अग्निपुराण – अध्याय 025
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
पचीसवाँ अध्याय
वासुदेव, संकर्षण आदि के मन्त्रों का निर्देश तथा एक व्यूह से लेकर द्वादश व्यूह तक के व्यूहों का एवं पञ्चविंश और षड्विंश व्यूह का वर्णन
वासुदेवादिमन्त्राणां लक्षणानि

नारदजी कहते हैं — ऋषियो ! अब मैं वासुदेव आदि के आराधनीय मन्त्रों का लक्षण बता रहा हूँ। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार व्यूह मूर्तियों के नाम के आदि में , फिर क्रमशः ‘अ आ अं अः’ ये चार बीज तथा ‘नमो भगवते’ पद जोड़ने चाहिये और अन्त में ‘नमः’ पद को जोड़ देना चाहिये। ऐसा करने से इनके पृथक्- पृथक् चार मन्त्र बन जाते हैं।1  इसके बाद नारायण-मन्त्र है, जिसका स्वरूप है ‘ॐ नमो नारायणाय’, ‘ॐ तत्सद् ब्रह्मणे ॐ नमः।’ — यह ब्रह्ममन्त्र है । ‘ॐ विष्णवे नमः।’ यह विष्णुमन्त्र है। ‘ॐ क्ष्रौं ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमः। ‘   यह नरसिंहमन्त्र है। ‘ॐ भूर्नमो भगवते वराहाय।’ – यह भगवान् वराह का मन्त्र है। ये सभी मन्त्रराज हैं। उपर्युक्त नौ मन्त्रों के वासुदेव आदि नौ नायक हैं, जो उपासकों के वल्लभ (इष्टदेवता) हैं। इनकी अङ्ग कान्ति क्रमशः जवाकुसुम के सदृश अरुण, हल्दी के समान पीली, नीली, श्यामल, लोहित, मेघ-सदृश, अग्नितुल्य तथा मधु के समान पिङ्गल है। तन्त्रवेत्ता पुरुषों को स्वर के बीजों द्वारा क्रमशः पृथक्-पृथक् ‘हृदय’ आदि अङ्गों की कल्पना करनी चाहिये। उन बीजों के अन्त में अङ्गों के नाम रहने चाहिये (यथा ॐ आं हृदयाय नमः। ॐ ईं शिरसे स्वाहा । ॐ ऊं शिखायै वषट्।’ इत्यादि) ॥ १-५१/२

जिनके आदि में व्यञ्जन अक्षर होते हैं, उनके लक्षण अन्य प्रकार के हैं। दीर्घ स्वरों के संयोग से उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। उनके अन्त में अङ्गों के नाम होते हैं और उन अङ्ग नामों के अन्त में ‘नमः’ आदि पद जुड़े होते हैं। (यथा- ‘क्लां हृदयाय नमः । क्लीं शिरसे स्वाहा।’ इत्यादि । ) ह्रस्व स्वरों से युक्त बीजवाले अङ्ग ‘उपाङ्ग’ कहलाते हैं। देवता के नाम सम्बन्धी अक्षरों को पृथक्-पृथक् करके, उनमें से प्रत्येक के अन्त में बिन्द्वात्मक बीज का योग करके उनसे अङ्गन्यास करना भी उत्तम माना गया है। अथवा नाम के आदि अक्षर को दीर्घ स्वरों एवं ह्रस्व स्वरों से युक्त करके अङ्ग – उपाङ्ग की कल्पना करे और उनके द्वारा क्रमशः न्यास करे। हृदय आदि अङ्गों की कल्पना के लिये व्यञ्जनों का यही क्रम है।

