मनाया करेंगे । आपको बार-बार नमस्कार हैं, हम सब आपकी शरण हैं । आप हम सभी पर प्रसन्न होइये । उस समय पिता वसुदेवजी ने भी मुझसे कहा था कि अपना जन्मदिन इन्हें बता दो ।’

तब मैंने मथुरानिवासी जनों को जन्माष्टमी व्रत का रहस्य बतलाया और कहा — ‘पुरवासियों ! आपलोग मेरे जन्म दिन को विश्व में जन्माष्टमी के नाम से प्रसारित करें । प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति को जन्माष्टमी का व्रत अवश्य करना चाहिये । जिस समय सिंह राशि पर सूर्य और वृषराशि पर चन्द्रमा था, उस भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में मेरा जन्म हुआ ।
सिंहराशिगते सूर्य गगने जलदाकुले ।
मासि भाद्रपदेष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके ।
वृषराशिस्थिते चन्द्र नक्षत्रे रोहिणीयुते ॥
(उत्तरपर्व ५५ । १४)

वसुदेवजी के द्वारा माता देवकी के गर्भ से मैंने जन्म लिया । यह दिन संसार में जन्माष्टमी नाम से विख्यात होगा । प्रथम यह व्रत मथुरा में प्रसिद्ध हुआ और बाद में सभी लोकों में इसकी प्रसिद्धि हो गयी । इस व्रत के करने से संसार में शान्ति होगी, सुख प्राप्त होगा और प्राणिवर्ग रोगरहित होगा ।’

महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन ! अब आप इस व्रत का विधान बतलाये, जिस के करने से आप प्रसन्न होते है ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! इस एक ही व्रत के कर लेने से सात जन्म के पाप नष्ट हो जाते है । व्रत के पहले दिन दन्तधावन आदि करके व्रत का नियम ग्रहण करे । व्रत के दिन मध्याह्न में स्नानकर माता भगवती देवकी का एक सूतिका गृह बनाये । उसे पद्म-राग-मणि और वनमाला आजानुलम्बिनी ऋतुपुष्पों की माला और पद्मराग, मुक्ता आदि पञ्चमणियों की माला तथा तुलसी-पत्र-मिश्रित विविध पुष्पों की माला को भी वनमाला, जयमाला और वैजयन्ती माला कहा गया है।आदि से सुशोभित करे । गोकुल की भाँति गोप, गोपी, घण्टा, मृदङ्ग, शङ्ख और माङ्गल्य-कलश आदि से समन्वित तथा अलंकृत सुतिका-गृह के द्वार पर रक्षा के लिए खड्ग, कृष्ण छाग, मुशल आदि रखे । दीवालों पर स्वस्तिक आदि मांगलिक चिह्न बना दे । षष्ठीदेवी की भी नैवेद्य आदि के साथ स्थापना करे । इस प्रकार यथाशक्ति उस सूतिकागृह को विभूषितकर बीच में पर्यङ्क के ऊपर मुझ सहित अर्धसुप्तावस्थावाली, तपस्विनी माता देवकी की प्रतिमा स्थापित करे । प्रतिमाएँ आठ प्रकार की होती हैं — स्वर्ण, चाँदी, ताम्र, पीतल, मृत्तिका, काष्ठ की मणिमयी तथा चित्रमयी । इनमें से किसी भी वस्तु की सर्वलक्षणसम्पन्न प्रतिमा बनाकर स्थापित करे । माता देवकी का स्तनपान करती हुई बालस्वरूप मेरी प्रतिमा उनके समीप पलंग के ऊपर स्थापित करे । एक कन्या के साथ माता यशोदा की प्रतिमा भी वहां स्थापित की जाय । सूतिका-मण्डप के ऊपर की भित्तियों में देवता, ग्रह, नाग तथा विद्याधर आदि की मूर्तियाँ हाथों से पुष्प-वर्षा करते हुए बनाये । वसुदेवजी को सूतिकागृह के बाहर खड्ग और ढाल धारण किये चित्रित करना चाहिये । वसुदेवजी महर्षि कश्यप के अवतार हैं और देवकी माता अदिति की । बलदेवजी शेषनाग के अवतार हैं, नन्दबाबा दक्षप्रजापति के, यशोदा दिति की और गर्गमुनि ब्रह्माजी के अवतार है । कंस कालनेमि का अवतार है । कंस के पहरेदारों को सूतिकागृह के आस-पास निद्रावस्था में चित्रित करना चाहिये । गौ, हाथी आदि तथा नाचती-गाती हुई अप्सराओं और गन्धर्वों की प्रतिमा भी बनाये । एक ओर कालिय नाग को यमुना के हृद में स्थापित करे ।

