October 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-033 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तैंतीसवाँ अध्याय प्रियव्रत की पत्नी कीर्ति द्वारा शमीपत्रों से विनायक का पूजन, स्वप्न में कीर्ति को अनेक वरदानों की प्राप्ति, वरदान के प्रभाव से राजा प्रियव्रत का कीर्ति को धर्मपत्नी रूप में स्वीकार कर लेना, यथासमय कीर्ति को ‘क्षिप्रप्रसादन’ नामक पुत्र की प्राप्ति और सपत्नी द्वारा उसे विष देना, महर्षि गृत्समद द्वारा पुत्र को जिला देना, शमी का माहात्म्य अथः त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः बालसञ्जीवनं ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से राजा प्रियव्रत की वह ज्येष्ठ भार्या कीर्ति प्रतिदिन उन विनायक की पूजाकर उनकी स्तुति करने लगी। एक दिन की बात है, उसकी सखियाँ दूर्वा लेने के लिये वहाँ आयीं ॥ १ ॥ ज्येष्ठमास होने के कारण उन्होंने कहीं भी शुभ दूर्वांकुरों को प्राप्त नहीं किया। अतः वे बहुत-से शमीपत्रों को लेकर उसके पास आयीं। वे बहुत थककर लौटी थीं, उन्होंने कीर्ति को बतलाया कि दूर्वा कहीं भी नहीं मिल पायी, अतः तुम सभी उपचारों के साथ इन शमीपत्रों से विनायक की पूजा करो ॥ २-३ ॥ दूर्वा न मिलने से उस दिन वह निराहार रहकर अपने नियम-परायण रही। शमीपत्रों के अर्पण करने से उन विनायक को परम सन्तुष्टि प्राप्त हुई ॥ ४ ॥ उस दिन वह कीर्ति विनायकदेव के समक्ष ही सो गयी। इसी प्रकार पूजन करते हुए जब उसे एक वर्ष व्यतीत हो चुका तो वर्ष के पूरा होने पर उसने एक अत्यन्त अद्भुत स्वप्न देखा कि वही विनायक की मूर्ति उससे इस प्रकार बोली — हे सुभ्रु ! तुम्हारे द्वारा शमीपत्रों से पूजित होने के कारण मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ, मैं तुम्हें वर प्रदान करती हूँ। जब वह कीर्ति कुछ नहीं बोली तो वही विनायकमूर्ति पुनः उससे बोली — ॥ ५-६ ॥ मूर्ति बोली — तुम्हारा पति तुम्हारे अनुकूल हो जायगा, तुम अत्यन्त शुभ भोगों को प्राप्त करोगी। तुम्हारा एक महाबलशाली पुत्र होगा, जो मुझमें भक्ति रखने वाला होगा। तुम उसका ‘क्षिप्रप्रसादन’ यह सुन्दर नाम रखना । चौथे वर्ष में विष के द्वारा उसकी मृत्यु हो जायगी, किंतु तत्क्षण ही गृत्समद नामक द्विज वहाँ उपस्थित होकर उसे पुनः जीवित कर देंगे । क्षिप्रप्रसादन नामक वह पुत्र राज्यकर्ता, धर्मपरायण तथा चिरायु होगा ॥ ७–९ ॥ मुझे सन्तोष प्रदान करने वाले इस (तुम्हारे द्वारा किये गये) स्तोत्र का जो पाठ करेगा, राजा भी उसके वश में हो जायगा, फिर दूसरे किसी सामान्य जन की क्या बात है! ॥ ७–१० ॥ इस स्तोत्र का पाठ करने वाला पुत्रवान्, धनसम्पन्न और वेद-वेदांग का पारगामी विद्वान् हो जायगा । उसकी बुद्धि बढ़ेगी और मेधाशक्ति भी वृद्धि को प्राप्त होकर अत्यन्त दृढ़ हो जायगी। जो तीनों सन्ध्याकालों में इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह अपने सभी अभिलषित पदार्थों को प्राप्त कर लेगा, उसकी मुझमें दृढभक्ति हो जायगी और वह अन्त में मोक्ष को प्राप्त करेगा ॥ ११-१२ ॥ स्वप्न में इस प्रकार के वरों को प्रदान करके देव विनायक क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। कीर्ति जग पड़ी और उसकी आँखों में आँसू भर गये। आश्चर्यचकित हो वह मन-ही-मन कहने लगी कि दीनानाथ भगवान् विनायक ने मेरे ऊपर महान् कृपा की है। उन्होंने जो मुझे साक्षात् दर्शन ‘दिया, यह मुझपर महान् अनुग्रह है ॥ १३-१४ ॥ सभी प्राणियों पर कृपा करने वाले उन देव विनायक ने अत्यन्त आदर के साथ आज मेरी रक्षा की है ॥ १५ ॥ यही परम सिद्धि है, यही परम तप है, यही परम लाभ है, जो कि उन देव ने मेरे साथ वार्ता की है ॥ १६ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर प्रभातकाल में उसने स्नान किया । वह परम आनन्द में भरी हुई थी। उसने अत्यन्त श्रद्धाभक्ति के साथ वरदायी शुभ भगवान् गणेश का पूजन किया। उसने अपना व्रत पूर्णकर गणेशजी की मूर्ति को पूर्व वाले स्थान पर स्थापित किया और पुरोहित को बुलाकर भक्तिपूर्वक गणेशजी का पूजन किया ॥ १७-१८ ॥ गणेशजी का मन से ध्यान करते हुए कीर्ति उनके नाममन्त्र का जप करने लगी और वह उनके द्वारा प्रदत्त वरों का स्मरण करते हुए समय की प्रतीक्षा करने लगी ॥ १९ ॥ ईश्वर की इच्छा से प्रभा नामवाली राजा की वह छोटी रानी तदनन्तर बहुत समय बीत जाने पर प्रारब्धानुसार एवं कान्तिहीन तथा रक्त-पित्त के विकार से ग्रस्त हो गयी ॥ २० ॥ उसके हाथों, पैरों तथा नाक से नित्य रक्त निकलने लगा। वह अत्यन्त बीभत्स स्वरूप वाली हो गयी, तब पति राजा प्रियव्रत ने मन से उसका परित्याग कर दिया ॥ २१ ॥ बहुत प्रयत्न करने पर भी चिकित्सा – सम्बन्धी सभी उपायों के विफल हो जाने पर अब राजा न तो उससे बोलते थे और न ही उसकी ओर देखते ही थे ॥ २२१/२ ॥ तत्पश्चात् तपस्या के द्वारा अत्यन्त सुन्दर आकृतिवाली हो गयी कीर्ति के भवन में [किसी समय ] राजा गये । भगवान् गणेश की कृपा से राजा प्रियव्रत स्वयं ही उसके वशीभूत हो गये। वे उसका हाथ पकड़कर उसे शय्या पर ले गये ॥ २२-२३ ॥ वे कीर्ति में एकनिष्ठावान् होकर उसके साथ स्वेच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे । नृपश्रेष्ठ प्रियव्रत क्षणभर के लिये भी उसका वियोग सहन नहीं कर पाते थे ॥ २४ ॥ उस पतिपरायणा कीर्ति ने भी अनेक प्रकार के भोगों तथा अलंकारों का उपभोग किया। वह गर्भवती हुई और यथासमय उसने एक पुत्र को जन्म दिया । पुत्र के जन्म से हर्षित होकर राजा प्रियव्रत ने ब्राह्मणों को [उस] शुभ मुहूर्त में यथायोग्य अनेक प्रकार के दानों को दिया ॥ २५-२६ ॥ उन्होंने पाँच ब्राह्मणों को विभिन्न दिशाओं में बैठाकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार कराया और फिर उस बालक का ‘क्षिप्रप्रसादन’ यह नाम रखा। नाना प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित अपने पुत्र को देखकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। ऐसे ही पुत्र का दर्शन करके रानी कीर्ति भी अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुई ॥ २७-२८ ॥ सपत्नी कीर्ति के सुन्दर पुत्र को देखकर प्रभा अत्यन्त दुखी हो गयी। वह यह सोचने लगी कि ज्येष्ठा रानी कीर्ति का यह पुत्र ही आगे चलकर राजा होगा ॥ २९ ॥ तब उसने दही-भात में विष मिलाकर कीर्ति के पुत्र को खिला दिया। तब क्षणभर में ही वह विह्वलता को प्राप्त हो गया और उसके नेत्र उलटे हो गये ॥ ३० ॥ तदनन्तर वह प्रभा स्वयं भी अत्यन्त आतुर होकर बड़े जोर से शब्द करती हुई रोने लगी। प्रभा का वह कातर शब्द सुनकर कीर्ति उस बालक के पास वेगपूर्वक आयी । उसने उस सम्पूर्ण वृत्तान्त को बड़े आदर के साथ राजा को बतलाया। तब राजा की आज्ञा से वैद्यों ने भी अनेक प्रकार की औषधियाँ उस बालक को दीं ॥ ३१-३२ ॥ उन्होंने विष के दोष का परीक्षण करके राजा को बताया कि नाना प्रकार के मन्त्रों तथा औषधियों से कोई भी लाभ नहीं हो पा रहा है । राजा ने प्रभा को धिक्कारा और उसे घर से दूर कर दिया । तदनन्तर कीर्ति उस बालक को लेकर सखियों के साथ वन में चली आयी ॥ ३३-३४ ॥ जब वह नगर से एक योजन दूर पहुँची थी कि उसी बीच उस बालक की मृत्यु हो गयी। अपनी गोद में बालक को लेकर शोक से विह्वल हुई वह कीर्ति रोने लगी। जिस प्रकार वायु के झोंके से लता भूमि पर गिर पड़ती है, वैसे ही वह भी मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। उसके आभूषण गिर गये। हाथ का कंकण टूट गया और मस्तक पर से आँचल खिसक गया ॥ ३५-३६ ॥ क्षणभर के बाद जब उसे कुछ होश आया तो वह द्विरदानन भगवान् गणेश का स्मरण करने लगी। वह अपने नवजात शिशु की उत्पत्ति तथा बालचेष्टाओं का स्मरण करते हुए अपनी छाती पीटने लगी ॥ ३७ ॥ दैवयोग से उसी समय उस मार्ग से गृत्समद नाम वाले मुनिश्रेष्ठ महात्मा आ पड़े, वे साक्षात् सूर्य के समान तेज से सम्पन्न थे। वे गणेशजी के भक्तों में सबसे अग्रणी तथा तपस्या की परम निधि थे । दयार्द्र होकर वे वहीं रुक गये। तब उस कीर्ति ने उन्हें प्रणाम किया ॥ ३८-३९ ॥ वह लम्बी साँस लेते हुए बोली — गणेशजी की कृपा से मुझे यह पुत्र प्राप्त हुआ, किंतु अब यह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया है, इसे आप अपनी तपस्या के बल से जीवित करने की कृपा करें ॥ ४० ॥ मैंने उन्हीं गणेश भगवान् की आज्ञा से इसका ‘क्षिप्रप्रसादन’ यह नाम रखा। किंतु मेरी सपत्नी ने दुष्ट भाव से भावित होकर इसे विष दे दिया ॥ ४१ ॥ हे मुने! उसी कारण इसने ऐसी मृत्यु प्राप्त की है। हे तपोधन ! सत्पुरुषों का दर्शन विफल नहीं होता है, इसलिये मैं [आपसे इसका जीवन] माँग रही हूँ । साधुपुरुष शरण में आये हुए के परित्याग की इच्छा नहीं करते ॥ ४२१/२ ॥ कीर्ति का उस प्रकार का वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ वे गृत्समद क्षणभ के लिये ध्यान में स्थित हो गये, तदनन्तर बोले — हे देवि ! सुनो, मैं इस पुत्र को जीवित करने का उपाय बताता हूँ। तुमने अज्ञान में शमीपत्रों के द्वारा विनायक की जो पूजा की है, उससे प्राप्त पुण्यफल को तुम मेरी आज्ञा से इसके हाथ में अर्पित करो । उस पुण्य के प्रभाव से इस समय शीघ्र ही तुम्हारा पुत्र उठ खड़ा होगा ॥ ४३-४५१/२ ॥ मुनि गृत्समदजी के इस प्रकार वचन सुनते ही वह कीर्ति आनन्द में निमग्न हो गयी ॥ ४६ ॥ उसने शमीपत्रों द्वारा की गयी गणेशपूजा का उत्कट पुण्यफल अपने पुत्र को समर्पित कर दिया। उसी समय वह कीर्ति का ‘पुत्र वैसे ही उठ खड़ा हो गया, जैसे कि उसपर अमृत की वर्षा की गयी हो ॥ ४७ ॥ कीर्ति ने अत्यन्त हर्षित होकर मुनि के चरणों में बार-बार सिर रखकर प्रणाम किया। वह उन मुनि गृत्समद से कहने लगी कि आपने यह कैसे जाना कि मैंने शमीपत्रों द्वारा गणेशजी का पूजन किया है ? ॥ ४८ ॥ हे मुने! शमीपत्र द्वारा किये गये गणेशजी के पूजन के उस पुण्य प्रभाव तथा उसकी महिमा को बतलाने की कृपा करें, जिसके प्रभाव से मेरा बालक जी उठा और यमकिंकरों द्वारा मुक्त हो गया ॥ ४९ ॥ ताकि शमीपत्र द्वारा की गयी गणेश-पूजा की महिमा को जानकर मैं नित्य उनका शमीपत्रों द्वारा पूजन किया करूँगी। जिस शमीपूजन के प्रभाव से अत्यन्त क्रूर, न रोके जाने योग्य भी यमदूतों को गणनाथ के दूतों ने रणांगण में बहु युद्ध करके परास्त कर दिया और फिर वे दूत मेरे पुत्र को जीवित करके गजानन के धाम को चले गये ॥ ५०-५१ ॥ जिस पुण्य के प्रभाव से मेरा बालक विष के प्रभाव का परित्यागकर पुनः सुखी हो गया और शीघ्र ही जीवन प्राप्तकर उसी प्रकार उठ खड़ा हुआ, जैसे कि कोई सोया हुआ उठ खड़ा होता है। इसी कारण मैं शमीपत्र के द्वारा की गयी पूजा की महिमा को आपसे पूछती हूँ ॥ ५२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसका वह वचन सुनकर महर्षि गृत्समद उससे बोले — ॥ ५३ ॥ गृत्समद बोले — जिसके नाम का उच्चारण करनेमात्र से करोड़ों पातक विनष्ट हो जाते हैं, उस शमी की महिमा को सम्पूर्ण रूप से बताने में इस पृथ्वी पर कौन समर्थ है ? ॥ ५४ ॥ मैं अपनी बुद्धि के अनुसार संक्षेप में उसे बताता हूँ । व्रत, दान, तपस्या, विविध तीर्थों के सेवन, ग्रीष्म में पंचाग्निसाधना और हेमन्त ऋतु में जल में निवास करने से वह फल प्राप्त नहीं होता, जो कि शमीपत्रों के द्वारा गणेशजी का पूजन करने से प्राप्त होता है ॥ ५५-५६ ॥ प्रातःकाल में अथवा तीनों सन्ध्याकालों में जो भगवान् गणेशजी का ध्यान करके भक्तिभावपूर्वक शमी का स्मरण करता है, उसकी वन्दना करता है अथवा पूजन करता है, भगवान् विनायक उसपर प्रसन्न हो जाते हैं, उसे मनोभिलषित पदार्थों को देते हैं और अन्त में मोक्ष प्राप्त करा देते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५७-५८ ॥ इस विषय में भी इस प्राचीन इतिहास का दृष्टान्त दिया जाता है, जो देवर्षि नारदजी और महात्मा इन्द्र के बीच हुआ था ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘बालक के पुनः जीवित होने का वर्णन’ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥ Content is available only for registered users. 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