श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-022
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बाईसवाँ अध्याय
काशीनगरी के निवासियों तथा शुक्ल नामक ब्राह्मण द्वारा विनायक को अपने-अपने घर ले जाने के लिये राजा से प्रार्थना करना और स्वीकृति प्राप्तकर विनायक के स्वागत की तैयारी करना
अथः द्वाविंशतितमोऽध्यायः
बालचरिते विद्रुमाशुक्लनिष्ठगणेशभक्तिनिरुपणं

ब्रह्माजी बोले — दूसरे दिन की बात है, जब काशीनरेश प्रातःकालीन स्नान-सन्ध्या आदि नित्यकर्मों में लगे हुए थे, उस समय सभी नगरवासी आपस में यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये विनायक न तो देवता हैं और न मनुष्य ही हैं अथवा यदि ये देवता न होते तो इन्होंने इन्द्र तथा विष्णु के द्वारा भी अजेय तथा अन्य देवताओं के लिये भी सर्वथा अपराजेय पाँच महान् बल- शाली एवं पराक्रमी दैत्यों का वध कैसे किया ? ॥ १-२ ॥ यदि ये देवता ही हैं, तो [बालक बनकर ] बालकों के मध्य क्रीडा कैसे कर रहे हैं ? इस प्रकार तर्क-वितर्क करके वे सभी पुरवासी राजा के दर्शन के लिये आये । राजा ने भी भद्रासन में विराजमान होकर उन सभी से कहा —‘आप लोगों का जो कार्य हो, उसे बतायें, वह निश्चित ही पूर्ण होगा ॥ ३-४ ॥ हे नगरनिवासियो ! आप लोग प्रातःकाल ही किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं?’ इस पर वे बोले — ‘हमारे निवेदन योग्य अभीष्ट के अतिरिक्त और अन्य कारण आने का नहीं है। आप जिन मुनिपुत्र विनायक को यहाँ लाये हैं, हमारे द्वारा कहीं भी, कभी भी कुछ भी उनकी सेवा-शुश्रूषा नहीं हो सकी है ॥ ५-६ ॥ आपने तो अपने घर में स्थित उनकी अनेक बार पूजा की है, आपके घर में जो कुछ भी आता है, उसे आप हमारे घर [भी] भेज देते हैं, किंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि हे राजन्! फिर आपने इन विनायक को क्यों नहीं हमारे पास भेजा ? ‘ ॥ ७१/२

राजा बोले — हे नागरिको! आप लोगों ने ठीक ही कहा है कि जो वस्तु आपस में बाँटकर खायी जाती है, वह यदि विष भी हो तो अमृत के समान हो जाती है। इसके विपरीत अकेले खाने पर अमृत भी विष हो जाता है। ये चाहे देवता हों या मनुष्य, इनपर जिसकी भक्ति है, वह इन्हें अपने घर ले जाकर इनकी पूजा करे और इन्हें भोजन भी कराये ॥ ८- ९१/२

हे नागरिको! सत्त्व, रज तथा तम- इन तीनों गुणों के आधार पर लोग सात्त्विक, राजस तथा तामस तीन प्रकार के होते हैं। जो दुष्ट लोग हैं, वे देवताओं की परीक्षा लेते हैं और जो पुण्यात्मा होते हैं, वे उनकी पूजा करते हैं। कुछ लोग इन विनायक की निन्दा करते हैं और कुछ इनकी प्रशंसा करते हैं ॥ १०-११ ॥ जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता है, वह वैसा ही व्यवहार करता है। जैसे घिसे जाने पर भी चन्दन अपने सुगन्धरूपी स्वभाव को नहीं छोड़ता है और कस्तूरीपंक से सना होने पर भी प्याज अपने स्वाभाविक दुर्गन्ध को नहीं छोड़ता । इन मुनिपुत्र पर यदि आपकी अनन्य भक्ति हो तो अपनी प्रसन्नता के लिये तथा इन्हें भोजन कराने के लिये शीघ्र ही अपने घर ले जायँ और इनकी पूजा करें। इन्हें शक्ति- परीक्षण के लिये अपने घर ले जायँ, ये मेरे माता-पिता के समान हैं ॥ १२-१४ ॥ मैं लोगों से कैसे कहूँ कि वे इन्हें अपने घर ले जाकर इनकी पूजा करें। इनकी दृढ़ शक्ति देखकर मेरी इनपर विशेष भक्ति हो गयी है । यदि इन्होंने मेरे नगर की रक्षा न की होती तो कहाँ आप होते और कहाँ मैं ? ॥ १५१/२

राजा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर नगर के लोग पुनः बोले — हे कल्याणकर्ता राजन् ! आप जैसा कह रहे हैं, वह ठीक ही है, अनुचित नहीं है। हे राजन्! हमारी कार्यसिद्धि जिस प्रकार हो, आप वैसा ही करें ॥ १६-१७ ॥ हम लोग इस बालक को अपने घर ले जाकर इसकी यथायोग्य पूजा करेंगे। इसी बीच संसार के गुरुरूप सबके साक्षीस्वरूप वे बालक विनायक उन सबके अन्तर्भाव को जानते हुए सभा में स्थित उन लोगों से बोले —॥ १८१/२