इस प्रकार अत्यन्त रमणीय नवसुतिका-गृह में देवी देवकी का स्थापनकर भक्ति से गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, नारियल, दाडिम, ककड़ी, बीजपूर, सुपारी, नारंगी तथा पनस आदि जो फल उस देश में उस समय प्राप्त हों, उन सबसे पूजनकर माता देवकी की इस प्रकार प्रार्थना करे —

“गायद्भिः किन्नराद्यैः सततपरिवृता वेणुवीणानीनादै-
र्भृङ्गारादर्शकुम्भप्रमरकृतकरैः सेव्यमाना मुनीन्द्रैः ।
पर्यङ्के स्वास्तृते या मुदिततरमनाः पुत्रिणी सम्यगास्ते
सा देवी देवमाता जयति सुवदना देवकी कान्तरूपा ॥”
(उत्तरपर्व ५५ । ४२)

‘जिनके चारों ओर किन्नर आदि अपने हाथों में वेणु तथा वीणा-वाद्यों के द्वारा स्तुति-गान कर रहे हैं और जो अभिषेक-पात्र, आदर्श, मंगलमय कलश तथा चँवर हाथों में लिए श्रेष्ठ मुनिगणों द्वारा सेवित हैं तथा जो कृष्ण-जननी भली-भाँति बिछे हुए पलँग पर विराजमान हैं, उन कमनीय स्वरुपवाली सुवदना देवमाता अदिति-स्वरूपा देवी देवकी की जय हो ।’

उस समय यह ध्यान करे कि कमलासना लक्ष्मी देवकी के चरण दबा रही हों । उन देवी लक्ष्मी की – ‘नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।’ इस मन्त्र से पूजा करे । इसके बाद ‘ॐ देवक्यै नमः, ॐ वसुदेवाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ सुभद्रायै नमः, ॐ नन्दाय नमः तथा ॐ यशोदायै नमः’— इन नाम-मन्त्रों से सबका अलग-अलग पूजन करे ।
कुछ लोग चन्द्रमा के उदय हो जाने पर चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान कर हरि का ध्यान करते हैं, उन्हें निम्नलिखित मन्त्रों से हरि का ध्यान करना चाहिये —

“अनघं वामनं शौरिं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम् ।
वासुदेवं हृषीकेशं माधवं मधुसूदनम् ॥
वाराहं पुण्डरीकाक्षं नृसिंहं ब्राह्मणप्रियम् ।
दामोदरं पद्यनाभं केशवं गरुड़ध्वजम् ॥
गोविन्दमच्युतं कृष्णमनन्तमपराजितम् ।
अधोक्षजं जगद्विजं सर्गस्थित्यन्तकारणम् ॥
अनादिनिधनं विष्णुं त्रैलोक्येशं त्रिविक्रमम् ।
नारायणं चतुर्बाहुं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
पीताम्बरधरं नित्यं वनमालाविभूषितम् ।
श्रीवत्साङ्क जगत्सेतुं श्रीधरं श्रीपतिं हरिम् ॥”
(उत्तरपर्व ५५ । ४६ – ५०)

‘अनघ, वामन, शौरि, वैकुण्ठ, पुरुषोत्तम, वासुदेव, हृषीकेश, माधव, मधुसूदन, वाराह, पुण्डरीकाक्ष, नृसिंह, ब्राह्मणप्रिय, दामोदर, पद्मनाभ, केशव, गरुडध्वज, गोविन्द अच्युत, कृष्ण, अनन्त अपराजित, अधोक्षज, जगत् के बीच एवं उसी की सृष्टि, स्थिति, विनाशक, तथा आदि अंत से शून्य विष्णु त्रैलोक्येश, त्रिविक्रम, नारायण, चतुर्बाहु, शंख, चक्रगदाधारी, पीताम्बरधारी, नित्यवनमाला से विभूषित एवं श्रीवत्सांक, जगत्सेतु, श्रीधर, श्रीपति, हरि, योगेश्वर, योगेश, भव, योगपति तथा गोविन्द को नमस्कार है ।’

