श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-095
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पंचानबेवाँ अध्याय
गुणेश के छठे वर्ष में विश्वकर्मा का उनके दर्शन के लिये पार्वती के पास आना, विश्वकर्मा का पार्वती की स्तुति करना, पार्वती का उन्हें भक्ति का वर देना, विश्वकर्मा द्वारा गुणेश का स्तवन और उन्हें अंकुश आदि आयुध प्रदान करना, गुणेश के द्वारा आयुधों की प्राप्ति कहाँ से हुई – इस जिज्ञासा पर विश्वकर्मा का सूर्य तथा संज्ञा की कथा सुनाना, विश्वकर्मा का प्रस्थान, उसी समय वृकासुर दैत्य का वहाँ आना, गुणेश द्वारा असुर का वध
अथः पञ्चनवतितमोऽध्यायः
वृकासुरवध

ब्रह्माजी बोले — छठे वर्ष के प्रारम्भ होने पर किसी एक दिन की बात है, पार्वती के पुत्र वे गुणेश बालकों के साथ कहीं बाहर गये और वहाँ पर अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करने लगे। उनका दर्शन करने की इच्छा से देवशिल्पी विश्वकर्मा वहाँ उनके घर के भीतर की ओर गये। तब पार्वती ने अपने कक्ष से बाहर निकलकर उनका बहुत मान-सम्मान किया ॥ १-२ ॥ उन्हें एक चित्रासन पर बैठाकर आदरपूर्वक उनकी पूजा की। उनके चरणों का प्रक्षालनकर उन्हें गन्ध तथा ताम्बूल प्रदान किया ॥ ३ ॥ देवी पार्वती के द्वारा प्राप्त आदरभाव को देखकर विश्वकर्मा अत्यन्त प्रसन्न हो गये। वे देवी पार्वती को परम श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४ ॥

॥ विश्वकर्मकृता जगन्मातास्तुतिः ॥
॥ विश्वकर्मोवाच ॥
नमामि विश्वेश्वरि विश्वरूपे ब्रह्मेन्द्ररुद्रार्यमविष्णुरूपे ।
त्वया ततं विश्वमनन्तशक्ते ब्रह्मादिदेवैरभिनन्द्यरूपे ॥ ५ ॥
त्वमेव विश्वं रजसा विधत्से सत्त्वेन मातः परिपासि तच्च ।
त्वमेव सर्वं तमसाऽथ हंसि त्रैगुण्यमेतत्तव नित्यरूपम् ॥ ६ ॥
त्वया हता दैत्यगणा विमुक्तिं ब्रह्मर्षयो ज्ञानबलात् प्रपन्नाः ।
त्वमेव विष्णोरतुलाऽसि शक्तिः सर्वस्य हेतुः परमाऽसि माया ॥ ७ ॥
सतोऽसतो यापि परासि शक्तिश्चराचरं त्वं विदधासि विश्वम् ।
सम्मोह्य लोकान्सकलान्सुरेशान्काष्ठाकलाभिश्च ददासि भोगम् ॥ ८ ॥
ये त्वां प्रपन्ना न भयं तु तेषां मृत्योस्तस्था दैत्यकृतं कदाचित् ।
त्वमेव लक्ष्मीः सुकृतामलक्ष्मीर्दुष्टात्मनां त्वं प्रमदास्वरूपा ॥ ९ ॥
विद्यास्वरूपासि जगत्त्रये त्वं प्रभास्वरूपा शशिसूर्ययोत्स्वम् ।
य आश्रितास्ते जगदाश्रयास्ते विपत्तिलेशो न च तेषु मातः ॥ १० ॥
त्वमेव विश्वेश्वरि ! विश्वमेतद्धरस्यथाप्यायसि वारिरूपा ।
अनादिमध्याऽनिधनाप्यगम्या हरीशलोकेशसुरेश्वराणाम् ॥ ११ ॥
तेऽनुग्रहात्त्वाप्रभजन्ति भक्ता आनन्दरूपा निवसन्ति नाके ।
अभक्तिकामान् विनिहंसि रुष्टा त्वामेव मातः शरणं प्रपन्नः ॥ १२ ॥
धन्ये ममैते नयनेऽथ विद्या जनुश्च माता पितृवंश एव ।
कुलं च धन्यं चरणौ त्वदीयौ दृष्टौ यतस्ते जगदम्बिके मया ॥ १३ ॥

