September 23, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-016 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ सोलहवाँ अध्याय काशिराज का दण्डकारण्य में महर्षि भ्रूशुण्डी के आश्रम में गमन, काशिराज तथा गजानन के अनन्य भक्त भ्रूशुण्डी का वार्तालाप अथः षोडशोऽध्यायः बालचरिते नृपप्रत्यागमं ब्रह्माजी बोले — हे व्यासजी ! अब मैं आश्चर्यजनक कथा को सुनाता हूँ, आप श्रवण करें। इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करने से मनुष्य अत्यन्त सुख प्राप्त करता है ॥ १ ॥ वे काशिराज प्रातःकाल उठकर नित्य कर्मों का सम्पादन करने के अनन्तर महल से बाहर निकले। उन्होंने बालक विनायक के भवन में जाकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा की, तदनन्तर उन्होंने बालक विनायक से भोजन करने हेतु प्रार्थना की । विनायक ने विविध प्रकार के पकवानों से तृप्ति प्राप्त होने के अनन्तर होने वाली डकार ली ॥ २-३ ॥ राजा ने वहाँ पर बचे हुए लड्डुओं, पायस आदि पदार्थों, पुओं, बड़ों, सूपमिश्रित पवित्र भात, दधि, दुग्ध, मधु, घृत तथा क्वथिका अर्थात् कढ़ी से युक्त पात्रों को देखा। साथ ही उन विनायक के शरीर पर विद्यमान मणि तथा मुक्ता से बनी माला, अत्यन्त मूल्यवान् तथा नवीन विविध अलंकारों को देखा। तब काशिराज ने उन विनायक को पुनः नमस्कार करके उनसे पूछा — ॥ ४-६ ॥ हे जगदीश्वर ! किस भक्त के द्वारा आपकी यह पूजा की गयी है? आपकी कृपा से मैं उन्हें जानना चाहता हूँ और उनका दर्शन करना चाहता हूँ ॥ ७ ॥ इस प्रकार से कहने वाले अपने भक्त काशिराज से विनायकदेव ने अपने भक्त द्वारा की गयी पूजा के विषय में इस प्रकार बताया ॥ ८ ॥ विनायकदेव बोले — हे राजन्! इस समय आपने जो मुझसे पूछा है, उसे मैं बताता हूँ, आप सुनें। हे नृपात्मज! उसे मैं आपको संक्षेप में ही बताता हूँ ॥ ९ ॥ दण्डकारण्य देश के नामल नामक नगर में भ्रूशुण्डी नामक मेरा एक भक्त निवास करता है; वह भूत, भविष्य तथा वर्तमान तीनों कालों को जानता है। वह शीघ्र ही तीनों लोकों की सृष्टि करने, उसकी रक्षा करने तथा उसके संहार करने की सामर्थ्य रखता है । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव उसके दर्शन की नित्य अभिलाषा रखते हैं ॥ १०-११ ॥ सभी समयों में मेरा ध्यान-स्मरण करते रहने से उनके समस्त पाप विनष्ट हो गये हैं और उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। प्राचीन समय की बात है, जब वे तपस्या में लीन थे, उसी समय उनकी दोनों भौहों के मध्य एक शुण्ड प्रकट हो गया था, तभी से वे तीनों लोकों में भ्रूशुण्डी इस नाम से प्रसिद्ध हो गये। मुझ पर अनन्य भक्तिभाव रखने के कारण मृत्युलोक में होने पर भी उन्होंने मेरा सादृश्य प्राप्त कर लिया है ॥ १२-१३ ॥ आज शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि है, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरा पूजन किया है। हे राजन् ! मेरे शरीर से टपकते हुए घृत, दुग्ध, दधि तथा मधु को आप देख लें। हे नृपश्रेष्ठ ! मेरे द्वारा भोजन करने से जो अन्न बच गया है, उसे तो आपने देख ही लिया है ॥ १४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर काशिराज ने कहा — ‘हे देवाधिदेव ! हे जगत् के स्वामी! मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ, वे कैसे यहाँ आयेंगे ?’ ॥ १५१/२ ॥ विनायक बोले — हे राजन् ! आप आज ही उनके आश्रम-स्थल को जाइये। उनकी पूजा करके तथा उन्हें प्रणाम करके अपने पुत्र के विवाह में आने के लिये प्रयत्नपूर्वक प्रार्थना कर उन्हें यहाँ बुला ले आइये तथा मेरा इस प्रकार का वचन भी उनसे कहियेगा ॥ १६-१७ ॥ हे मुने! क्योंकि विनायकदेव मेरे घर में आये हैं, वे आपके द्वारा भक्तिपूर्वक की गयी पूजा से अत्यन्त सन्तुष्ट हैं । हे मुने! वे भी आपका दर्शन करना चाहते हैं, मुझे उन्होंने ही आपके पास भेजा है। मुझे भी आपके दर्शन की तथा पूजा की महान् अभिलाषा है। अतः आप मेरे घर पधारकर मेरे घर तथा मेरी सम्पदा को सफल बनायें। हे राजन्! इस प्रकार आपके द्वारा कहे जाने पर तथा मेरा नाम लेने से वे मेरे भक्त भ्रूशुण्डी उसी क्षण आ जायँगे ॥ १८–२०१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — विनायक के द्वारा इस प्रकार से कहे गये उन काशिराज ने उनकी पूजा करके प्रस्थान किया। तूणीर और धनुष धारण करके शीघ्रगामी अश्व पर आरूढ़ होकर नदियों, पर्वतों तथा वनों को पार करके धीरे-धीरे राजा चल पड़े ॥ २१-२२ ॥ भ्रूशुण्डीजी के आश्रम में पहुँचकर राजा घोड़े से उतर पड़े। भ्रूशुण्डीमुनि का दर्शनकर राजा ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मुनि ने राजा का स्वागत-सत्कार किया और काशिराज ने भी प्रसन्नतापूर्वक उन ऋषि का पूजन किया। मुनि की आज्ञा पाकर राजा बैठ गये । तदनन्तर उन्होंने वहाँ के महान् वन में, सरोवरों, वृक्षों, लताओं, पुष्पों तथा फलों से समन्वित उस सुन्दर आश्रम को देखा । भगवान् शिव का निवासस्थान कैलास, विष्णुलोक अथवा सत्यलोक भी उस आश्रम के समान न था ॥ २४-२५ ॥ उस आश्रम में वेदमन्त्रों का उच्चारण हो रहा था । शास्त्रों का पाठ हो रहा था तथा गीत एवं नृत्य आदि से वह आश्रम सुशोभित हो रहा था । वहाँ अग्निहोत्र हो रहा था, विविध प्रकार के जलाशयों, पक्षियों तथा जलचर प्राणियों से वह समन्वित था ॥ २६ ॥ उस आश्रम का दर्शनकर प्रसन्नचित्त राजा को परम आनन्द का अनुभव हुआ। उन्होंने मुनि भ्रूशुण्डी को दण्डवत् प्रणाम किया और उन्हें अपने पुत्र के विवाह का समाचार, भ्रूशुण्डी द्वारा की गयी विनायक की पूजा और विनायक द्वारा प्राप्त आज्ञा का सम्पूर्ण वृत्तान्त भी बतलाया । तदनन्तर राजा ने यह भी प्रार्थना की कि आप मेरे भवन में चलने का कष्ट करें ॥ २७-२८ ॥ ऋषि बोले — हे महाराज ! यह बतायें कि आप कौन हैं और आपके वे विनायक कौन हैं ? ॥ २८१/२ ॥ राजा बोले — मुझे आप सूर्यवंश में उत्पन्न जानें और मैं काशिराज इस नाम से विख्यात हूँ । आपके वे अभीष्टदेव विनायक महर्षि कश्यप के पुत्र हैं। उन्हें भोजन कराने के लिये जब मैं उनके पास निमन्त्रण देने गया, तब मैंने उनके द्वारा आपके महान् यश का वर्णन सुना। आपने चतुर्थी तिथि को विविध उपहार – सामग्रियों से जो उन विनायक का पूजन किया था, उन्होंने मेरे नगर में भोजन आदि से तृप्त हो जाने पर उन अवशिष्ट सामग्रियों को मुझे दिखलाया था ॥ २९–३१ ॥ उन्होंने मुझसे कहा है कि हे राजन्! मेरा नाममात्र लेने से वे मुनि स्वयं यहाँ आ जायँगे। अतः हे महामुने ! मैं आपको अपने नगर में ले जाने के लिये आपसे प्रार्थना करने हेतु यहाँ आया हूँ। आपका दर्शन भी इन चक्षुओं से करना अत्यन्त दुर्लभ है, इसलिये मैं यहाँ आया हूँ ॥ ३२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — काशिराज के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वे मुनि भ्रूशुण्डी अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और बोले — ‘क्या यह सत्य है अथवा असत्य है ? जो विनायकदेव वेदों के जानने वालों के लिये भी अगोचर हैं, वेदान्तशास्त्र के मर्मज्ञों के मन से भी परे हैं, वे ही परमात्मा गणेश आपके भवन में कैसे स्थित हैं ? इस विषय में मेरे मन में सन्देह हो रहा है। तैंतीस करोड़ देवता जिसके दर्शन के लिये आये हों, वह मैं आपके वचन को मानकर अपने आश्रम को छोड़कर कैसे आपके साथ जा सकता हूँ? हे राजन्! यदि वे देव विनायक आपके भवन में स्थित हैं तो आप उनके यथार्थ स्वरूप का वर्णन कीजिये, तभी मैं आपके घर चल सकता हूँ’ ॥ ३३-३६१/२ ॥ राजा बोले — उनके अनन्त स्वरूप हैं, जिनकी गणना करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं और न सहस्र मुखवाले शेष ही समर्थ हैं। इसलिये हे द्विज ! तब उनके यथार्थ स्वरूप का वर्णन करने में अन्य कौन दूसरा समर्थ हो सकता है ? हे मुने! इस समय वे महर्षि कश्यपजी के घर में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ३७-३८ ॥ वे ‘विनायक’ इस नाम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं । उन सात वर्ष के अद्भुत स्वरूपवाले बालक विनायक ने महान् अद्भुत कर्म किये हैं। जिन कर्मों को करने में साक्षात् जगदीश्वर भी समर्थ नहीं हैं, उन कर्मों को उन्होंने किया है ॥ ३९-४० ॥ मेरे घर में वे जिस स्वरूप से निवास कर रहे हैं, उस स्वरूप को मैं आपको बताऊँगा । वे देवाधिदेव इस समय मेरे यहाँ ब्रह्मचारी के रूप में स्थित हैं ॥ ४१ ॥ जिस समय उन्होंने महर्षि कश्यप के घर में अवतार धारण किया था, उस समय उनकी कान्ति अत्यन्त दिव्य थी। वे चार भुजाओं वाले थे, दिव्य माला तथा वस्त्रों को उन्होंने धारण कर रखा था, दिव्य अलंकारों से विभूषित थे। उन्होंने दिव्य आयुध धारण कर रखा था, वे अत्यन्त बुद्धिमान् थे, दिव्य सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन उनके अंगों में अनुलेपित था। तदनन्तर महर्षि कश्यप के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उन्होंने तत्क्षण ही सामान्य शिशु का रूप धारण कर लिया था ॥ ४२-४३ ॥ मुनि भ्रूशुण्डी बोले — हे नृपश्रेष्ठ! जिन परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ और जिनकी कृपा से देवताओं तथा ऋषियों के लिये भी दुर्लभ ये मेरी सूँड़ निकली है, वे आपके द्वारा बताये गये स्वरूप वाले नहीं हैं, वे मेरे देव यदि मुझे बुलायेंगे तो मैं जहाँ-कहीं भी चला जाऊँगा ॥ ४४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — मुनि भ्रूशुण्डी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजा अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो गये और बोले — इस समय मेरे सौभाग्य के साथ ही महान् दुर्भाग्य का भी उदय हो गया है। आपसे आशा लगाकर मैं महाभयंकर पर्वतों और वनों को पार करके यहाँ आया हूँ और आपका दुर्लभ दर्शन मैंने प्राप्त किया है । हे विभो ! मैं आपको अपने भवन में ले जाने के लिये जबरदस्ती नहीं करूँगा ॥ ४५–४७ ॥ यह सुनकर मुनि दयार्द्र हो उठे, उन्होंने राजा के सिरपर हाथ रखा और कहा — ‘हे राजन् ! आप अपनी आँखें बन्द करें।’ इस प्रकार से कहे गये उन काशिराज ने मुनि के कथनानुसार अपनी आँखें बन्द कर लीं ॥ ४८ ॥ क्षणभर बाद जब राजा ने अपनी आँखों को खोला तो उन्होंने देखा कि वे मुनि की कृपा से अपने घर में स्थित हैं । तदनन्तर काशिराज ने विनायकदेव को वह सारा समाचार बतलाया। राजा मुनि भ्रूशुण्डी के दर्शन से अत्यन्त आनन्दित थे, लेकिन उनके न आने से वे बहुत दुखी भी थे ॥ ४९-५० ॥ राजा ने कहा — ‘वे मुनि भ्रूशुण्डी आपके कथन को सुनाने पर और मेरे प्रयत्न करने पर भी नहीं आये । ब्राह्मणों के साथ बल का प्रयोग करने पर वे सब भस्म कर देते हैं, इसी कारण मैंने कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की ‘ ॥ ५१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘काशिराज के प्रत्यागमन का वर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ Content is available only for registered users. 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