श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-020
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बीसवाँ अध्याय
बालक विनायक की बाललीला के सन्दर्भ में विनायक द्वारा अम्भासुर आदि तीन दैत्यों के वध का वर्णन
अथः विंशतितमोऽध्यायः
बालचरिते दैत्यत्रयवध

व्यासजी बोले — हे चतुर्मुख ब्रह्माजी ! हे ब्रह्मन् ! हे भगवन्! काशिराज के घर में उनके पुत्र का विवाह कब सम्पन्न हुआ, उसे आप मुझे विस्तार से बतलाइये ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — एक अरिष्ट जबतक विनष्ट होता, तबतक दूसरा अरिष्ट पुनः आ पहुँचता, काशिराज जबतक यह सोचते कि इस अरिष्ट के दूर होने पर पुत्र का विवाह करूँगा, तबतक दूसरा अरिष्ट आ उपस्थित होता । कूप तथा कन्दर नामक असुरों का वध हो जाने पर तीन अन्य राक्षस आ उपस्थित हुए, जिनके नाम थे — अन्धक, अम्भासुर और तुंग। ये तीनों ही देखने में अत्यन्त क्रूर थे। ये तीनों बालक विनायक के वध की इच्छा से आये थे। तब [विनायक के साथ उनका] युद्ध हुआ। उनके युद्ध का समाचार सुनकर ब्रह्मा आदि देवता भी भाग गये थे ॥ २-४ ॥

उन राक्षसों ने दिशाओं के हाथियों का भी मर्दन कर दिया था, फिर देवताओं की क्या बात! कश्यप का वह पुत्र कब हमें दिखायी देगा, उसे हम अनेक प्रकार से मार डालेंगे । ऐसा निश्चितकर वे राक्षस आये थे। अभी तक जितने भी वीर उसके वध के लिये भेजे गये, सभी मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, लेकिन हम इसे मार डालेंगे, उसे जीते बिना हम अपने घर वापस नहीं लौटेंगे। हम लोग अग्नि का स्वरूप धारणकर कश्यपमुनि के इस पुत्र को मार डालेंगे ॥ ५–७ ॥

उस समय अन्धक बोला — ‘मैं सम्पूर्ण दिशाओं तथा आकाश को अन्धकार से व्याप्तकर पृथ्वी में भी सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार कर दूँगा। तब लोगों को परस्पर में एक-दूसरा कोई भी दिखायी नहीं देगा’ ॥ ८१/२

तदनन्तर अम्भासुर बोला — ‘मैं उस काशिराज की नगरीसहित सम्पूर्ण पृथ्वी को जल से आप्लावित कर दूँगा । तब कोई भी इधर-से-उधर नहीं जा सकेगा ‘ ॥ ९१/२

तुंग बोला — ‘मैं बहुत ऊँचा पर्वत बनकर उस काशीनगरी को पीसकर उसी प्रकार चूर्ण-चूर्ण कर डालूँगा जैसे कि पूर्वकाल में पंखयुक्त पर्वत [ग्राम-नगरादिको ] चूर-चूर कर डालते थे ॥ १०१/२

