September 28, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-021 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ इक्कीसवाँ अध्याय भ्रमरा राक्षसी का अदिति का रूप धारणकर बालक विनायक के पास आना, बालक विनायक द्वारा उसका वध, देवताओं आदि के द्वारा विनायक की स्तुति अथः एकविंशतितमोऽध्यायः बालचरिते राक्षसीवध ब्रह्माजी बोले — हे द्विज व्यासजी ! मेरे द्वारा कहे जाने वाले बालक विनायक के महान् आश्चर्यजनक चरित्र का आप श्रवण करें, वह मनुष्यों के सभी पापों को दूर करने वाला है। अम्भासुर का जो सिर कटकर उसके घर में जाकर गिरा था, उसे उसकी माता भ्रमरा की सखी ने देखा और भ्रमरा को बतलाया ॥ १-२ ॥ उस समय भ्रमरा सोने से बने पलंग पर सोयी थी, वह झट से उठकर आँगन में आयी और अपने पुत्र के सिर को देखकर मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी ॥ ३ ॥ शोक में निमग्न होकर वह अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटने लगी। उसके आभूषण गिरने लगे, वह हाथी के द्वारा कुचली हुई कमलिनी के समान खिन्न हो गयी। उसके हाथों के कंगन बिखर गये। उसकी चोली फट गयी, वह अत्यन्त दुर्बल-सी हो उठी। कपड़ों के बिखर जाने से उसका विशाल शरीर कुछ-कुछ नग्न-सा दिखलायी पड़ने लगा। वह विह्वल होकर भूमि पर लोट-पोट करने लगी ॥ ४-५ ॥ सखियों, भाइयों तथा स्वजनों के द्वारा वैसा करने से रोकी जाती हुई उसे तीन मुहूर्त बीत जाने पर होश आया और वह कुछ बोलने लगी। वह उठ पड़ी और अपने दोनों हाथों से पुनः अपना सिर पीटने लगी ॥ ६१/२ ॥ भ्रमरा बोली — जिसने अमरावतीसहित सम्पूर्ण पृथ्वी में भय उत्पन्न कर रखा था, जिसने अपनी भौंहों के कटाक्षमात्र से सहस्र सिरवाले शेषनाग को कम्पित कर रखा था, जिसने देवान्तक तथा नरान्तक को राज्य में अभिषिक्त किया, जिसके गर्जनमात्र से आकाश और पृथ्वी का मध्यभाग अत्यन्त कम्पित हो उठता था, वह मेरा पुत्र आज कैसे गिरा हुआ है अथवा किसने उसको कहाँ मारा है ? जिसको देखकर काल भी कम्पित हो उठता था, वह आज कैसे मृत्यु को प्राप्त हुआ ? ॥ ७–९१/२ ॥ इस प्रकार से वह भ्रमरा मृत बछड़े वाली गौ के समान दीन होकर विलाप करने लगी। इस प्रकारसे विलाप करती हुई उस भ्रमरा को उसकी सखियों ने रोका और कहा — हे सखी! मरे हुए व्यक्ति के साथ उसके स्वजनों की मृत्यु को किसी ने भी नहीं देखा है ॥ १०-११ ॥ अत्यन्त शोक करने से मूढ़जनों को दूसरा नया शोक प्राप्त हो जाता है, यदि तुम स्नेहवश पुत्र के निमित्त शोक करती हो, तो उसका जो हितकर कार्य हो, उसे सम्पन्न करो। इस मृत पुत्र के विषय में जानने के लिये दूतों को प्रेषित करो। मन्त्रों के साथ इसके मस्तक का दाह करो, इस प्रकार से इसके हित के कार्यों को करो । बन्धु-बान्धवों की आँखों से गिरते हुए आँसू उस प्रेत के मुख में पड़ते हैं तथा उस प्रेत को दाह पहुँचाते हैं, अतः उस समय रोना नहीं चाहिये, ऐसा श्रेष्ठ ऋषियों का कथन है ॥ १२-१४ ॥ उनके ऐसे वचनों को सुनकर क्रुद्ध होकर वह भ्रमरा सखी से बोली — ‘हे महाभाग्यशालिनि सखी! पुत्र के इस सिर को प्रयत्नपूर्वक सुरक्षित रखो, मैं अदिति पुत्र (विनायक) – के मस्तक को लाऊँगी और उसी के साथ अपने पुत्र के सिर का दाह करूँगी। अतः तुम इसे तेल के अन्दर रखो’ ॥ १४–१६ ॥ वह राक्षसी भ्रमरा अपना रूप छिपाकर पराक्रमी राक्षसों को साथ लेकर उस बालक विनायक को मार डालने की इच्छा से काशिराज की पुरी काशीनगरी में उसी प्रकार गयी, जैसे कोई पतंगे की पुत्री (छोटा पतिंगा) अग्नि के समीप में जाती है ॥ १७ ॥ वह भ्रमरा अदिति का रूप बनाकर दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वहाँ आयी। वह अत्यन्त सौन्दर्य का निधान थी, सभी प्रकार के अलंकारों से सुशोभित थी । उसकी दन्तपंक्ति दाडिम के बीजों के समान थी, उसके अधर विम्बाफल के समान लालवर्ण के थे, उसका कटिदेश अत्यन्त क्षीण था, उसके नेत्र प्रफुल्लित कमल के समान दिखायी दे रहे थे, उसका वक्षःस्थल मोतियों की माला से सुशोभित हो रहा था ॥ १८-१९ ॥ राजभवन में आयी हुई उस प्रकार की सुन्दरी को देखकर वहाँ के वीर अत्यन्त मुग्ध हो उठे। वे उसका सान्निध्य और प्रीति प्राप्त करने की मन में कामना करने लगे। दूसरे लोग यह तर्क-वितर्क करने लगे कि क्या यह रम्भा अप्सरा है या तिलोत्तमा है, मेनका है या घृताची है, नागकन्या, यक्षकन्या अथवा क्या साक्षात् पार्वती है ? यह क्या उर्वशी, कामदेव की पत्नी रति, कोई रानी अथवा महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति तो नहीं है ? काशिराज की रानी ने उसे अदिति समझकर प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया ॥ २०-२२ ॥ अनेक प्रकार के सौभाग्यद्रव्यों तथा वस्त्र एवं अलंकारों से रानी ने उसकी पूजा की, तदनन्तर अत्यन्त मनोहर अंगोंवाली रानी ने प्रेम से गद्गद वाणी में उससे कहा — हे देवमाता! मैंने महान् भाग्य से ही तुम्हारा दर्शन प्राप्त किया है। विनायक की कृपा से ही ऐसा हो सका है, नहीं तो तुम्हारा दर्शन प्राप्त होना कैसे सम्भव था ॥ २३-२४ ॥ इस प्रकार से कहती हुई काशिराज की पत्नी से आँसू बहाते हुए उस (भ्रमरा) – ने गद्गद वाणी में कहा — ॥ २४१/२ ॥ अदिति (-रूपा भ्रमरा) बोली — मेरे बालक विनायक को तुमने बहुत दिनों से अपने पास रखा है, इस समय वह कहाँ है ? हे सुन्दर भौंहोंवाली ! उसको देखने की अत्यन्त उत्कण्ठा से मैं यहाँ आयी हूँ । स्त्रियों का स्वभाव तो तुम जानती ही हो, उनका चित्त मोह-माया से अत्यन्त व्याकुल रहता है ॥ २५-२६ ॥ मेरा शरीर उसके वियोगजन्य शोक से अत्यन्त संतप्त हो रहा है, मैं अपने उस बालक का आलिंगन करना चाहती हूँ, उसके स्पर्श से मेरे अंग शीतल हो जायँगे और मैं उत्तम सन्तोष को प्राप्त कर लूँगी ॥ २७ ॥ उसके इस प्रकार के वचनों को सुनकर उसके प्रति सम्मान का भाव दिखलाती हुई रानी ने बड़ी शीघ्रता से उस बालक को खोजने के लिये दूतों को प्रेषित किया। कुछ दूसरे लोगों ने काशिराज को बतलाया कि महर्षि कश्यपजी की भार्या यहाँ आयी हुई हैं। वे स्नान करके घर में आये और उसे देखकर अत्यन्न प्रसन्न हुए ॥ २८-२९ ॥ अत्यन्त श्रद्धाभक्ति के साथ हाथ जोड़कर प्रणामकर राजा बोले — ‘आज मेरा जन्म लेना धन्य हो गया, मेरी विद्या धन्य हो गयी, मेरी दृष्टि, मेरा राज्य, मेरे माता-पिता और मेरा तप धन्य हो गया। मैंने आज देवताओं की माता, संसार को उत्पन्न करने वाली शक्तिस्वरूपा का दर्शन किया है। आपके गुणों का सम्यक् रूप से वर्णन करने की मेरी शक्ति नहीं है ॥ ३०-३१ ॥ आपका यह बालक विनायक इन्द्र से भी अधिक बलशाली है। उसने अनेक प्रकार के प्रशस्त कर्म किये हैं और अनेकों राक्षसों का वध किया है। उस बालक विनायक के गुणों का वर्णन करने में मेरी अल्प सामर्थ्य अवश्य ही समर्थ नहीं है ॥ ३२-३३ ॥ हे माता ! आप क्षणभर यहाँ विश्राम करें। आज मेरे महान्से भी महान् भाग्यका उदय हुआ है। इसने योगमायाके प्रभावसे अनेकों दानवोंका वध किया है, किंतु इसके शरीरमें बिलकुल भी चोट नहीं लगी। आपका यह बालक यहाँ सुखपूर्वक रह रहा है। किस कारण से आपका यहाँ आगमन हुआ है, आप यहाँ आ ही गयी हैं तो अब क्षणभरके लिये यहाँ रुकें । पुत्र का विवाह सम्पन्न हो जाने पर मैं आप दोनों को आपके घर पहुँचा दूँगा’ ॥ ३४–३५१/२ ॥ वह बोली — हे राजन् ! आप यह क्या बोल रहे हैं, इसके वियोग से मुझे महान् दुःख हुआ है, मुझे कहीं भी कुछ भी सुख नहीं मिला है ॥ ३६११/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब वह ऐसा कह ही रही थी कि उसी समय वे बालक विनायक वहाँ आ पहुँचे ॥ ३७ ॥ सभी बालकों ने विनायक को यह कहकर भेजा कि तुम्हारी माता आयी हुई हैं। तदनन्तर आँखों में आँसू भरी हुई उस भ्रमरा ने बालक विनायक का आलिंगन किया और प्रसन्नतापूर्वक बोली — ॥ ३८ ॥ हे अतिनिष्ठुर बालक! तुम मुझे छोड़कर चिरकाल से यहाँ रह रहे हो, तुम्हारे वियोग से मैं अत्यन्त कष्ट में हूँ और सब कुछ छोड़कर यहाँ आयी हूँ ॥ ३९ ॥ मैंने अपने जीने की आशा छोड़कर तुम्हें प्राप्त करने के लिये तपस्या की थी। मैंने बड़े ही कष्ट से तुम्हें प्राप्त किया है, मेरे उन कष्टों को भगवान् ही जानता है। तुम्हारे बिना मेरे लिये एक क्षण का समय भी युग के समान हो गया था ॥ ४०१/२ ॥ इस प्रकार से उस भामिनी ने अत्यन्त दुष्ट भाव से बड़े ही मधुर शब्दों में उनसे कहा । तदनन्तर अत्यन्त स्नेह के वशीभूत हो उसने बालक विनायक को अपने कटिदेश में बैठाया, बालक विनायक ने भी उसके प्रयत्नों को जानकर उसके अपराध को समझते हुए अपने गूढ़ अभिप्राय से उससे पहले यह कहा कि तुम मेरे लिये क्या लायी हो ? उसके इस प्रकार कहते ही उसने बालक विनायक को एक लड्डू प्रदान किया ॥ ४१-४३ ॥ उस लड्डू के खा जाने पर उसने महान् विष मिला हुआ दूसरा लड्डू बालक को खाने के लिये दिया। उस लड्डू को भी खा जाने पर बालक विनायक ने बलपूर्वक उससे एक और लड्डू माँगा ॥ ४४ ॥ तदनन्तर काशिराज और उनकी भार्या ने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा — ‘हे मातः ! उठिये – उठिये, इस बालक के साथ आप भोजन कीजिये ।’ जब वह उठने को हुई तो बालक विनायक ने पर्वतराज हिमालय के समान भारी शरीर वाला बनकर उसे जोर से दबा दिया, इससे वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी ॥ ४५-४६ ॥ वह कहने लगी ‘अरे बालक! मुझे छोड़ो-छोड़ो, मैं तो तुम्हारी माता हूँ। मैं स्नेह के पाश में बँधी हुई बहुत समय के बाद तुम्हें देखने तुम्हारे पास आयी हूँ ॥ ४७ ॥ तुम मुझे एक पर्वत के समान दबाकर क्यों चूर-चूर करने में लगे हो ?’ वह अपने हाथों से बालक को हटाने लगी, किंतु वह बालक विनायक उस समय सो गया और अपने हाथों तथा पैरों को फैलाकर जोर-जोर से श्वास लेने तथा छोड़ने लगा। तदनन्तर काशिराज ने भार से दबी हुई उस व्याकुल स्त्री को उठने से रोका ॥ ४८-४९ ॥ इस बालक की निद्रा इतनी जल्दी भंग मत करो, आप तो इसकी स्नेहमयी माता हैं, उस समय कुछ दूसरे लोगों ने दया करके उस बालक को अन्यत्र सुलाने के लिये उठाने का निश्चय किया। उस समय कोई भी उस बालक को न उठाने में समर्थ हुआ, न हिलाने-डुलाने में ही। कुछ दूसरे लोग उस कमललोचन बालक विनायक की प्रार्थना करने लगे ॥ ५०-५१ ॥ ‘अरे बालक! दया करो, तुम्हारी ये माता मर जायगी।’ वह स्त्री अपने पैरों, हाथों तथा गरदन को हिलाने लगी। लोग बोल उठे — ‘अरे बालक ! यह तुम क्या कर रहे हो, अपने पिता से तुम क्या कहोगे ?’ लोग ऐसा कह ही रहे थे कि वह निशाचरी मृत्यु को प्राप्त हो गयी ॥ ५२-५३ ॥ उसकी देह ने दस योजन की भूमि को आच्छादित कर लिया। उस अत्यन्त भयानक निशाचरी को देखकर कुछ लोग भाग उठे। कौतूहलभरे कुछ लोग उसे देखने के लिये दौड़ पड़े। उस निशाचरी को देखकर सभी लोग तथा काशिराज भी आश्चर्यचकित हो गये ॥ ५४-५५ ॥ बालकों की हत्या कर डालने वाली यह निशाचरी कपटवेष धारणकर कैसे यहाँ आ पहुँची ? हम लोग तो इसे महर्षि कश्यप की पत्नी ही समझ रहे थे, न कि राक्षसी! इस बालक के अद्भुत ज्ञान तथा सामर्थ्य को हमने देख लिया — ऐसा कहते हुए वे सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक उन (विनायक)-के समीप में गये ॥ ५६-५७ ॥ उस निशाचरी के ऊपर बैठे बालक विनायक को उठाकर वे कहने लगे, ‘यह तो फूल के समान भारवाला ‘है’, साथ ही वे यह भी बोले कि ‘इस दुष्ट स्वरूपवाली दुष्ट निशाचरी को यहाँ से दूर हटाओ । जो दूसरे के अनिष्ट की कामना करता है, वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त होता है।’ ॥ ५८१/२ ॥ तदनन्तर काशिराज एवं अन्य जनों ने तथा ऋषियों एवं लोकपालों ने भी विनायकदेव की भक्तिपूर्वक स्तुति की ॥ ५९ ॥ ऋषयो लोकपालाश्च भक्त्या देवं विनायकम् । नाथस्त्वमसि देवानां मनुष्योरगरक्षसाम् ॥ ६० ॥ यक्षगन्धर्वविप्राणां गजाश्वरथपक्षिणाम् । भूतभव्यभविष्यस्य बुद्धीन्द्रियगणस्य च ॥ ६१ ॥ हर्षस्य शोकदुःखस्य सुखस्य ज्ञानमोहवोः । अर्थस्य कार्यजातस्य लाभहान्योस्तथैव च ॥ ६२ ॥ स्वर्गपाताललोकानां पृथिव्या जलधेरपि । नक्षत्राणां ग्रहाणां च पिशाचानां च वीरुधाम् ॥ ६३ ॥ वृक्षाणां सरितां पुंसां स्त्रीणां बालजनस्य च । उत्पत्तिस्थिति संहारकारिणे ते नमो नमः ॥ ६४ ॥ पशूनां पतये तुभ्यं तत्त्वज्ञानप्रदायिने । नमो विष्णुस्वरूपाय नमस्ते रुद्ररूपिणे ॥ ६५ ॥ नमस्ते ब्रह्मरूपाय नमोऽनन्तस्वरूपिणे । मोक्षहेतो नमस्तुभ्यं नमो विघ्नहराय ते ॥ ६६ ॥ नमोऽभक्तविनाशाय नमो भक्तप्रियाय च । अधिदैवाधिभूतात्मन् तापत्रयहराय ते ॥ ६७ ॥ सर्वोत्पातविघाताय नमो लीलास्वरूपिणे । सर्वान्तर्यामिणे तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय ते नमः ॥ ६८ ॥ अदित्या जठरोत्पन्न विनायक नमोऽस्तु ते । परब्रह्मस्वरूपाय नमः कश्यपसूनवे ॥ ६९ ॥ अमेयमायान्वित विक्रमाय मायाविने मायिकमोहनाय । अमेयमायाहरणाय मायामहाश्रयायास्तु नमो नमस्ते ॥ ७० ॥ सभी बोले — हे देव विनायक ! आप देवताओं, मनुष्यों, नागों, राक्षसों, यक्षों, गन्धर्वों, ब्राह्मणों, हाथियों, घोड़ों, रथों तथा पक्षियों के एकमात्र स्वामी हैं। भूतकाल, भविष्यत् तथा वर्तमान – तीनों कालों, बुद्धि, समस्त इन्द्रियों, हर्ष, शोक, दुःख, सुख, ज्ञान, मोह, अर्थ, समस्त कार्यों और हानि तथा लाभ के आप ही स्वामी हैं। स्वर्ग, पाताल आदि लोकों, पृथ्वी, समुद्र, नक्षत्रों, ग्रहों, पिशाचों, लताओं, वृक्षों, नदियों, समस्त पुरुषों एवं स्त्रियों और बालकों के स्वामी आप ही हैं। सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने वाले आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ६०–६४ ॥ पशुओं के पति आपको नमस्कार है, तत्त्व का ज्ञान प्रदान करने वाले आपको नमस्कार है। विष्णुस्वरूप आपको नमस्कार है, रुद्ररूप आपको नमस्कार है ॥ ६५ ॥ ब्रह्मारूप आपको नमस्कार है । अनन्त स्वरूपवाले आपको नमस्कार है। मोक्ष के कारणरूप आपको नमस्कार है । विघ्नों का हरण करने वाले आपको नमस्कार है ॥ ६६ ॥ अभक्तों का विनाश करने वाले आपको नमस्कार है। भक्तों को प्रिय लगने वाले अथवा भक्तों को प्रिय मानने वाले आपको नमस्कार है । हे अधिदैव! हे अधिभूतात्मन् ! आप तीन प्रकार के तापों का हरण करने वाले को नमस्कार है। सभी प्रकार के उपद्रवों को विनष्ट करने वाले तथा लीलास्वरूप धारण करने वाले को नमस्कार है। आप सर्वान्तर्यामी को नमस्कार है। आप सर्वाध्यक्ष को नमस्कार है ॥ ६७-६८ ॥ देवी अदिति के गर्भ से उत्पन्न हे देव विनायक ! आपको नमस्कार है । परब्रह्मस्वरूप महर्षि कश्यप के पुत्र को नमस्कार है। अप्रमेय माया से समन्वित पराक्रमवाले, मायास्वरूपी, मायायुक्त जनों को मुग्ध करने वाले, अपरिमित माया का विनाश करने वाले और माया के महान् आश्रयस्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ६९-७० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से स्तुति करने के अनन्तर उस राक्षसी को काटकर टुकड़े-टुकड़े करके नगर से दूर ले जाकर फेंककर वे सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घरों को गये । हे अनघ! तीनों प्रकार के उपद्रवों को नष्ट करने वाले इस स्तोत्र का जो पाठ करता है, उसको महान् उत्पात, विघ्नबाधा तथा भूतों से भय नहीं होता। जो तीनों सन्ध्याओं में इस स्तोत्र को पढ़ता है, वह सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और देव विनायक सदा उसकी रक्षा करते हैं ॥ ७१-७३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘अदितिरूपा राक्षसी के वध का वर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ Content is available only for registered users. 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