June 3, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 009 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ अध्याय ९ सुन्दरकाण्ड की संक्षिप्त कथा नारदजी कहते हैं — सम्पाति की बात सुनकर हनुमान् और अङ्गद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा। फिर वे कहने लगे — ‘कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन दान देगा?’ ॥ १ ॥ वानरों की जीवन रक्षा और श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवनकुमार हनुमान् जी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये। ॥ २ ॥ लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैनाक पर्वत उठा। हनुमान् जी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया। फिर [छायाग्राहिणी] सिंहिका ने सिर उठाया। [ वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये ] हनुमान् जी ने उसे मार गिराया। समुद्र के पार जाकर उन्होंने लङ्कापुरी देखी। राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अन्तःपुर में तथा कुम्भ, कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित् तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं ॥ ३-४१/२ ॥’ अब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। अन्त में जब अशोकवाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष 1 के नीचे सीताजी उन्हें बैठी दिखायी दीं। वहाँ राक्षसियों उनकी रखवाली कर रही थीं। हनुमान् जी ने शिंशपा-वृक्ष पर चढ़कर देखा । रावण सीताजी से कह रहा था — ‘तू मेरी स्त्री हो जा’; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में ‘ना’ कर रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं — ‘तू रावण की स्त्री हो जा।’ जब रावण चला गया तो हनुमान् जी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया — ‘अयोध्या में दशरथ नाम वाले एक राजा थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं। उनमें श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी जनककुमारी सीता तुम्हीं हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है। श्रीरामचन्द्रजी इस समय वानरराज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है। पहचान के लिये गूढ़ संदेश के साथ श्रीरामचन्द्रजी ने अँगूठी दी है। उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो ‘ ॥ ५-९ ॥ सीताजी ने अँगूठी ले ली। उन्होंने वृक्ष पर बैठे हुए हनुमान् जी को देखा। फिर हनुमान् जी वृक्ष से उतरकर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे कहा — ‘यदि श्रीरघुनाथजी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते ?’ इस प्रकार शङ्का करती हुई सीताजी से हनुमान् जी ने इस प्रकार कहा — ‘ देवि सीते! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्रजी नहीं जानते। मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात् सेनासहित राक्षस रावण को मारकर वे तुम्हें अवश्य ले जायेंगे। तुम चिन्ता न करो। मुझे कोई अपनी पहचान दो।’ तब सीताजी ने हनुमान् जी को अपनी चूड़ामणि उतारकर दे दी और कहा — ‘भैया! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथजी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें। उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देनेवाली घटना का स्मरण दिलाना; [आज यहीं रहो] कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करनेवाले हो। तुम्हारे आने से मेरा दुःख बहुत कम हो गया है।’ चूड़ामणि और काकवाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमान् जी ने कहा — ‘कल्याणि ! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायेंगे। अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा।’ सीता बोलीं — ‘नहीं, श्रीरघुनाथजी ही आकर मुझे ले जायें’ ॥ १०-१५१/२ ॥ तदनन्तर हनुमान् जी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली। उन्होंने रक्षकों को मारकर उस वाटिका को उजाड़ डाला। फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मन्त्रिकुमारों तथा रावणपुत्र अक्षयकुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया। तत्पश्चात् इन्द्रजित् ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानरवीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया। उस समय रावण ने पूछा — ‘तू कौन है ?’ तब हनुमान् जी ने रावण को उत्तर दिया — ‘मैं श्रीरामचन्द्रजी का दूत हूँ। तुम श्रीसीताजी को श्रीरघुनाथजी की सेवा में लौटा दो; अन्यथा लङ्का निवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा।’ यह सुनकर रावण हनुमान् जी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया। तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी। पूँछ जल उठी। यह देख पवनपुत्र हनुमान् जी ने राक्षसों की पुरी लङ्का को जला डाला और सीताजी का पुनः दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। फिर समुद्र के पार आकर अङ्गद आदि से कहा — ‘मैंने सीताजी का दर्शन कर लिया है’ तत्पश्चात् अङ्गद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्रजी के पास आये और बोले — ‘सीताजी का दर्शन हो गया।’ श्रीरामचन्द्रजी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान् जी से पूछा- ॥ १६-२४ ॥ श्रीरामचन्द्रजी बोले — कपिवर! तुम्हें सीता का दर्शन कैसे हुआ? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ। तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो ॥ २५ ॥ नारदजी कहते हैं — यह सुनकर हनुमान् जी ने रघुनाथजी से कहा — ‘भगवन्! मैं समुद्र लाँघकर लङ्का में गया था। वहाँ सीताजी का दर्शन करके, लङ्कापुरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ। यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये। आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात् निश्चय ही आपको सीताजी की प्राप्ति होगी।’ श्रीरामचन्द्रजी उस मणि को हाथ में ले, विरह से व्याकुल होकर रोने लगे और बोले — ‘इस मणि को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया। अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता।’ उस समय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचन्द्रजी को समझा-बुझाकर शान्त किया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजी समुद्र के तट पर गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था। विभीषण ने इतना ही कहा था कि ‘ भैया! आप सीता को श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में समर्पित कर दीजिये।’ इसी अपराध के कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचन्द्रजी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लङ्का के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया। इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लङ्का जाने के लिये रास्ता माँगा । जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्रजी के पास आकर बोला — ‘भगवन्! नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लङ्का में जाइये। पूर्वकाल में आपही ने मुझे गहरा बनाया था।’ यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डों से एक पुल बँधवाया और उसी से वे वानरों सहित समुद्र के पार गये। वहाँ सुवेल पर्वत पर पड़ाव डालकर वहीं से उन्होंने लङ्कापुरी का निरीक्षण किया ॥ २६-३३ ॥ 1. शिंशपा-वृक्ष — १. शीशम का पेड़ । २. अशोक वृक्ष । ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण कथा के अन्तर्गत सुन्दरकाण्ड की कथा का वर्णन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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