विनायक बोले — आप- जैसे महान् लोग मुझे ले जाने के लिये क्यों प्रार्थना कर रहे हैं? मैं मुनि का पुत्र एक सामान्य बालक हूँ। मेरी पूजा के लिये बहुत-सा धन व्यय करने वाले आप लोगों को मेरी पूजा से क्या फल मिलेगा, इसे मैं नहीं जान पा रहा हूँ ॥ १९-२० ॥ जब कभी विवाह, यज्ञोपवीत, यज्ञ अथवा कोई महोत्सव होगा या देवकार्य अथवा पितृकार्य होगा, तब मैं आप लोगों के घर चलूँगा ॥ २१ ॥ आप लोग असंख्य हैं और मैं अकेला हूँ, फिर मैं आप सबके घर कैसे जा सकता हूँ? आप जैसे लोग दूध देने वाली गाय को छोड़कर जिस गौ ने दूध देना बन्द कर दिया है, ऐसी वकेशिनी गौ को क्यों दुहना चाहते हैं ? जिस प्रकार माँगने वाला कोई व्यक्ति कल्पवृक्ष को छोड़कर सामान्य वृक्ष से अपनी मनोभिलषित वस्तु को माँगे अथवा कोई तुच्छ वस्तु माँगे, उसी प्रकार आपलोग भी उत्सुक हो रहे हैं ॥ २२-२३ ॥

ब्रह्माजी बोले — विनायक के वचनों को सुनकर प्रधान-प्रधान नागरिक पुनः कहने लगे । राजा के पुत्र के इस विवाह सम्पन्न हो जाने पर आप एक क्षण भी यहाँ नहीं रुकेंगे। राजा की कृपा से हमें आपका दर्शन हुआ है, अब आप हमारी भक्ति को सफल बनायें। आप सर्वथा पूर्णकाम हैं, सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने वाले हैं, सर्वान्तर्यामी हैं, सबकी मनोवृत्ति को जानने वाले हैं, कर्तुं (करने में) अकर्तुं (न करने में) एवं सर्वथा अन्यथाकर्तुं (विपरीत करने में) समर्थ हैं, फिर आप चिदानन्द को हमारे द्वारा की गयी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है । ‘देव विनायक’ भक्तिप्रिय हैं, वेदों के इस वचन को आप मिथ्या न करें ॥ २४-२७ ॥

उन नागरिक जनों के वचनों को सुनकर विनायक उनसे बोले — ‘आप लोगों की यदि ऐसी भक्ति है, तो मैं राजा की आज्ञा मिलने पर आप लोगों के घर चलूँगा’ ॥ २८ ॥

विनायक की यह बात सुनकर वे सभी नगरवासी अपने-अपने घर को चले गये। घर पहुँचकर किसी ने विनायक के स्वागत के लिये मण्डपों का निर्माण किया, किसी ने वस्त्रों से आच्छादितकर [विशेष प्रकार के] मण्डप बनाये। उन्होंने श्रद्धा-भक्ति से तोरण द्वार बनाये, जो दर्पणों से सुशोभित तथा अद्भुत थे। अत्यन्त मूल्यवान् पात्र, सुगन्धित द्रव्य, चन्दन- कस्तूरी से युक्त सुगन्धित द्रव्य, फल तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण और पंचामृत से समन्वित विविध पक्वान्न वहाँ स्थापित किये। साथ ही विविध प्रकार की मुक्ता की मालाओं से विभूषित मूर्तियों को भी वहाँ स्थापित किया। इस प्रकार सभी लोग इन सामग्रियों को अपने घरों में सुसज्जितकर अत्यन्त प्रफुल्लित थे ॥ २९-३२१/२