विश्वकर्मा बोले — हे विश्वेश्वरी! आप ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अर्यमा एवं विष्णुस्वरूपा हैं, आप विश्वस्वरूपा को मैं प्रणाम करता हूँ। हे अनन्तशक्ति स्वरूपा! आपने ही इस जगत् ‌की सृष्टि की है। आप ब्रह्मा आदि देवताओं के द्वारा अभिनन्द्य स्वरूप वाली हैं ॥ ५ ॥ हे माता ! आप ही रजोगुण का आश्रय लेकर विश्व की संरचना करती हैं, सत्त्वगुण का आश्रय लेकर उसका पालन-पोषण करती हैं और आप ही पुनः तमोगुण का आश्रय लेकर उसका संहार भी करती हैं। यह त्रैगुण्यभाव आपका नित्य स्वरूप है। आपने ही समस्त दैत्यों का वध किया है। आपकी शरण ग्रहण किये हुए ब्रह्मर्षिगण अपने ज्ञान के कारण मुक्ति को प्राप्त करते हैं । आप ही विष्णु की अतुलनीय शक्ति हैं, आप ही जगत् ‌की कारणभूता परम मायाशक्ति हैं ॥ ६-७ ॥

सत् तथा असत्  की पराशक्ति आप ही हैं। आप ही इस चराचर जगत् ‌की सृष्टि करने वाली हैं। आप सभी लोगों तथा सभी देवेश्वरों को सम्मोहित करके काष्ठा तथा कला आदि समय की सूक्ष्म गतियों के द्वारा उन्हें कर्मों का भोग प्रदान करती हैं ॥ ८ ॥ जिन्होंने आपकी शरण ग्रहण कर ली है, उन्हें न तो मृत्यु का भय रहता है और न कभी दैत्यों से उत्पन्न भय ही रहता है। आप पुण्यात्माजनों के लिये लक्ष्मीरूपा हैं, दुष्टात्माओं के लिये अलक्ष्मीस्वरूपा हैं और समस्त स्त्रियों के रूप में भी आप ही विद्यमान हैं ॥ ९ ॥ आप तीनों लोकों में विद्यारूपा हैं, सूर्य तथा चन्द्रमा में आप ही प्रभा के रूप में विद्यमान हैं। हे माता ! जिन्होंने आपकी शरण ग्रहण कर ली है, वे सम्पूर्ण जगत् के आश्रय बन जाते हैं। उन्हें लेशमात्र भी विपत्ति नहीं आती ॥ १० ॥

हे विश्वेश्वरी ! आप ही इस विश्व का संहार करती हैं और जलरूप से आप ही इसका आप्यायन भी करती हैं। आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, विष्णु, शंकर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं के लिये भी आप दुर्लभ हैं। आपकी कृपा होने पर ही भक्तजन आपका भजन करने में समर्थ हो पाते हैं और अन्त में आनन्दस्वरूप होकर स्वर्ग में निवास करते हैं। जो आपकी भक्ति नहीं करते, ऐसे जनों पर रुष्ट होकर आप उनके वांछितों का विनाश करती हैं । हे माता ! मैंने आपकी शरण ग्रहण की है ॥ ११-१२ ॥ हे जगन्माता! आज मेरे ये दोनों नेत्र धन्य हो गये, मेरी विद्या धन्य हो गयी, मेरा जन्म लेना सफल हो गया, |मेरे मातृवंश तथा पितृवंश – दोनों धन्य हो गये और मेरा कुल भी धन्य हो गया, जो कि मुझे आपके चरणयुगलों का दर्शन प्राप्त हुआ है * ॥ १३ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से स्तुति की गयी जगज्जननी देवी पार्वती ने उनसे वर माँगने के लिये कहा । तब विश्वकर्मा ने जगदम्बा की परम भक्ति का आशीर्वाद माँगा, इस पर देवी ने उनसे कहा — ऐसा ही होगा ॥ १४ ॥

जो विश्वकर्मा द्वारा किये गये इस जगदम्बा स्तोत्र का पाठ करता है, वह सभी कामनाओं को प्राप्त करता है । वह सर्वत्र विजय, पुष्टि, विद्या, आयु, सुख तथा कल्याण को प्राप्त करता है ॥ १५ ॥

शिवा बोलीं — हे विश्वकर्मा ! हे महान् बुद्धि से सम्पन्न! आप सब प्रकार से ज्ञानवान् हैं। भगवान् शिव से मैंने आपके विषय में जो कुछ सुना था, वह सब आज मैंने आपमें प्रत्यक्ष विद्यमान देख लिया है ॥ १६ ॥ सिन्धु दैत्य के द्वारा पीड़ित सभी देवता कारागारमें पड़े हुए हैं। भगवान् शिव का धाम कैलास भी उसके द्वारा अधिगृहीत कर लिये जाने के कारण वे शिव भी यहाँ आ गये हैं। इस दण्डकारण्य नामक स्थान पर कोई भी आप्त पुरुष नहीं दिखायी देता । बहुत समय के अनन्तर आप भलीभाँति यहाँ दृष्टिपथ में आये हैं ॥ १७-१८ ॥