देवता के मन्त्र का जो अपना स्वर-बीज है, उसके अन्त में उसका अपना नाम देकर अङ्ग- सम्बन्धी नामों द्वारा पृथक् पृथक् वाक्य रचना करके उससे युक्त हृदयादि द्वादश अङ्गों की कल्पना करे। पाँच से लेकर बारह अङ्गों तक के न्यास- वाक्य की कल्पना करके सिद्धि के अनुरूप उनका जप करे। हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र — ये छ: अङ्ग हैं। मूलमन्त्र के बीजों का इन अङ्गों में न्यास करना चाहिये। बारह अङ्ग ये हैं — हृदय, सिर, शिखा, हाथ, नेत्र, उदर, पीठ, बाहु, ऊरु, जानु, जङ्घा और पैर इनमें क्रमशः न्यास करना चाहिये। ‘कं टं पं शं वैनतेयाय नमः।’ — यह गरुडसम्बन्धी बीजमन्त्र है। ‘खं ठं फं षं गदायै नमः।’ — यह गदा मन्त्र है। ‘गं डं वं सं पुष्ट्यै नमः।’ — यह पुष्टिदेवी सम्बन्धी मन्त्र है। ‘घं टं भं हं श्रियै नमः।’ — यह श्रीमन्त्र है। ‘चं णं मं क्षं’ —यह पाञ्चजन्य (शङ्ख) का मन्त्र है। ‘छं तं पं कौस्तुभाय नमः।’ — यह कौस्तुभमन्त्र है। ‘जं खं वं सुदर्शनाय नमः। ‘ — यह सुदर्शनचक्र का मन्त्र है। ‘सं वं दं लं श्रीवत्साय नमः।’ — यह श्रीवत्समन्त्र है ॥ ६- १४ ॥

‘ॐ वं वनमालायै नमः।’– यह वनमाला का और ॐ पं० पद्मनाभाय नमः।’ यह पद्म या पद्मनाभ का मन्त्र है। बीजरहित पदवाले मन्त्रों का अङ्गन्यास उनके पदों द्वारा ही करना चाहिये। नामसंयुक्त जात्यन्त2  पदों द्वारा हृदय आदि पाँच अङ्गों में पृथक्-पृथक् न्यास करे। पहले प्रणव का उच्चारण, फिर हृदय आदि पूर्वोक्त पाँचों अङ्गों के नाम क्रम यह है (उदाहरण के लिये यों समझना चाहिये – ॐ हृदयाय नमः।’ इत्यादि।) पहले प्रणव तथा हृदय-मन्त्र का उच्चारण करे। (अर्थात् – ‘ॐ हृदयाय नमः’ कहकर हृदय का स्पर्श करे ।) फिर ‘पराय शिरसे स्वाहा’ बोलकर मस्तक का स्पर्श करे। तत्पश्चात् इष्टदेव का नाम लेकर शिखा को छूये। अर्थात् ‘वासुदेवाय शिखायै वषट्।’ – बोलकर शिखा का स्पर्श करे। इसके बाद ‘आत्मने कवचाय हुम् ।’ – बोलकर कवच न्यास करे। पुनः देवता का नाम लेकर, अर्थात् ‘वासुदेवाय अस्त्राय फट्।’ – बोलकर अस्त्र-न्यास की क्रिया पूरी करे। आदि में ॐकारादि’ जो नामात्मक पद है, उसके अन्त में ‘नमः’ पद जोड़ दे और उस नामात्मक पद को चतुर्थ्यन्त करके बोले। एक व्यूह से लेकर षड्विंश व्यूह तक के लिये यह समान मन्त्र है। कनिष्ठा से लेकर सभी अङ्गुलियों में हाथ के अग्रभाग में प्रकृति का अपने शरीर में ही पूजन करे। ‘पराय’ पद से एकमात्र परम पुरुष परमात्मा का बोध होता है। वही एक से दो हो जाता है, अर्थात् प्रकृति और पुरुष – दो व्यूहों में अभिव्यक्त होता है। ‘ॐ परायाग्न्यात्मने नमः ।’ – यह व्यापक मन्त्र है। वसु, अर्क (सूर्य) और अग्नि – ये त्रिव्यूहात्मक मूर्तियाँ हैं — इन तीनों में अग्नि का न्यास करके हाथ और सम्पूर्ण शरीर में व्यापक – न्यास करे ॥ १५-२० ॥