सर्वत्र अन्धकार हो जाने, जल भर जाने, अग्नि के व्याप्त हो जाने तथा पर्वतों के छा जाने से कोई भी बाहर जाने में समर्थ नहीं हो सकेगा, तो फिर वह बालक कैसे बाहर चला जायगा ?’ इस प्रकार का विचार निश्चित करके उनकी गर्जना की ध्वनि से तीनों लोक काँप उठे । वे तीनों अत्यन्त जोर से गर्जना करने लगे ॥ ११-१२ ॥ क्षुब्ध हो उठे जल वाले समुद्रों ने अपने तट का अतिक्रमण प्रारम्भ कर दिया । तदनन्तर सूर्य को आच्छादित करके असुर अन्धक वहाँ स्थित हो गया। महान् घोर अन्धकार छा जाने से कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था ॥ १३-१४ ॥ अकस्मात् असमय में रात हो गयी। जो लोग व्यापार आदि कर्मों में लगे थे, स्नान कर रहे थे, जप में संलग्न थे, हवन कर रहे थे, तपस्या कर रहे थे, वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे, विवाह, उपनयन आदि संस्कारों को सम्पन्न कर रहे थे, भगवन्नाम संकीर्तन में तल्लीन थे, पुराणों का पाठ कर रहे थे, ब्राह्मणों तथा देवों का पूजन आदि कर्म सम्पन्न कर रहे थे और नाना प्रकार के कर्मों को कर रहे थे तथा व्रत आदि के अनुष्ठान में लगे थे, उन्होंने यह देखा कि रात हो गयी है, वे लोग कहने लगे कि क्या विन्ध्यपर्वत ने सूर्यमण्डल को रोक दिया है ? अथवा प्रलय होने वाला है या सूर्यग्रहण लग गया है ? ऐसी ही बातें सभा में विराजमान राजा से पण्डितों ने भी कहीं ॥ १५–१८ ॥

जबतक वे लोग इस प्रकार का विचार कर ही रहे थे कि गायें अपने-अपने घरों को लौट आयीं । अकल्पित समय में ही लोगों ने अपने-अपने घरों में (सान्ध्य) दीप जला दिये ॥ १९ ॥ अभी सूर्यास्त कैसे हो गया, न तो भोजन बना है और न किसी ने भोजन ही किया है। ऐसा कहते हुए स्त्रियाँ अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं, कुछ स्त्रियाँ दूध दुहने लगीं। उस समय लोग दीपक तथा लकड़ी के दीपक (मशाल) जलाकर अपना कार्य कर रहे थे। व्यापारीजन तथा ब्राह्मण आदि बड़े कष्टपूर्वक कार्यों को पूरा कर रहे थे ॥ २०-२१ ॥ उस समय सेवकों, कामीजनों, आलसियों, सोये हुओं तथा निद्रालुजनों को बड़ा ही आनन्द प्रतीत हुआ ॥ २२ ॥

इस प्रकार अन्धकासुर के द्वारा सर्वत्र अन्धकार कर दिये जाने पर अम्भासुर नामक दैत्य ने मेघ बनकर हाथी की सूँड़ के समान मोटी वर्षा की धारा प्रारम्भ कर दी ॥ २३ ॥ उस समय क्षणमात्र के लिये बिजली के चमकने पर ही लोग अपनी वस्तुओं को देख पा रहे थे । वर्षा की मोटी धारा से भयभीत होकर लोग अपने घर के अन्दर ही बैठे रह गये ॥ २४ ॥ उस भारी पानी की धारा से बड़े-बड़े कई भवन गिर गये, घरों की दीवालें टूट गयीं, जनसमूह में से कुछ लोग घरों के अन्दर तो कुछ बाहर रहकर मर गये ॥ २५ ॥ झंझावात से आहत वृक्ष भूमि पर गिर पड़े। कड़कती बिजली ने बहुत से घरों तथा वृक्षों को जला डाला ॥ २६ ॥ लोगों से परिव्याप्त तथा सभी प्राणियों से भरी हुई वह काशीनगरी उफान मारती हुई नदियों के कारण समुद्रों द्वारा डुबायी जाती हुई-सी लग रही थी ॥ २७ ॥

ब्रह्माजी बोले — उस प्रलय को दैत्यों द्वारा उत्पन्न माया जानकर करुणासागर उन विनायक ने अपनी योगमाया के बल से तत्क्षण ही एक बहुत ऊँचे वटवृक्ष को उत्पन्न किया। जो अनेक प्रकार की लताओं तथा गुल्मों से सुशोभित था । वह सौ योजन विस्तार वाला था और जटाओं तथा शाखाओं से समन्वित था ॥ २८-२९ ॥ तदनन्तर वे विनायक एक बहुत बड़े पक्षी के रूप में वहाँ स्थित हो गये। उस पक्षी ने अपने गगनचुम्बी पंखों को भूमि में लगा लिया और सिर से आकाश को छू लिया। और काशीनगरी को प्रकाशयुक्त बना दिया । उस विशाल जलराशि को अपनी चोंच से पक्षीरूपी विनायक ने उसी प्रकार पी डाला, जैसे कि कोई जंगली हाथी छोटे-से गड्ढे के जल को अपनी सूँड़ से पी डालता है ॥ ३०-३१ ॥