विश्वकर्मा बोले — हे जगन्माता ! यदि पुत्र माता के पास आता है, महान् भक्त यदि अपने अभीष्ट देव के दर्शन के लिये जाता है और हे शिवे ! विद्या ग्रहण करने की इच्छावाला यदि गुरु के पास जाता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ! ॥ १९ ॥ हे माता! मैंने आपके पुत्र की परम अद्भुत महिमा का श्रवण किया है, आप दोनों के दर्शनों का अभिलाषी मैं आपके पुत्र का [भी] दर्शन करने के लिये आया हूँ ॥ २० ॥

ब्रह्माजी बोले — जब वे विश्वकर्मा और माता पार्वती इस प्रकार से परस्पर वार्तालाप कर रहे थे कि उसी समय वे विनायक वहाँ आ पहुँचे। धूलिधूसरित देहवाले उन गुणेश की कान्ति असंख्य चन्द्रमाओं के सदृश थी ॥ २१ ॥ उनका मुखमण्डल अत्यन्त प्रसन्न था, वे बालकों के समूहों से घिरे हुए थे। उन बालकों के मध्य वे उसी प्रकार सुशोभित हो रहे थे, जैसे मरुद्गणों के मध्य इन्द्र सुशोभित होते हैं। उनका दर्शन कर विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये । उन गिरिजापुत्र को परमात्मा जानकर वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २२-२३ ॥

विश्वकर्मा बोले — [ हे प्रभो !] आप सत्-चित् तथा आनन्दमय विग्रह वाले हैं, समस्त चर और अचर जगत् के गुरु हैं और सभी कारणों के भी कारण परमात्मा हैं। आप गुणेश नाम से प्रसिद्ध हैं, गुणातीत हैं, सृष्टि, स्थिति तथा संहार के कारणस्वरूप हैं, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले हैं, ईशान हैं तथा व्यक्त एवं अव्यक्त स्वरूप वाले हैं। आप सभी देवताओं के लिये अगम्य हैं, मुनिजनों के हृदयकमल में निवास करने वाले हैं, सिद्धि तथा बुद्धि के स्वामी हैं, विविध भक्तों को सिद्धि प्रदान करने वाले हैं, सर्वसमर्थ हैं, अभक्तों की कामनाओं का दमन करने वाले हैं आपकी प्रभा हजारों सूर्यों के समान उज्ज्वल है, आप अनेक प्रकार की शक्तियों से समन्वित हैं, और दैत्यों तथा दानवों का मर्दन करने वाले हैं। आप अनादि, अव्यय, शान्त, जरा-मरण से रहित, ब्रह्मा-विष्णु तथा शिव – इस प्रकार से त्रिविध विग्रह धारण करने वाले और वेदत्रयी के मूलरूप हैं, आपको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २४-२८ ॥

ब्रह्माजी बोले — विश्वकर्मा द्वारा की गयी इस प्रकार की स्तुति को सुनकर वे गुणेश्वर अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये, उन्होंने उन विश्वकर्मा को उत्तम आसन पर बैठाकर बड़े ही आदरभाव से उनकी पूजा की। उन्होंने उनके चरणों को प्रक्षालित करके उन्हें गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य निवेदित करके उनसे कहा ॥ २९-३० ॥

गुणेश बोले — हे विश्वकर्मा! आप मेरे दर्शन की अभिलाषा से यहाँ आये हैं तो बताइये कि आप मेरी प्रसन्नता के लिये कौन-सा श्रेष्ठ उपहार मेरे लिये लाये हैं ? ॥ ३१ ॥

विश्वकर्मा बोले — जो स्वात्मानन्द से परिपूर्ण हैं, दूसरे की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले हैं, सब प्रकार से इच्छारहित हैं, सब कुछ करने वाले हैं, सभी प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न है, मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा सोने में समान बुद्धि रखने वाले हैं, कल्पवृक्ष को भी तिरस्कृत कर देने वाले हैं, कर्तुम्, अकर्तुम् तथा अन्यथाकर्तुम् समर्थ हैं, आत्माधीन हैं, सब प्रकार से सन्तुष्ट हैं और स्वेच्छा-शक्ति से विचरण करने वाले हैं, ऐसे आप — जैसे दिव्य महापुरुषों के सन्तोष के लिये भला सब प्रकार से पराधीन, सब प्रकार के सामर्थ्य से रहित, सर्वथा अकिंचन मुझ – जैसे मृत्युधर्मा प्राणी के द्वारा क्या देने योग्य हो सकता है, फिर भी मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ लाया हूँ ॥ ३२–३४१/२