वायु और अर्क का क्रमशः दायें और बायें दोनों हाथों की अँगुलियों में न्यास करे तथा हृदय में मूर्तिमान् अग्नि का चिन्तन करे। त्रिव्यूह चिन्तन का यही क्रम है। चतुर्व्यूह में चारों वेदों का न्यास होता है। ऋग्वेद का सम्पूर्ण देह तथा हाथ में व्यापक- न्यास करना चाहिये। अङ्गुलियों में यजुर्वेद का हथेलियों में अथर्ववेद का तथा हृदय और चरणों में शीर्षस्थानीय सामवेद का न्यास करे। पञ्चव्यूह में पहले आकाश का पूर्ववत् शरीर और हाथ में व्यापक -न्यास करे। फिर अँगुलियों में भी आकाश का न्यास करके वायु, ज्योति, जल और पृथ्वी का क्रमशः मस्तक, हृदय, गुह्य और चरण — इन अङ्गों में न्यास करे। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी — इन पाँच तत्त्वों को ‘पञ्चव्यूह’ कहा गया है। मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका — इन छः इन्द्रियों को षड्व्यूह की संज्ञा दी गयी है। मन का व्यापक-न्यास करके शेष पाँच का अङ्गुष्ठ आदि के क्रम से पाँचों अँगुलियों में तथा सिर, मुख, हृदय, गुह्य और चरण — इन पाँच अङ्गों में भी न्यास करे। यह “करणात्मक व्यूह का न्यास’ कहा गया है। आदिमूर्ति जीव सर्वत्र व्यापक है। भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक — ये सात लोक ‘सप्तव्यूह’ कहे गये हैं। इनमें से प्रथम भूर्लोक का हाथ एवं सम्पूर्ण शरीर में न्यास करे। भुवर्लोक आदि पाँच लोकों का अङ्गुष्ठ आदि के क्रम से पाँचों अङ्गुलियों में तथा सातवें सत्यलोक का हथेली में न्यास करे। इस प्रकार यह लोकात्मक सप्त व्यूह है, जिसका पूर्वोक्त क्रम से शरीर में न्यास किया जाता है। अब यज्ञात्मक सप्तव्यूह का परिचय दिया जाता है। सप्त यज्ञस्वरूप यज्ञपुरुष परमात्मदेव श्रीहरि सम्पूर्ण शरीर एवं सिर, ललाट, मुख, हृदय, गुह्य और चरण में स्थित हैं, अर्थात् उन अङ्गों में उनका न्यास करना चाहिये । वे यज्ञ इस प्रकार हैं — अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम — ये छः यज्ञ तथा सातवें यज्ञात्मा — इन सात रूपों को ‘यज्ञमय सप्तव्यूह’ कहा गया है ॥ २१-२८१/२

बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध — ये आठ तत्त्व अष्टव्यूहरूप हैं। इनमें से बुद्धितत्त्व का हाथ और शरीर में व्यापक न्यास करे। फिर उपर्युक्त आठों तत्त्वों का क्रमशः चरणों के तलवों, मस्तक, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य देश और पैर इन आठ अङ्गों में न्यास करना चाहिये। इन सबको ‘अष्टव्यूहात्मक पुरुष’ कहा गया है। जीव, बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-गुण — इनका समुदाय ‘नवव्यूह’ है। इनमें से जीव का दोनों हाथों के अँगूठों में न्यास करे और शेष आठ तत्त्वों का क्रमशः दाहिने हाथ की तर्जनी से लेकर बायें हाथ की तर्जनी तक आठ अंगुलियों में न्यास करे। सम्पूर्ण देह, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, जानु और पाद — इन नौ स्थानों में उपर्युक्त नौ तत्त्वों का न्यास करके इन्द्र का पूर्ववत् व्यापक न्यास किया जाय तो यही ‘दशव्यूहात्मक न्यास’ हो जाता है ॥ २९-३३ ॥