उस समय लोग प्रसन्न होकर कहने लगे — ‘विघ्न दूर हो गया है और जल भी समाप्त हो गया है। ‘ अन्धकार के दूर हो जाने पर उन्होंने उस गहन वटवृक्ष को देखा। साथ ही उन्होंने एक अद्भुत स्वरूपवाले पक्षी को भी देखा, जैसा कि न तो देखा गया था और न सुना ही गया था। सभी लोग उसकी शरण लेने की दृष्टि से उस वटवृक्ष के समीप में गये ॥ ३२-३३ ॥ अश्वों, हाथियों, रथों, ऊँटों, पालकियों, स्त्रियों तथा दासों सहित काशिराज भी उस वटवृक्ष के नीचे चले आये। दूसरे पशु, कुत्ते, बिल्लियाँ तथा वन्य पशु भी वहाँ आ गये। बालक विनायक के प्रभाव से न तो वृष्टि ही हो रही थी और न वहाँ अन्धकार ही था ॥ ३४-३५ ॥ सभी वर्णों के लोग पूर्ववत् अपने-अपने कर्मों को यथाविधि करने लगे। नगरनिवासी पूर्व की भाँति अपने-अपने व्यवसायों में लग गये ॥ ३६ ॥

[वे लोग सोचने लगे कि] क्या जगदीश्वर गणेश ने ही सभी की रक्षा करने के लिये पक्षी का रूप धारण किया है ? इस विषय में हम लोग कुछ भी नहीं जान पा रहे हैं। [अवश्य ही] उन्होंने दैत्य द्वारा उत्पन्न वृष्टि को अपने पंखों को फैलाकर रोक लिया और उल्कापात तथा ओला-वृष्टि को स्वयं सुखपूर्वक सहन किया है ॥ ३७-३८ ॥ इस प्रकार से विचार करके लोग वहाँ पर सुखपूर्वक रहे। उन्हें वहाँ रहते हुए ग्यारह दिन व्यतीत हो गये । हे द्विज व्यासजी ! बालक विनायक को बालकों के समूह के साथ खेलते हुए देखकर उन्ही विनायक द्वारा की गयी इस लीला को कोई भी नहीं जान सका ॥ ३९-४० ॥

तदनन्तर अन्धकासुर तथा अम्भासुर नामक उन दोनों दैत्यों की शक्ति क्षीण हो गयी और वे निश्चेष्ट हो गये। तब तुंग नामक दैत्य दिशाओं तथा विदिशाओं को निनादित करते हुए बहुत जोर से गरजा ॥ ४१ ॥ मैं पर्वत का रूप धारणकर इस पक्षी को क्षणभर में ही मार डालूँगा — ऐसा कहता हुआ वह तुंग नामक दैत्य उसी क्षण एक विशाल पर्वत बन गया। पाँच योजन विस्तार वाला वह पर्वत अनेक सरोवरों तथा नदियों से समन्वित था, वह पर्वत अपनी दिव्य औषधियों के द्वारा आकाश तथा दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था ॥ ४२-४३ ॥ उस पर्वत में विविध प्रकार के पक्षी थे तथा वह ब्राह्मणों के आश्रमों से सुशोभित था। तब वह पक्षिराज भी पंखयुक्त उस पर्वत को गिरता हुआ देखकर स्वयं भी उड़ते हुए घूमने लगा और उसने उस जल को रोक लिया तथा वह अपने पंखों की हवा से चराचर जगत् को घुमाने लगा ॥ ४४-४५ ॥ उस समय पर्वतों की चोटियाँ इधर-उधर भूमि में गिरने लगीं। पक्षीरूपी विनायक ने अपनी चोंच के द्वारा उस तुंग पर्वत को उसी प्रकार पकड़ लिया, जैसे कश्यप-पुत्र गरुड़ सर्प को पकड़ लेते हैं। उस पर्वत को पकड़े हुए पक्षीरूपी विनायक आकाश में घूम रहे थे। उन्होंने अपने एक पैर ( पंजे ) – से अन्धकासुर को तथा दूसरे पैर (पंजे)-से अम्भासुर को पकड़ रखा था ॥ ४६-४७ ॥