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहने के अनन्तर विश्वकर्मा ने उनके समक्ष सभी शत्रुओं का विनाश करने वाला एवं तीक्ष्ण धार वाला अंकुश, पद्म, हजारों सूर्यों के समान प्रभा वाला परशु तथा पाश नामक शस्त्र रखा । गुणेश्वर ने उन शस्त्रों को ग्रहण किया ॥ ३५-३६ ॥

तब गुणेश्वर ने विश्वकर्मा से कहा — हे अनघ ! हे विश्व की संरचना करने वाले ! आप इन शस्त्रों को कहाँ से लाये हैं, अब मेरी प्रसन्नता के लिये यह मुझे बतायें ॥ ३७ ॥

विश्वकर्मा बोले ‘संज्ञा’ नाम से प्रसिद्ध मेरी एक कन्या है, वह सुन्दर रूप से सम्पन्न है, उसके मुख को देखकर चन्द्रमा भी एकाएक लज्जित हो गये थे । हे गुणेश्वर ! लक्ष्मी, इन्द्रपत्नी शची, सावित्री, शारदा, अरुन्धती अथवा कामदेव की पत्नी रति और तीनों लोकों में भी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो उसके समान सुन्दर हो ॥ ३८-३९ ॥ उसे मैंने स्वयं ही वेदत्रयीस्वरूप तथा त्रिदेवस्वरूप भगवान् सूर्य को पत्नीरूप में समर्पित किया था। उस विवाह में सांगोपांग अर्थात् वाहन, परिवारादि के साथ त्रिलोकी के सभी निवासी आये थे ॥ ४० ॥ वह महान् विवाह-महोत्सव आठ दिन-रात तक निरन्तर चलता रहा। उस संज्ञा को देखकर क्षुभित हुए देवता लज्जा से अधोमुख हो वहाँ से चले गये थे ॥ ४१ ॥

तदनन्तर भगवान् सविता उस संज्ञा को साथ लेकर अपने श्रेष्ठ स्थान को चले गये। उन भगवान् सूर्य के तेज से संतप्त होकर मेरी कन्या संज्ञा अत्यन्त दुर्बल हो गयी। तदनन्तर उस संज्ञा ने अपने सामर्थ्य के प्रभाव से अपनी छाया के रूप में अपने ही समान छाया नामक एक स्त्री की संरचना की। फिर उसे सब कुछ समर्पित कर वह शीघ्र ही मेरे घर को आ गयी ॥ ४२-४३ ॥ इसी प्रकार से जब कुछ समय व्यतीत हो गया तो सूर्य ने छाया की वास्तविकता को जान लिया। ‘यह संज्ञा नहीं है’ – ऐसा जानकर वे सूर्य शीघ्र ही मेरे घर चले आये। तदनन्तर भयभीत संज्ञा ने पुनः मुझसे कहा — हे पिता! मुझे सूर्य के हाथ न सौंपें, मैं इनके तेज को सहन करने में असमर्थ हूँ ॥ ४४-४५ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर पिता विश्वकर्मा के द्वारा धिक्कारे जाने पर वह घर से बाहर चली गयी। वह संज्ञा अश्विनी (घोड़ी) -का रूप धारण कर गुप्त रूप से वन में रहने लगी ॥ ४६ ॥ इसके पश्चात् विश्वकर्मा ने उस संज्ञा को घर में कहीं भी न देखकर सूर्य से कहा — वह संज्ञा आपके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं है। वह कहाँ चली गयी, यह मैं भी नहीं जानता, किंतु उसकी प्राप्ति का उपाय मैं बताता हूँ, यदि आपके तेज का कुछ भाग कम हो जाय, तो वह संज्ञा प्रकट हो जायगी और तब आप उसके साथ विहार करें ॥ ४७-४८१/२