दोनों अङ्गुष्ठों में, तलद्वय में, तर्जनी आदि आठ अँगुलियों में तथा सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य (उपस्थ और गुदा), जानुद्वय और पादद्वय — इन ग्यारह अङ्गों में ग्यारह इन्द्रियात्मक तत्त्वों का जो न्यास किया जाता है, उसे ‘एकादशव्यूह- न्यास’ कहा गया है। वे ग्यारह तत्त्व इस प्रकार हैं — मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ मन का व्यापक न्यास करे । अङ्गुष्ठद्वय में श्रवणेन्द्रिय का न्यास करके शेष त्वचा आदि आठ तत्त्वों का तर्जनी आदि आठ अँगुलियों में न्यास करना चाहिये। शेष जो ग्यारहवाँ तत्त्व (उपस्थ) है, उसका तलद्वय में न्यास करे। मस्तक, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, चरण, गुह्य, ऊरुद्वय, जङ्घा, गुल्फ और पैर — इन ग्यारह अङ्गों में भी पूर्वोक्त ग्यारह तत्त्वों का क्रमशः न्यास करे। विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, केशव, नारायण, माधव और गोविन्द — यह ‘द्वादशात्मक व्यूह’ है। इनमें से विष्णु का तो व्यापक न्यास करे और शेष भगवन्नामों का अङ्गुष्ठ आदि दस अँगुलियों एवं करतल में न्यास करके, फिर पादतल, दक्षिण पाद, दक्षिण जानु, दक्षिण कटि, सिर, शिखा, वक्ष, वाम कटि, मुख, वाम जानु और वाम पादादि में भी न्यास करना चाहिये ॥ ३४-३९ ॥

यह द्वादशव्यूह हुआ। अब पञ्चविंश एवं षड्विंश व्यूह का परिचय दिया जाता है। पुरुष, बुद्धि, अहंकार, मन, चित्त, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका, वाक्, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ, भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश — ये पचीस तत्त्व हैं। इनमें से पुरुष का सर्वाङ्ग में व्यापक – न्यास करके, दस का अङ्गुष्ठ आदि में न्यास करे। शेष का करतल, सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु, पैर, उपस्थ, हृदय और मूर्धा में क्रमशः न्यास करे । इन्हीं में सर्वप्रथम परमपुरुष परमात्मा को सम्मिलित करके उनका पूर्ववत् व्यापक न्यास कर दिया जाय तो षड्विंश व्यूह का न्यास सम्पन्न हो जाता है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अष्टदल कमलचक्र में प्रकृति का चिन्तन करके उसका पूजन करे। उस कमल के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दलों में हृदय आदि चार अङ्गों का न्यास करे। अग्निकोण आदि के दलों में अस्त्र एवं वैनतेय (गरुड) आदि को पूर्ववत् स्थापित करे। इसी तरह पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि दिक्पालों का चिन्तन करे। इन सबके ध्यान-पूजन की विधि एक सी है। (सूर्य, सोम और अग्निरूप) त्रिव्यूह में अग्नि का स्थान मध्य में है। पूर्वादि दिशाओं के दलों में जिनका आवास है, उन देवताओं के साथ कमल की कर्णिका में नाभस (आकाश की भाँति व्यापक आत्मा) तथा मानस (अन्तरात्मा) विराजमान हैं ॥ ४०-४८ ॥

साधक को चाहिये कि वह सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिये तथा राज्य पर विजय पाने के लिये विश्वरूप (परमात्मा) का यजन करे। सम्पूर्ण व्यूहों, हृदय आदि पाँचों अङ्गों, गरुड आदि तथा इन्द्र आदि दिक्पालों के साथ ही उन श्रीहरि की पूजा का विधान है। ऐसा करनेवाला उपासक सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर सकता है। अन्त में विष्वक्सेन की नाम – मन्त्र से पूजा करे। नाम के साथ ‘रौं’ बीज लगा ले, अर्थात् ‘रौं विष्वक्सेनाय नमः।’ बोलकर उनके लिये पूजनोपचार अर्पित करे ॥ ४९-५० ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वासुदेवादि मन्त्रों के लक्षण [तथा न्यास] का वर्णन’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥

1. ॐ अं नमो भगवते वासुदेवाय नमः। ॐ आं नमो भगवते संकर्षणाय नमः । ॐ अं नमो भगवते प्रद्युम्नाय नमः । ॐ अः नमो भगवते अनिरुद्धाय नमः ।

2. हृदय की ‘नमः’, सिर की ‘स्वाहा’, शिखा की ‘वषट्’, कवच की ‘हुम्’, नेत्र की ‘वौषट्’ तथा अस्त्र की ‘फट्’ जाति है।

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