November 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-093 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ तिरानबेवाँ अध्याय गुणेश के पाँचवें वर्ष में खड्गासुर का ऊँट का रूप बनाकर तथा चंचल दैत्य का छाया का रूप धारण कर गुणेश की बालमण्डली में आना, गुणेश्वर द्वारा लीलापूर्वक उनका वध करना अथः त्रिनवतितमोऽध्यायः चञ्चलवध ब्रह्माजी बोले — बालक गुणेश का जब पाँचवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ, तब एक दिन उषाकाल में ही मुनियों के बालक गुणेश के घर पर आये ॥ १ ॥ वे बोले — हे सखा ! प्रातःकाल की बेला में क्यों सो रहे हो, उठो, उठ जाओ। उन्होंने देवी पार्वती से भी कहा — आप अपने बालक को उठाइये ॥ २ ॥ इस पर पार्वती उनसे बोलीं — क्या तुम्हें नींद नहीं आती, तुम लोग अत्यन्त चंचल हो, रात-दिन खेल खेलने में ही लगे रहते हो। तुम निर्लज्ज बालक मूर्खतावश सूर्योदय होने से पहले ही कैसे यहाँ आ गये ? ॥ ३१/२ ॥ वे बालक बोले — हे माता! आपके वचनों से हमें कभी भी क्रोध नहीं आ सकता। क्या हम आपके बालक नहीं हैं और क्या आप हमारी माता नहीं हैं ? आपके इस शिशु पर हम सभी का मन सदा ही लगा रहता है। हम रात-दिन निरन्तर इसे अपने सामने पाते हैं। बिना इसके हमारे मन में सन्तोष नहीं होता ॥ ४-६ ॥ उन सभी के वचनों को सुनकर उस समय वे शिशु गुणेश जग गये और बाहर आकर उन्होंने उन बालकों का परस्पर आलिंगन किया। तदनन्तर वे सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर प्रसन्नतापूर्वक घर से बाहर निकल पड़े। फिर दो भागों में बँटकर नाना प्रकार की युद्ध-सम्बन्धी चेष्टाओं के द्वारा क्रीडा करने लगे ॥ ७-८ ॥ वे सभी परस्पर मस्तक से मस्तक पर, वक्षःस्थल से वक्षःस्थल पर और बाहुओं से बाहुओं पर प्रहार करने लगे । कोई परस्पर जल फेंक रहा था, कोई धूल फेंक रहा था, कोई-कोई गेंद तथा मुष्टियों से परस्पर प्रहार कर रहे थे। कोई कीचड़ फेंककर तथा कोई गोबर फेंककर परस्पर क्रीडा कर रहे थे। कोई किसी दूसरे को झुला रहा था तथा कोई किसी को खींच रहा था ॥ ९-१० ॥ कोई कोलाहल कर रहे थे और कोई-कोई सींग (शृंग वाद्य) तथा बाँसुरी की ध्वनि कर रहे थे, कुछ बालक दैत्य बने हुए थे और कुछ देवता बने हुए थे। दैत्य बालक विजय प्राप्त कर रहे थे और देवता बने बालकों की पराजय हो रही थी । हे अंग (व्यासजी) ! जब इस प्रकार से वे बालक परस्पर युद्धक्रीडा कर रहे थे ॥ ११ ॥ उसी समय खड्ग नाम का एक महान् असुर वहाँ आया, वह ऊँट का रूप धारण किये हुए था, उसकी विशाल आकृति आकाश को छू रही थी ॥ १२ ॥ उसकी बहुत बड़ी पूँछ की वायु से अनेक वृक्ष- समूह टूटकर गिर गये थे। उसके दाँत शूल के समान नुकीले थे, उसकी जिह्वा लपलपा रही थी, वह अपने पैरों से दिशाओं को रौंद रहा था । वह बड़ी ही तीव्र ध्वनि करके उन गुणेश्वर की ओर दौड़ा। उसके महान् शब्द की प्रतिध्वनि से सहसा दिशाएँ और विदिशाएँ गूँज उठीं ॥ १३-१४ ॥ उसे देखकर सभी मुनिबालक भय से व्याकुल हो उठे और भाग चले। कुछ बालक उन गुणेश से ‘दौड़ो-दौड़ चलो’ इस प्रकार से कहते हुए चिल्लाने लगे ॥ १५ ॥ उन बालकों के रुदन तथा चिल्लाहट को सुनकर एकाएक ही उन गुणेश्वर ने अपना शरीर अत्यन्त विशाल बना लिया और उछलकर उस ऊँटस्वरूपधारी दैत्य के सिर पर अपने मुक्के से उसी प्रकार प्रहार किया कि जैसे वज्र का प्रहार महान् पर्वत पर हो रहा हो। इस आघात से उस दुष्ट दैत्य का हृदय छिन्न-भिन्न हो गया । वह अपने मुख से बहुत सारा रक्त उगलता हुआ, महाभयंकर शब्द करके पृथ्वीतल पर गिर पड़ा ॥ १६-१७ ॥ वह अपने पैरों तथा गरदन को पटकने लगा और बार-बार चिल्लाते हुए उसने अपने शरीर को स्थिर करके क्षणभर में ही अपने प्राण त्याग दिये ॥ १६-१८१/२ ॥ उसका शरीर अठारह योजन लम्बा-चौड़ा था, गिरते हुए उसके शरीर ने अनेक वृक्षसमूहों को गिरा डाला था और भूमि पर गिरकर उसके शरीर ने इतनी धूल उछाली कि क्षणभर में ही सारा आकाश धूल से ढक गया। उसकी देह के गिरने से अनेक जीव-जन्तु तथा पक्षी भी गिर पड़े ॥ १९-२० ॥ उस दैत्य को इस प्रकार से गिरा हुआ देखकर वे सभी मुनिकुमार उस समय कहने लगे — हे पार्वतीपुत्र! बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ, आपने उस महान् दैत्य को मार डाला है। उस महान् दैत्य को देखकर तो हम सभी डरकर भाग गये थे, आप तो छोटे-से हैं, फिर आपने कैसे उस महान् दैत्य को अपने पराक्रम से मार डाला? हम सभी अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर पुनः आपके पास आये हैं ॥ २१-२२१/२ ॥ ऐसा कहकर वे सभी बालक पूर्व की भाँति ही परस्पर एक-दूसरे के चरणकमलों को पकड़कर खींचते हुए पुनः क्रीड़ा करने लगे ॥ २३१/२ ॥ थोड़ी ही देर के पश्चात् उस ऊँटरूपधारी दैत्य का एक मित्र वहाँ आया, वह अपने मरे हुए मित्र का बदला लेना चाहता था, उसने छाया का रूप धारण किया था, वह महान् बल तथा पराक्रम से सम्पन्न था। उसके चरण के आघात से शेषनाग का शरीर भी काँप उठता था ॥ २४-२५ ॥ उस छायारूपधारी दैत्य का मस्तक आकाश को छू रहा था, वह दुष्ट दैत्य गुणेश के पीछे गया और उन गुणेश की छाया में प्रविष्ट होकर उस समय उसने उन्हें गिरा दिया था। वह बड़ा ही मायावी था, महान् बलशाली था। उस समय वह अन्य सभी से अदृश्य हो गया। इसके उपरान्त वह दैत्य नृत्य करने लगा। वह जिस प्रकार नृत्य कर रहा था, वे गुणेश भी उसी-उसी प्रकार नाच रहे थे ॥ २६-२७ ॥ उन मुनिबालकों ने जब उन गुणेश को [नाचते-नाचते] गिरता हुआ देखा तो कुछ बालक अत्यन्त दुखी हो उठे और कुछ बालक दौड़ते हुए उनके पास जाकर कहने लगे — हे नाथ! आप क्यों गिरे जा रहे हैं ? इस समय आपका वह सामर्थ्य कहाँ चला गया ? आप बार-बार क्यों अपने प्रिय मित्रों के ऊपर गिरे जा रहे हो ? ॥ २८-२९ ॥ तदनन्तर बालक गुणेश ने शीघ्र ही दसों दिशाओं में चारों ओर देखा। फिर उन्होंने बल लगाकर आगे जाने की चेष्टा की, किंतु वे आगे जाने में समर्थ न हो सके। पुनः उन्होंने ध्यान लगाकर चारों ओर दृष्टि डाली, तब उन गुणेश्वर ने अपनी छाया में प्रविष्ट उस दैत्य के विषय में जाना ॥ ३०-३१ ॥ तदनन्तर उन्होंने पर्वत की एक टूटी चट्टान उठाकर उस राक्षस के उदर पर फेंका और उसके ऊपर चढ़कर वे नृत्य करने लगे। इससे वह दैत्य मरकर चूर-चूर हो गया। अन्तिम समय में उस दुष्ट दैत्य ने अपना विशाल स्वरूप बनाया और गिरते हुए उसने अनेक वृक्षों, पर्वतों तथा प्राणियों को चूर-चूर कर डाला ॥ ३२-३३ ॥ उसके मेद तथा रक्त से वहाँ की पृथ्वी तथा वे गुणेश्वर भी लथपथ होकर उसी प्रकार लाल-लाल रंग के दीखने लगे, जैसे कि वसन्त ऋतु में पलाश का [पुष्पित] वृक्ष रक्तवर्ण का हो जाता है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार उस छायारूपी दैत्य को शीघ्र ही मारकर गुणेश लीलापूर्वक क्रीडा करने लगे। उसी समय एक महाभयंकर दैत्य वहाँ आ पहुँचा। उसके कन्धे बैल के कन्धे के समान अत्यन्त सुदृढ़ थे, उसका मुख सूअर के समान था तथा उसका उदर हाथी के समान था ॥ ३५ ॥ उस दैत्य का नाम था चंचल । वह बालक का रूप बनाकर उन बालकों के मध्य प्रविष्ट हो गया। उसके श्वास के छोड़े जाने से पर्वतों की चट्टानें भी धूल के समान उड़ जाती थीं ॥ ३६ ॥ उसके नृत्य से पर्वतोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी कम्पित हो उठती थी, उन बालकों के बीच उसने विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ बड़ी ही कुशलता के साथ दिखलायीं ॥ ३७ ॥ उस महान् बलशाली तथा महामायावी दैत्य ने कुछ बालकों को जमीन पर पटक दिया। किसी मुनिबालक का दोनों पाँव पकड़कर वह खींचने लगा। किसी बालक के हाथों को कसकर पकड़कर उसके माथे पर चोट मारी। वे सभी बालक धूप में अपने शरीर पर मिट्टी लगा रहे थे ॥ ३८-३९ ॥ बालकों की देखा-देखी वह दैत्य भी अपने शरीर में मिट्टी का लेपन उसी प्रकार करने लगा, जैसे कि कोई भाग्यशाली अपने शरीर में चन्दन का अनुलेपन करता है। तदनन्तर उन बालकों ने मिट्टी की गेंद बनायी और उससे खेल खेलना प्रारम्भ किया। किसी बालक द्वारा आकाश में उछाली गयी गेंद को जो बालक अपने हाथ से पकड़ लेता था, वह उस गेंदसहित उस उछालने वाले बालक पर घोड़े के समान सवारी करता था ॥ ४०-४१ ॥ तदनन्तर सवारी करने वाला वह बालक उस गेंद को बलपूर्वक जमीन पर फेंकता था । तब भूमि पर टकराकर उछलती हुई उस गेंद को कोई दूसरा बालक अथवा वही बालक पकड़ता था ॥ ४२ ॥ जिसके हाथ वह गेंद लगती थी, वह उस बालक पर सवार होकर पुनः गेंद को जमीन पर फेंकता था, भूमि पर गिरी हुई उस गेंद को उठा लेने वाला बालक उस गेंद को फेंककर किसी दूसरे बालक को मारता था ॥ ४३ ॥ भागने वाले उन बालकों में से जिस बालक को वह गेंद लगती थी अथवा जिसके हाथ से छू जाती थी, उसे भी वह गेंद आकाश में उछालनी होती थी ॥ ४४ ॥ यदि वह गेंद किसी के हाथ नहीं आती थी तो उसे पुनः वह गेंद आकाश की ओर फेंकनी होती थी, आती हुई उस गेंद को जो हाथ में पकड़ लेता था, वह उस बालक पर आरूढ़ होकर गेंद को पूर्ववत् फेंकता था। इसी क्रम में एक बार गुणेश ने गेंद आकाश में फेंकी, जिसे चंचल नामक दैत्य ने हाथ से पकड़ लिया। तब नियमानुसार वह असुर चंचल बालक गुणेश पर सवार हुआ। अपने भार से उन देव गुणेश को दबाता हुआ वह दुष्ट दानव बोला — अरे दुष्ट बालक! तुम इन बालकों के बीच बड़ी डींग हाँकते हो, अब मेरे भार को सहन करो ॥ ४५–४७ ॥ वह बार-बार गेंद को उछालता था, और पुनः अपने हाथ से उसे पकड़ भी लेता था । इसी प्रकार से उस दुष्ट दानव ने दो मुहूर्त तक गेंद से क्रीड़ा की । वहाँ उपस्थित वे सभी मुनि बालक गुणेश की वैसी दशा देखकर हँसने लगे। तदनन्तर वे गुणेश दृढ़ पराक्रम दिखाते हुए उस दैत्य के ऊपर सवार हो गये ॥ ४८-४९ ॥ यह देखकर वह चंचल नामक दैत्य गुणेश को दूर ले जाने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ उतावला होकर आकाशमार्ग से चल पड़ा। अन्य बालक भूमि पर ही उसके पीछे-पीछे जाने लगे ॥ ५० ॥ वह दैत्य कभी विमान की गति के समान और कभी उड़ते हुए पक्षी के समान बड़ी तेजी से उड़ रहा था । गुणेश के साथी वे बालक शोक करते हुए वापस लौट आये और अपने-अपने घरों को चले गये। कुछ बालक वहीं ठहर गये और गुणेश्वर के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर विभु गुणेश ने उस दुष्ट दानव की नीयत मन से जानकर एकाएक अपना भार हिमालय पर्वत के समान भारी बना लिया। उस भार के कारण वह दैत्य गिर पड़ा और गुणेश्वर से कहने लगा — ॥ ५१-५३ ॥ मेरे ऊपर से अपना महान् भार उतार लो, अन्यथा मेरे प्राण चले जायँगे। आप मुझ दीन पर दया कीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ ॥ ५४ ॥ ऐसा कहता हुआ वह दैत्य मूर्च्छित हो गया। तब बालक गुणेश ने उसे उसी प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड़ सर्प को पकड़ लेता है, और गुणेश ने उसे बार-बार घुमाया, और उस चंचल नामक दुष्ट दानव को दूर देश में फेंक दिया ॥ ५५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘चंचल [आदि असुरों]-के वध का वर्णन’ नामक तिरानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९३ ॥ Content is available only for registered users. 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