सूर्य बोले — यदि आपका मन इस प्रकार करने का है तो आप वैसा ही करें ॥ ४९ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर विश्वकर्मा ने उन सूर्य को यन्त्र में स्थापितकर उन्हें कुछ छील दिया और शीघ्र ही उनके तेज को कम कर दिया, जिससे वे कुछ सौम्य – स्वरूप वाले हो गये ॥ ५० ॥ तब विभु सूर्य वहाँ गये, जहाँ पर संज्ञा गुप्तरूप से निवास कर रही थी । भगवान् सूर्य ने अश्व का रूप धारणकर अश्विनी बनी हुई उस संज्ञा के साथ रमण किया। तब संज्ञा ने नासत्य अथवा दस्त्र कहे जाने वाले दो अश्विनी- कुमारों को जन्म दिया। तदनन्तर संज्ञा को लेकर भगवान् सूर्य बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने लोक को गये ॥ ५११/२

विश्वकर्मा बोले — हे गुणेश्वर ! हे जगदीश्वर ! भगवान् सूर्य के तेज का जो भाग छीलने पर शेष रह गया था, उस अत्यन्त प्रबल तेज से मैंने अत्यन्त शीघ्र ही आपके लिये आयुधों का निर्माण किया, ये आयुध अत्यन्त तीक्ष्ण और काल पर भी सदा विजय दिलाने वाले हैं ॥ ५२-५३ ॥ मैंने ये चार आयुध आपको प्रदान किये हैं, चक्र तथा गदा भगवान् विष्णु को दी है और सभी शत्रुओं का विनाश करने वाला त्रिशूल भगवान् शिव को प्रदान किया है ॥ ५४ ॥

गुणेश बोले — हे विश्वकर्मा! आपने बहुत अच्छा किया, जो मुझे ये शुभ आयुध प्रदान किये हैं, ये आयुध दैत्यों का नाश करने के लिये तथा सज्जनों के परोपकार लिये उपयोगी सिद्ध होंगे ॥ ५५ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर उन विश्वकर्मा से उन्होंने शीघ्र ही उन आयुधों को ग्रहण किया और उनके प्रयोग की परीक्षा की, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी, पर्वत तथा वन काँप उठे। वे विभु गुणेश्वर करोड़ों सूर्यों की कान्ति के सदृश उन शस्त्रों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुए। तदनन्तर वे विश्वकर्मा उनकी आज्ञा लेकर और उन्हें प्रणाम अपने स्थान को चले गये ॥ ५६-५७ ॥

वे उमा के पुत्र बालक गुणेश बालकों से घिरे रहकर पुनः उनके साथ क्रीड़ा करने लगे, उसी समय वहाँ एक अत्यन्त दुष्ट महादैत्य आ पहुँचा, उसका नाम था वृक। उसका मुख बड़ा ही भयंकर था, वह मदोन्मत्त, महान् बलशाली वृक मानो सबको निगलता जा रहा था। वह अपनी पूँछ के आघात से पृथ्वी को प्रकम्पित कर रहा था। उसके दाँत हलके समान बड़े तथा अत्यन्त नुकीले थे ॥ ५८-५९ ॥ उस भयंकर दैत्य को देखकर मुनिबालक भाग उठे । गुणेश ने शीघ्र ही आयुधों को ग्रहणकर उस वृकासुर को प्रताड़ित किया ॥ ६० ॥ वह दैत्य असुर अंकुश के एक ही प्रहारमात्र से भूमि पर गिर पड़ा। वह अपने मुख से रक्त उगल रहा था । उसने अपना असली दैत्य का रूप धारण कर लिया, गिरते समय वह वृक्षों को चूर-चूर करता हुआ तथा अनेक जीवों को मारता हुआ दस योजन विस्तार वाला हो गया था। तदनन्तर सूर्यास्त हो जाने के अनन्तर वे गुणेश्वर बालकों के साथ घर को चले आये ॥ ६१-६२ ॥

उन बालकों ने देवी उमा को बताया कि आज इस गुणेश ने वृक नामक असुर को अपने अंकुश के आघात से मार डाला। वह असुर दस योजन विस्तृत शरीर वाला था। तब गिरिकन्या पार्वती ने क्रुद्ध-सी होकर उन बालकों से कहा — तुम लोग अपने-अपने घरों को जाओ। पार्वती का यह वाक्य सुनकर वे सभी बालक हँसते हुए अपने-अपने घरों को चले गये ॥ ६३-६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘वृकासुर वधवर्णन’ नामक पंचानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९५ ॥

See Also :-

1. सप्तमी-कल्प में भगवान् सूर्य के परिवार का निरूपण एवं शाक-सप्तमी – व्रत

2. भगवान् सूर्यनारायण के सौम्य रूप की कथा, उनकी स्तुति और परिवार तथा देवताओं का वर्णन

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