Print Friendly, PDF & Email

श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तीसरा अध्याय
राजा नाभि का चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया ॥ १ ॥ यद्यपि सुन्दर अङ्गोंवाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि — इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं । इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्धभाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया । यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देनेवाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया ॥ २ ॥ उनके श्रीअङ्ग में रेशमी पीताम्बर था, वक्षःस्थल पर सुमनोहर श्रीवत्सचिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला और कौस्तुभमणि की शोभा थी । सम्पूर्ण शरीर अङ्ग-प्रत्यङ्ग की कान्ति को बढ़ानेवाले किरणजाल-मण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कङ्कण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों से विभूषित था । ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुष विशेष को प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए. जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता । फिर सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की अर्घ्य द्वारा पूजा की और विज्ञों ने उनकी स्तुति की ॥ ३ ॥

ऋत्विजों ने कहा — पूज्यतम् ! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुनः-पुन: पूजनीय है । किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जाने ? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं — इतना ही हमें महापुरुषों ने सिखाया है । आप प्रकृति और पुरूष से भी परे हैं । फिर प्राकृत गुणों के कार्यभूत इस प्रपञ्च में बुद्धि फँस जाने से आपके गुण-गान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृति के द्वारा आपके स्वरूप का निरूपण कर सके ? आप साक्षात् परमेश्वर हैं ॥ ४ ॥ आपके परम मङ्गलमय गुण सम्पूर्ण जनता के दुःख का दमन करनेवाले हैं । यदि कोई उन्हें वर्णन करने का साहस भी करेगा, तो केवल उनके एकदेश का ही वर्णन कर सकेगा ॥ ५ ॥ किन्तु प्रभो ! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूब के अङ्कुर आदि सामग्री से ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥ ६ ॥

हमें तो अनुराग के सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेक अङ्गोंवाले यज्ञ से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता; ॥ ७ ॥ क्योंकि आपसे स्वतः ही क्षण-क्षण में जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का फलस्वरूप परमानन्द स्वभावतः ही निरन्तुर प्रादुर्भूत होता रहता है, आप साक्षात् उसके स्वरूप ही हैं । इस प्रकार यद्यपि आपको इस यज्ञादि से कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकार की कामनाओं की सिद्धि चाहनेवाले हमलोगों के लिये तो मनोरथसिद्धि का पर्याप्त साधन यही होना चाहिये ॥ ८ ॥ आप ब्रह्मादि परम पुरुषों की अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं । हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परम कल्याण किसमें है, और न हमसे आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषों के पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करने के लिये अन्य साधारण यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं ॥ ९ ॥ पूज्यतम ! हमें सबसे बड़ा वर तो आपने यहीं दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकॉ में श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभि की इस यज्ञशाला में साक्षात् हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गये । अब हम और वर क्या माँगे ? ॥ १० ॥

प्रभो ! आपके गुणगणों का गान परम मङ्गलमय है । जिन्होंने वैराग्य से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि के द्वारा अपने अन्तःकरण के राग-द्वेषादि सम्पूर्ण मलों को जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त हैं, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणों का गान ही किया करते हैं ॥ ११ ॥ अतः हम आपसे यही वर माँगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जंभाई लेने और सङ्कटादि के समय एवं ज्वर और मरणादि की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमलविनाशक ‘भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धु’ आदि गुणद्योतक नामों का हम उच्चारण कर सकें ॥ १२ ॥

इसके सिवा, कहने योग्य न होने पर भी एक प्रार्थना और हैं । आप साक्षात् परमेश्वर हैं; स्वर्ग-अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सके । तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटानेवाले परम उदार पुरुष के पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परम पुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं ॥ १३ ॥ यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं । आपकी माया का पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसी के वश में ही आ सकती हैं । जिन लोगों ने महापुरुषों के चरणों का आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वश में नहीं होता, उसकी बुद्धि पर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विष का वेग उसके स्वभाव को दुषित नहीं कर देता ?॥ १४ ॥ देवदेव ! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं । हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है । किन्तु आप समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियों की इस धृष्टता को आप क्षमा करें ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब, पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देवश्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा ॥ १६ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — ऋषियो ! बड़े असमंजस की बात है । आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो । मुनियो ! मेरे समान तो मैं ही हूँ. क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ । तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है ॥ १७ ॥ इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता ॥ १८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये ॥ १९ ॥ विष्णुदत्त परीक्षित् ! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके निवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए ॥ २० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.