August 9, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमहाभागवत [देवीपुराण]-अध्याय-63 ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ तिरसठवाँ अध्याय ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महाकाली के दर्शन करना, ब्रह्मा और विष्णु द्वारा भगवती महाकाली की स्तुति, भगवती का इन्द्र को दर्शन देना तथा इन्द्र का ब्रह्महत्याजनित पाप से मुक्त होना अथः त्रिषष्टितमोऽध्यायः श्रीभगवतीद्वारगमनाद्देवराजब्रह्म-हत्याहरणोपाख्यानं श्रीमहादेवजी बोले — कुछ समय बाद पुष्प चुनने वाली योगिनियाँ वहाँ आयीं। उन्होंने उन महापुरुषों से पूछा कि आप किस कारण यहाँ आये हैं ? ॥ १ ॥ उनकी बात सुनकर उन्हें अपने आने का कारण स्मरण हो आया और उन्होंने कहा कि हम साक्षात् महाकाली के दर्शन करने आये हैं ॥ २ ॥ योगिनियाँ बोलीं — यदि आप लोग देवी महाकाली के दर्शन हेतु ही आये हैं तो यहाँ खड़े रहकर इतनी देर से आदरपूर्वक क्या देख रहे हैं ? ॥ ३ ॥ देवी की महामाया आश्चर्यजनक है, जिसने इस संसार को मोहित कर रखा है, उसी ने आपलोगों को भी मोहित किया है। आप अपने वर्तमान लक्ष्य को भूल गये हैं ॥ ४ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — इतना कहकर वे सभी चली गयीं और सभी देवता परस्पर कहने लगे कि इतनी देर से यहाँ आकर हम लोग खड़े-खड़े क्या कर रहे हैं! ॥ ५ ॥ भगवान् विष्णु ने सदाशिव से कहा कि आपके द्वारा हमलोग इतनी देर से क्यों मोहित किये जा रहे हैं ? महेश्वर ! हमलोग तो भगवती महाकाली के दर्शनार्थ आये हुए हैं, किंतु उन महेश्वरी देवी महाकाली के अब तक भी दर्शन नहीं हुए ॥ ६-७ ॥ श्रीशिवजी बोले — हम लोग आज ही चलकर जगन्माता परमेश्वरी के दर्शन करेंगे और जगदम्बा के रत्नजटित पवित्र लोक में प्रवेश करेंगे ॥ ८ ॥ मुनिश्रेष्ठ! भगवान् शिव के इस प्रकार कहने पर वे श्रेष्ठ देवगण अपने हृदय में भगवती महाकाली का ध्यान करते हुए उनके दिव्यधाम के अंदर प्रवेश करने हेतु चल पड़े ॥ ९ ॥ तब नगरद्वार पर पहुँचकर हर्ष से प्रफुल्लित नेत्रों वाले भगवान् शिव ने ब्रह्मा, विष्णु आदि उन श्रेष्ठ देवों से कहा — ॥ १० ॥ यह विद्युत्प्रभा के समान प्रभायुक्त, स्वर्णखचित वस्त्र से बना हुआ, अत्यन्त उच्च, विशाल तथा श्रेष्ठ सिंहध्वज भगवती जगदम्बिका के प्रासादशिखर पर पवन के द्वारा लहराता हुआ दिखायी दे रहा है ॥ ११ ॥ आप सब अपने विमानों और वाहनों से पृथ्वी पर उतरकर भक्तिपूर्वक उन जगत्पूज्या भगवती को प्रणाम करें, जिससे इस नगर में प्रवेश करने में कोई विघ्न न हो ॥ १२ ॥ भगवान् शिव की यह बात सुनकर उन सभी ने अपने वाहनों से धरातल पर उतरकर तथा ध्वज की ओर देखकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उन्होंने उस नगरी में प्रवेश को वर्जित करनेवाले विघ्नों को भी चारों ओर देखा ॥ १३ ॥ तब भगवान् शिव को आगे करके ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र ने भैरवीगणों से रक्षित जगदम्बा की उस दिव्य नगरी में प्रवेश किया ॥ १४ ॥ उस दिव्य नगरी को देखकर वैकुण्ठपति भगवान् विष्णु ने भी अपने मन में विस्मित होते हुए अपने दिव्य लोक की निन्दा की ॥ १५ ॥ तब अन्तःपुर के द्वार पर उन्होंने महाबाहु स्थूलकाय, चतुर्भुज गणनायक गजानन को देखा। भगवान् रुद्र ने उन गणनायक से परम प्रीतिपूर्वक कहा कि वत्स ! तुम शीघ्र जाकर महाकाली को [ इस प्रकार ] मेरा संदेश दो — ॥ १६-१७ ॥ ‘महेश्वरी ! ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र शिव के साथ भक्तिपूर्वक आपके दर्शन की इच्छा से नगरद्वार पर आये हैं। उनके साथ रुद्र भी पुर के बाहर खड़े हैं। आप उन देवताओं के साथ वृषभध्वज रुद्र को अंदर आने की आज्ञा प्रदान करें’ ॥ १८-१९ ॥ शिव के ये वचन सुनकर गणनायक शीघ्रतापूर्वक महादेवी के अन्तःपुर में शिवजी के संदेश को बताने चले गये ॥ २० ॥ महामते ! उन्होंने महादेवी को हाथ जोड़कर प्रणाम करके भगवान् शिव का संदेश उनसे यथावत् निवेदित कर दिया ॥ २१ ॥ यह सुनकर जगन्माता ने गणनायक से तुरंत कहा — वत्स! तुम शीघ्र उन देवताओं के पास जाओ और पता करके मुझे बताओ कि ये देवगण किस ब्रह्माण्ड से आये हैं; क्योंकि ब्रह्माण्ड तो अनेक हैं और वहाँ रहने वाले ब्रह्मादि भी अनेक हैं ॥ २२-२३ ॥ यह सुनकर गणनायक ने देवगणों के पास जाकर उनसे पूछा। इसपर वे देवगण अत्यन्त चकित होकर बोले कि हम तो किन्हीं अन्य देवेश्वरों को नहीं जानते ॥ २४ ॥ तब गणनायक ने पुनः जाकर उनकी बात भगवती जगदम्बिका से कही, उन्होंने गणनायक को ब्रह्मा, विष्णु और शिव को लाने की आज्ञा दी ॥ २५ ॥ नारद! तब वे गणनायक लौटकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव को भगवती के अन्तःपुर में ले गये ॥ २६ ॥ इन्द्र साक्षात् प्रकृतिरूपा आद्या भगवती के दर्शन से वञ्चित होकर दुःखी मन से उस नगरी के बाहर ही खड़े रहे ॥ २७ ॥ महेश आदि प्रमुख देवगणों ने अन्तः पुर के श्रेष्ठ द्वार पर आकर रत्नसिंहासन पर विराजमान महादेवी के दर्शन किये ॥ २८ ॥ प्रावासनां मुक्तकेशीं भीमनेत्रत्रयोज्ज्वलाम् । चतुर्भुजां महाघोरां कोटिसूर्यसमप्रभाम् ॥ रत्नोत्तमसमूहेन ज्वलत्कुण्डलमण्डिताम् । अनर्घ्यानेकरत्नौघभूषितां जलदद्युतिम् ॥ दिगम्बरीं भीमदंष्ट्रां विश्ववन्द्यैरपि स्तुताम् ॥ सर्वान्तः स्थामुत्तमस्थां मुण्डमालाविराजिताम् । वीजितां रत्नदण्डेन चामरेण सखीगणैः ॥ वे श्रेष्ठ आसन पर विराजमान थीं, उनके केशपाश खुले हुए थे, उनकी तीन भयानक तेजस्विनी आँखें थीं और वे चार भुजाओं से सुशोभित हो रही थीं । कोटिसूर्यों के समान उनकी प्रभा थी और वे अत्यन्त भयावह थीं। उन्होंने श्रेष्ठ रत्नसमूहों से देदीप्यमान कुण्डल धारण कर रखे थे। वे अनेक बहुमूल्य रत्नों के आभूषणों से सुशोभित थीं और मेघ के समान कान्तिवाली थीं। विकराल दाढ़ों से युक्त वे दिगम्बरस्वरूप में विराजमान थीं तथा विश्ववन्द्य देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे। सभी में विद्यमान रहने वाली तथा उत्तमलोक में निवास करने वाली, मुण्डमाला से सुशोभित उन जगदम्बा की सेवामें सखियाँ रत्नजटित दण्डवाले चँवर डुला रही थीं ॥ २९-३२ ॥ उसी समय उन त्रिदेवों ने कठिनाईपूर्वक जिनका दर्शन सम्भव था और जो कालाग्नि के समान तेजस्विनी थीं, उन महादेवी की दाहिनी ओर स्थित महाकाल सदाशिव को देखा ॥ ३३ ॥ उनके नेत्र और मुख भय उत्पन्न करनेवाले थे । वे जटामुकुट से सुशोभित थे तथा उन्होंने हाथ में कपाल और खट्वाङ्ग धारण कर रखा था एवं उनकी आँखें मद से घूम रही थीं। उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र सुशोभित था, उनकी आभा कज्जल के समान कृष्णवर्ण की थी। ऐसे अनादि पुरुष, लोकसंहारक, कोटि सूर्य के समान आभा से युक्त, सर्प का आभूषण धारण किये, व्याघ्रचर्म को धारण करने वाले और चिताभस्म से विभूषित परमेश्वर का उन्होंने दर्शन किया ॥ ३४-३६ ॥ नारदजी ! तब उन त्रिदेवों ने वेदवर्णित विविध स्तोत्रों से स्तुति करके भूमि पर दण्डवत् गिरकर जगदीश्वरी महादेवी और परमेश्वर महाकाल को प्रणाम किया ॥ ३७१/२ ॥ मुनिवर ! इसी बीच शिवजी सहसा उन महाकाल के साथ एकाकार हो गये। तब ब्रह्मा और विष्णु ने सदाशिव को न देखकर यह विचार किया कि महेश्वर शिव कहाँ चले गये ? उन्हें यह भी चिन्ता हुई कि इन्द्र को देवी के दर्शन होंगे अथवा नहीं ॥ ३८–४० ॥ वत्स! वे दोनों इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि वे जगदीश्वरी महादेवी महाकाल के साथ उसी क्षण अदृश्य हो गयीं ॥ ४१ ॥ महामुने! यद्यपि महाकाली और महाकाल शंकर वहीं उपस्थित थे, किंतु देवी की माया से प्रभावित ब्रह्मा और विष्णु उनको नहीं देख रहे थे ॥ ४२ ॥ मुने! तब ब्रह्मा और विष्णु देवी के दर्शन के लिये व्याकुल होकर हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक महाकाली की स्तुति करने लगे — ॥ ४३ ॥ ॥ ब्रह्मविष्णु कृत भद्रकालीस्तुतिः ॥ ॥ ब्रह्मविष्णु ऊचतुः ॥ नमामि त्वां विश्वकर्त्रीं परेशीं नित्यामाद्यां सत्यविज्ञानरूपाम् । वाचातीतां निर्गुणां चातिसूक्ष्मां ज्ञानातीतां शुद्धविज्ञानगम्याम् ॥ ४४ ॥ पूर्णां शुद्धां विश्वरूपां सुरूपां देवीं वन्द्यां विश्ववन्द्यामपि त्वाम् । सर्वान्तः स्थामुत्तमस्थानसंस्था मीडे कालीं विश्वसम्पालयित्रीम् ॥ ४५ ॥ मायातीतां मायिनीं वापि मायां भीमां श्यामां भीमनेत्रां सुरेशीम् । विद्यां सिद्धां सर्वभूताशयस्थामीडे, कालीं विश्वसंहारकर्त्रीम् ॥ ४६ ॥ नो ते रूपं वेत्ति शीलं न धाम नो वा ध्यानं नापि मन्त्रं महेशि । सत्तारूपे त्वां प्रपद्ये शरण्ये विश्वाराध्ये सर्वलोकैकहेतुम् ॥ ४७ ॥ द्यौस्ते शीर्षं नाभिदेशो नभश्च चक्षूंषि ते चन्द्रसूर्यानलास्ते । उन्मेषास्ते सुप्रबोधो दिवा च रात्रिर्मातश्चक्षुषोस्ते निमेषम् ॥ ४८ ॥ वाक्यं देवा भूमिरेषा नितम्बं पादौ गुल्फं जानुजङ्घस्त्वधस्ते । प्रीतिर्धर्मोऽधर्मकार्यं हि कोपः सृष्टिर्बोधः संहृतिस्ते तु निद्रा ॥ ४९ ॥ अग्निर्जिह्वा ब्राह्मणास्ते मुखाब्जं सन्ध्ये द्वे ते भ्रूयुगं विश्वमूर्तिः । श्वासो वायुर्बाहवो लोकपालाः क्रीडा सृष्टिः संस्थितिः संहृतिस्ते ॥ ५० ॥ एवं भूतां देवि विश्वात्मिकां त्वां कालीं वन्दे ब्रह्मविद्यास्वरूपाम् । मातः पूर्णे ब्रह्मविज्ञानगम्ये दुर्गेऽपारे साररूपे प्रसीद ॥ ५१ ॥ ब्रह्मा और विष्णु बोले — सर्वसृष्टिकारिणी, परमेश्वरी, सत्यविज्ञानरूपा, नित्या, आद्याशक्ति! आपको हम प्रणाम करते हैं । आप वाणी से परे हैं, निर्गुण और अति सूक्ष्म हैं, ज्ञान से परे और शुद्ध विज्ञान से प्राप्य हैं ॥ ४४ ॥ आप पूर्णा, शुद्धा, विश्वरूपा, सुरूपा, वन्दनीया तथा विश्ववन्द्या हैं। आप सबके अन्तःकरण में वास करती हैं एवं सारे संसार का पालन करती हैं। दिव्य स्थाननिवासिनी आप भगवती महाकाली को हमारा प्रणाम है ॥ ४५ ॥ महामायास्वरूपा आप मायामयी तथा माया से अतीत हैं, आप भीषण, श्यामवर्णवाली, भयंकर नेत्रों वाली परमेश्वरी हैं। आप सिद्धियों से सम्पन्न, विद्यास्वरूपा, समस्त प्राणियों के हृदयप्रदेश में निवास करने वाली तथा सृष्टि का संहार करने वाली हैं, आप महाकाली को हमारा नमस्कार है ॥ ४६ ॥ महेश्वरी ! हम आपके रूप, शील, दिव्य धाम, ध्यान अथवा मन्त्र को नहीं जानते । शरण्ये ! विश्वाराध्ये! हम सारी सृष्टि की कारणभूता और सत्तास्वरूपा आपकी शरण में हैं ॥ ४७ ॥ माता ! द्युलोक आपका सिर है, नभोमण्डल आपका नाभिप्रदेश है । चन्द्र, सूर्य और अग्नि आपके त्रिनेत्र हैं, आपका जगना ही सृष्टि के लिये दिन और जागरण का हेतु है एवं आपका आँखें मूँद लेना ही सृष्टि के लिये रात्रि है ॥ ४८ ॥ देवता आपकी वाणी हैं, यह पृथ्वी आपका नितम्बप्रदेश तथा पाताल आदि नीचे के भाग आपके जङ्घा, जानु, गुल्फ और चरण हैं। धर्म आपकी प्रसन्नता और अधर्म कार्य आपके कोप के लिये है। आपका जागरण ही इस संसार की सृष्टि है और आपकी निद्रा ही इसका प्रलय है ॥ ४९ ॥ अग्नि आपकी जिह्वा है, ब्राह्मण आपके मुखकमल हैं। दोनों संध्याएँ आपकी दोनों भ्रुकुटियाँ हैं, आप विश्वरूपा हैं, वायु आपका श्वास है, लोकपाल आपके बाहु हैं और इस संसार की सृष्टि, स्थिति तथा संहार आपकी लीला है ॥ ५० ॥ पूर्णे ! ऐसी सर्वस्वरूपा आप महाकाली को हमारा प्रणाम है। आप ब्रह्मविद्यास्वरूपा हैं । ब्रह्मविज्ञान से ही आपकी प्राप्ति सम्भव है । सर्वसाररूपा, अनन्तस्वरूपिणी माता दुर्गे ! आप हम पर प्रसन्न हों ॥ ५१ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार उन दोनों के स्तुति करने पर भगवती महाकाली प्रसन्न हुईं और उन्होंने महाकाल के साथ उन्हें पुनः दर्शन दिया ॥ ५२ ॥ महाबाहु भगवान् शंकर भी महाकाल के उस शरीर से पुनः बाहर निकलकर रजतपर्वत के समान आभा से युक्त हो सुशोभित होने लगे । उन्होंने जगदम्बा से कहा कि इन्द्र भी भक्तिभाव से आपके दर्शन हेतु आये हैं और नगर के बाहर प्रतीक्षा में खड़े हैं। महेश्वरी ! आप आज्ञा दें तो आपके पास लाकर आपके इस दिव्य लक्षणों से सम्पन्न श्रेष्ठ विग्रह के उन्हें दर्शन करा दें ॥ ५३–५५ ॥ महामते! भगवान् शंकर के ये वचन सुनकर जगदम्बिका महाकाली ने महादेव से कहा — ॥ ५६ ॥ देवी बोलीं — महादेव ! यदि आप देवराज इन्द्र को मेरे दिव्य लोक में लाना चाहते हैं तो सुरश्रेष्ठ! आप ऐसा करें ॥ ५७ ॥ देव! दधीचि की हड्डियाँ ग्रहण करने का उसका जो [ब्रह्महत्यारूपी ] महापाप था, वह तो मेरे धाम के बाहर आने से ही प्रायः नष्ट हो गया है। महामते ! जो कुछ बचा है उसके शमन के लिये मेरे इस अन्तर्गृह के थोड़े-से रजकण उन्हें दे दें । तदनन्तर पापरहित हुआ इन्द्र जब मेरे समीप आयेगा तब मेरे दुर्लभ दर्शन उसे प्राप्त हो सकेंगे ॥ ५८-६०॥ श्रीमहादेवजी बोले — महाकाली से इस प्रकार आदेश पाकर महेश्वर शिव ने वहाँ जाकर महादेवी के अन्तःपुर की रज इन्द्र को देकर उसे दिव्यलोक में प्रवेश कराया ॥ ६१ ॥ महामुने ! इन्द्र ने महादेवी के अन्तःपुर में प्रवेश करके पद-पद पर पृथ्वीतल पर गिरकर जगदम्बिका के चरणों में प्रणाम किया ॥ ६२ ॥ नारदजी ! इन्द्र भगवान् सदाशिव के साथ भगवती के भवन के द्वार पर आये और उन्होंने देवदुर्लभ त्रैलोक्यजननी को देखकर भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर उन्हें प्रणाम किया, तत्पश्चात् सुरश्रेष्ठ इन्द्र ने उठकर वेद-शास्त्रों में वर्णित स्तोत्रों से उन जगद्वन्द्या महाकाली का स्तवन किया। तत्पश्चात् मुनिश्रेष्ठ ! महेश्वरी को पुनः प्रणाम करके ब्रह्मादि श्रेष्ठ देवगण अपने-अपने लोक को चले गये ॥ ६३–६५ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! आपने मुझसे जो पूछा था वह महाकाली के दिव्य दर्शन का अत्यन्त पुण्यमय आख्यान मैंने आपसे बताया ॥ ६६ ॥ जो मनुष्य भक्ति के साथ प्रयत्नपूर्वक इस आख्यान का पाठ अथवा श्रवण करता है उसके ब्रह्महत्याजनित पाप नहीं रहते हैं । उसे सौ अश्वमेधयज्ञों से होने वाले महापुण्य की प्राप्ति होती है तथा स्वास्थ्य, अपार सम्पत्ति और पुत्र-पौत्रादि का सुख प्राप्त होता है ॥ ६७-६८ ॥ जो मनुष्य अष्टमी, चतुर्दशी अथवा नवमी की रात्रि को ध्यानपूर्वक इसका पाठ करता है, वह देवी के श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करता है । अमावास्या की अर्द्धरात्रि में तथा पूर्णिमा को जो इसका पाठ करता है, उसे दस हजार गायों के दान का पूर्ण फल प्राप्त होता है । नारदजी ! उसके संकट तुरंत नष्ट हो जाते हैं और शीघ्र ही उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है । उसे शत्रुओं से किसी प्रकार का भय नहीं रहता और जगदम्बा की कृपा से संग्राम में उसकी सदा ही विजय होती है ॥ ६९–७२ ॥ पितरों के श्राद्धदिवस पर जो एकाग्रचित्त होकर इसका पाठ करता है, उसके पितृगण संतुष्ट होकर श्रेष्ठ कव्य का भोग करते हैं ॥ ७३ ॥ महामुने ! यदि अन्याय से उपार्जित धन से भी श्राद्ध किया जाता है अथवा इस प्रकार की अन्य कोई त्रुटि हो जाती है तो भी पितरों के लिये वह श्राद्ध परम प्रीतिदायक हो जाता है ॥ ७४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवत महापुराण के अन्तर्गत ‘श्रीभगवतीद्वार गमन से देवराजब्रह्महत्याहरणोपाख्यान’ नामक तिरसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६३ ॥ Content is available only for registered users. 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