काशीनगरी की सीमा के पास वेद-शास्त्रों के ज्ञाता एक ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम शुक्ल था। उनकी वृत्ति – आजीविका अत्यन्त पवित्र थी । वे शान्त प्रकृति के, इन्द्रियों पर संयम रखने वाले, क्षमाशील, श्रौत तथा स्मार्तकर्मों में परायण और ब्रह्मनिष्ठ थे, अतिथियों का सत्कार करना उन्हें अत्यन्त प्रिय था ॥ ३३-३४ ॥ उनकी पत्नी का नाम विद्रुमा था, जो महाभाग्य-शालिनी थीं, वे सब प्रकार की इच्छाओं से रहित और ज्ञान से सम्पन्न थीं। उनके शरीर के सभी अंग बहुत ही सुन्दर थे ॥ ३५ ॥ धन से हीन होने पर भी वे ज्ञाननिष्ठ थीं । पतिव्रता थीं और पति को प्राणों से भी अधिक प्रिय मानने वाली थीं। उनके घर से ऊपर की ओर देखने पर ताराओं से सुशोभित आकाशमण्डल स्पष्ट दिखलायी पड़ता था ॥ ३६ ॥ उनके गृह में सोने, चाँदी, ताँबे तथा पीतल के पात्र नहीं थे। विद्रुमा गौरवर्ण की थीं, वे वल्कल वस्त्रों को धारण करने वाली तथा तेज की दीप्ति से अत्यन्त सुशोभित रहती थीं। उनकी देहकान्ति से व्याप्त रहने के कारण दृश्यमान वस्तु भी दिखलायी नहीं पड़ती थी। अपने पति की सामान्य- सी आजीविका से सन्तुष्ट वे विद्रुमा घर की शोभा को बढ़ानेवाली थीं ॥ ३७-३८ ॥ शुक्ल नाम के वे ब्राह्मण अपनी पत्नी की सन्तोष की प्रवृत्ति तथा उसके विनयी स्वभाव और सेवासे बहुत प्रसन्न रहते थे। वे भोजन से रहित होने पर भी अपनी आत्मा में स्थित तथा ज्ञाननिष्ठ रहते थे ॥ ३९ ॥

एक बार जब वे भिक्षा के लिये निकले तो विनायक के निमित्त महोत्सव में संलग्न रहने के कारण। लोगों ने उन्हें अपने-अपने घर से वापस लौटा दिया ॥ ४० ॥ उन्हें भिक्षा में जो कुछ भी मिला, उसी से सन्तुष्ट हुए उन्होंने अपनी भार्या से आकर कहा — ‘हे धर्मपत्नी ! सुनो, आज नगरी के प्रत्येक घर में मैं भिक्षा दिये बिना ही लौटा दिया गया ॥ ४१ ॥ पृथ्वी का भार हरण करने के लिये उद्यत जो विनायक मुनि कश्यप के घर में अवतरित हुए हैं, वे ही आज पूजा ग्रहण करने के लिये प्रत्येक घर में आयेंगे ॥ ४२ ॥ यदि वे पूजा ग्रहण करने के लिये हमारे घर भी आयेंगे तो तुम उनकी पूजा की व्यवस्था करो।’ इस पर विद्रुमा बोली — ‘दूसरे घरों में महान् पूजा को छोड़कर वे आपके घर में अन्न ग्रहण करने कैसे आयेंगे ? ॥ ४३ ॥ अथवा आप-जैसे नितान्त निर्धनों के घर में वे कैसे आयेंगे, हे मुने! गन्ध, पुष्प, बासी पक्वान्न, कन्दमूल, फल आदि जो कुछ भी अल्प मात्रा में उचित – अनुचित होगा, उसी से उनका सत्कार किया जायगा अथवा हे प्रभो! उनका आपके घर में आने का क्या प्रयोजन हो सकता है?’ ॥ ४४-४५ ॥

अपनी प्रिय पत्नी विद्रुमा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वे मुनि पुनः अपनी पत्नी से बोले — ‘दीनों तथा अनाथों के स्वामी वे प्रभु विनायक मुझे अपना भक्त समझते हैं। वे देव विनायक भक्तिप्रिय हैं, वे प्रभु तनिक भी लोभ के वशीभूत नहीं होते। वे जल, पत्र- पुष्प से ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४६-४७ ॥ दम्भपूर्वक समर्पित की गयी सुवर्ण की अकूत धनराशि से भी वे प्रसन्न नहीं होते।’ पति के ऐसे वचन सुनकर विद्रुमा ने पुनः कहा— ॥ ४८ ॥

यदि ऐसी बात है तो जो कुछ पकाया गया अन्न है, वही उन्हें निवेदित करें। तब विद्रुमा ने अठारह प्रकार के धान्यों को पीसकर उसे पकाया ॥ ४९ ॥ पुराने चावलों का अधिक जलवाला भात बनाया। वे प्रतिदिन एक मुट्ठीभर आटे को दोने में रखकर शेष का भोजन बनाकर उसे ग्रहण करती थीं ॥ ५० ॥ प्राप्त धन से वे वस्त्र खरीदकर लायीं। गन्ध, अक्षत, पुष्प, प्रतिदिन मुट्ठीभर बचाये गये उस आटे को बेचकर धूप, दीप, महाआरती, वन्य फल तथा वल्कल वस्त्रों को उन्होंने एक स्थान पर स्थापित किया । भोजन के अनन्तर मुख को सुगन्धित करने के लिये उन्होंने सूखे आँवले के टुकड़ों को भी रखा ॥ ५१-५२ ॥ जल से अच्छी प्रकार सींचे गये अपने आँगन में उन्होंने कुशों को फैलाकर ध्वज की स्थापना की और आसन को बिछाया। तदनन्तर वे मुनि सर्वप्रथम नैवेद्य को स्थापित करके बलिवैश्वदेव करने के अनन्तर ध्याननिष्ठ हो गये ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

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