महान् पक्षीरूप वे विनायक उसी रूप में घूमते हुए भुवर्लोक को भी पार कर गये। वे दैत्य बहुत अधिक भ्रमण करा देने से अत्यन्त खिन्न हो गये और सूर्य की तेज किरणों द्वारा संतप्त हो गये ॥ ४८ ॥ पर्वत के समान विशाल वे तीनों असुर प्राणों से रहित हो जाने पर भूमि पर गिर पड़े। गिरते हुए उन्होंने अनेक वनों तथा उपवनों को चूर-चूर कर डाला ॥ ४९ ॥ उन दैत्यों के शरीरों को देखने के लिये स्त्रियों तथा बच्चों के साथ वहाँ के लोग नगरी के समीप में गये और उन्हें देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हुए ॥ ५० ॥ उन दैत्यों के शरीरों के टुकड़े चट्टानों के समान लग रहे थे। इस प्रकार दैत्यों की माया को देखकर सभी लोग अत्यन्त विस्मय में पड़ गये ॥ ५१ ॥

वहाँ से लौटने पर लोगों ने देवरूपी उस वटवृक्ष को नहीं देखा। वटवृक्ष के अन्तर्धान हो जाने पर बालक विनायक ने वह पक्षी का रूप भी त्याग दिया। तब काशिराज ने बालक विनायक का आलिंगन किया । नगर के निवासियों तथा स्वयं काशिराज ने उनसे कुशल- समाचार पूछा और परम प्रसन्नतापूर्वक उन विघ्ननाशक विनायक का पूजन किया । लोगों ने महर्षि कश्यपजी के पुत्र उन विनायक की बड़ी ही प्रसन्नता से प्रशंसा की ॥ ५२-५४ ॥

हे देव ! हम लोग उन दैत्यों द्वारा उत्पन्न की गयी उस महान् माया को नहीं जानते हैं और आपके सामर्थ्य तथा गुणों को भी हम नहीं जानते हैं, जिनका वर्णन करने में वेद भी कुण्ठित हो जाते हैं। आपने लीलापूर्वक हम सबकी रक्षा की है और महान् संकट से मुक्त कराया है। आँधी- तूफान समाप्त हो गया है, अनेक प्रकार के उत्पात दूर हो गये हैं तथा वृष्टि भी रुक गयी है । अन्धकार के विनष्ट हो जाने पर सूर्य का बिम्ब दिखायी दे रहा है। उस समय सभी लोगों के मन प्रसन्नता से खिल उठे ॥ ५५-५७ ॥ नदियाँ पहले की भाँति निर्मल जलवाली हो गयीं, जैसा पहले था, वैसा ही सब कुछ हो गया। देवताओं ने देवाधिदेव उन विनायक के ऊपर फूलों की वर्षा की ॥ ५८ ॥

विविध प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ सभी लोगों ने उस सुसज्जित काशीनगरी में प्रवेश किया । उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान यह कहते हुए दिया कि इस दान से विनायकदेव हमपर प्रसन्न हों ॥ ५९ ॥ काशिराज ने शान्तिहोम सम्पन्न करके बहुत-सा गोधन दान में दिया । तदनन्तर सभी को विसर्जित करके काशिराज ने विनायक के साथ स्वयं भी भोजन किया ॥ ६० ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘[अम्भासुर, अन्धकासुर तथा तुंगासुर नामक ] तीन दैत्यों के वध का वर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

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