इन मन्त्रों से भगवान् श्रीहरि का ध्यान करके ‘योगेश्वराय योगसम्भवाय योगपतये गोविन्दाय नमो नमः’ – इस मन्त्र से प्रतिमा को स्नान कराना चाहिये । अनन्तर ‘यज्ञेश्वराय यज्ञसम्भवाय यज्ञपतये गोविन्दाय नमो नमः’ – इस मन्त्र से अनुलेपन, अर्घ्य, धूप, दीप आदि अर्पण करे । तदनन्तर ‘विश्वाय विश्वेश्वराय विश्वसम्भवाय विश्वपतये गोविन्दाय नमो नमः ।’ इस मन्त्र से नैवेद्य निवेदित करे । दीप अर्पण करने का मन्त्र इस प्रकार हैं – धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नमः ।’
इस प्रकार वेदी के ऊपर रोहिणी-सहित चन्द्रमा, वसुदेव, देवकी, नन्द, यशोदा और बलदेवजी का पूजन करे, इससे सभी पापों से मुक्ति हो जाती है । चन्द्रोदय के समय इस मन्त्र से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे —

“क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिनेत्रसमुद्भव ।
गृहाणार्घ्यं शशाङ्केन्दो रोहिण्या सहितो मम् ॥”
(उत्तरपर्व ५५ । ५४)

‘क्षीर सागर से उत्पन्न एवं अत्रि महर्षि के नेत्र से प्रकट होने वाले चन्द्र देव ! रोहिणी समेत मेरे इस अर्घ्य को ग्रहण करें ।’

आधी रात को गुड और घी से वसोर्धारा की आहुति देकर षष्ठीदेवी की पूजा करे । उसी क्षण नामकरण आदि संस्कार भी करने चाहिये । नवमी के दिन प्रातःकाल मेरे ही समान भगवती का भी उत्सव करना चाहिये । इसके अनन्तर ब्राह्मणों को भोजन कराकर ‘कृष्णो में प्रीयताम’ कहकर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये और यह मन्त्र भी पढ़ना चाहिये —

“यं देवं देवकी देवी वसुदेवाजीजनत् ।
भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥”
(उत्तरपर्व ५५ । ६०)

‘देवकी देवी के वसुदेव द्वारा भगवान् को मौन और ब्रह्मा के रक्षार्थ उत्पन्न किया है, अतः उस ब्रह्मात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।’

इसके बाद ब्राह्मणों को बिदा करे और ब्राह्मण कहे – ‘शन्तिरस्तु शिवं चास्तु ।’

धर्मनन्दन ! इस प्रकार जो मेरा भक्त पुरुष अथवा नारी देवी देवकी के इस महोत्सव को प्रतिवर्ष करता है, वह पुत्र, सन्तान, आरोग्य, धन-धान्य, सद्गृह, दीर्घ आयुष्य और राज्य तथा सभी मनोरथों को प्राप्त करता है । जिस देश में यह उत्सव किया जाता है, वहाँ जन्म-मरण, आवागमन की व्याधि, अवृष्टि तथा ईति-भीती आदि का कभी भय नहीं रहता । मेघ समय पर वर्षा करते हैं । पाण्डुपुत्र ! जिस घर में यह देवकी-व्रत किया जाता हैं, वहाँ अकालमृत्यु नहीं होती और न गर्भपात होता हैं तथा वैधव्य, दौर्भाग्य एवं कलह नहीं होता । जो एक बार भी इस व्रत को करता हैं, वहा विष्णुलोक को प्राप्त होता है । इस व्रत के करनेवाले संसार के सभी सुखों को भोगकर अंत में विष्णुलोक में निवास करते हैं ।
(अध्याय ५५)

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