अग्निपुराण – अध्याय 085
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
पचासीवाँ अध्याय
निर्वाण–दीक्षा के अन्तर्गत प्रतिष्ठाकला के शोधन की विधि का वर्णन
प्रतिष्ठाकलाशोधनोक्तिः

भगवान् शंकर कहते हैं — स्कन्द ! तदनन्तर शुद्ध और अशुद्ध कलाओं का शान्त और नादान्तसंज्ञक ह्रस्व-दीर्घ प्रयोग द्वारा संधान करे। संधान का मन्त्र इस प्रकार है — ‘ॐ ह्रां ह्लां ह्लीं ह्रां।’ इसके बाद प्रतिष्ठाकला में निविष्ट जल, तेज, वायु, आकाश, पाँच तन्मात्रा, दस इन्द्रिय, बुद्धि, तीनों गुण, चौबीसवाँ अहंकार और पुरुष — इन पचीस तत्त्वों तथा ‘क’ से लेकर ‘य’ तक के पचीस अक्षरों का चिन्तन करे। प्रतिष्ठाकला में छप्पन भुवन हैं और उनमें उन्हीं के समान नामवाले उतने ही रुद्र जानने चाहिये। इनकी नामावली इस प्रकार है — ॥ १-५ ॥

अमरेश, प्रभास, नैमिष, पुष्कर, आषाढ़, डिण्डि, भारभूति तथा लकुलीश — ( यह प्रथम अष्टक कहा गया) । हरिश्चन्द्र, श्रीशैल, जल्प, आम्रातकेश्वर, महाकाल, मध्यम, केदार और भैरव – (यह द्वितीय अष्टक बताया गया) । तत्पश्चात् गया, कुरुक्षेत्र, नाल, कनखल, विमल, अट्टहास, महेन्द्र और भीम — ( यह तृतीय अष्टक कहा गया) । वस्त्रापद, रुद्रकोटि, अविमुक्त, महालय, गोकर्ण, भद्रकर्ण, स्वर्णाक्ष और स्थाणु — ( यह चौथा अष्टक बताया गया)। अजेश, सर्वज्ञ, भास्वर तदनन्तर सुबाहु, मन्त्ररूपी, विशाल, जटिल तथा रौद्र — (यह पाँचवाँ अष्टक हुआ) । पिङ्गलाक्ष, कालदंष्ट्री, विधुर, घोर, प्राजापत्य, हुताशन, कालरूपी तथा कालकर्ण — (यह छठा अष्टक कहा गया)। भयानक, पतङ्ग, पिङ्गल, हर, धाता, शङ्कुकर्ण, श्रीकण्ठ तथा चन्द्रमौलि (यह सातवाँ अष्टक बताया गया)। ये छप्पन रुद्र छप्पन भुवनों में व्याप्त हैं। अब बत्तीस पद बताये जाते हैं ॥ ६-१३ ॥

व्यापिन्, अरूपिन्, प्रथम, तेजः, ज्योतिः, अरूप, पुरुष, अनग्ने, अधूम, अभस्मन्, अनादे, नाना नाना, धूधू धूधू, ॐ भूः, ॐ भुवः, ॐ स्वः, अनिधन, निधन, निधनोद्भव, शिव, शर्व, परमात्मन्, महेश्वर महादेव, सद्भाव, ईश्वर, महातेजा, योगाधिपते, मुझ, प्रमथ, सर्व, सर्वसर्व — ये बत्तीस पद हैं। दो बीज, तीन मन्त्र-वामदेव, शिर, शिखा, गान्धारी और सुषुम्णा – दो नाड़ियाँ, समान और उदान नामक दो प्राणवायु और पायु – दो इन्द्रियाँ, रस नामक विषय, रूप, शब्द, स्पर्श तथा रस – ये चार गुण, कमल से अङ्कित श्वेत अर्धचन्द्राकार मण्डल, सुषुप्ति अवस्था तथा प्रतिष्ठा में कारणभूत भगवान् विष्णु-इस प्रकार भुवन आदि सब तत्त्वों का प्रतिष्ठा के भीतर चिन्तन करके प्रतिष्ठाकला-सम्बन्धी मन्त्र से शिष्य के शरीर में भावना द्वारा प्रवेश करके उसे उस कलापाश से मुक्त करे ॥ १४-१८ ॥

‘ॐ हां हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट् स्वाहा ।’ – इस स्वाहान्त- मन्त्र से ही पूरक प्राणायाम तथा अङ्कुशमुद्रा द्वारा उक्त कलापाश का आकर्षण करे। तत्पश्चात् ‘ॐ हूं हां हीं हां हूं प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट्। – इस मन्त्र से संहारमुद्रा और कुम्भक प्राणायाम द्वारा उसे हृदय के नीचे नाड़ीसूत्र से लेकर ‘ॐ हूं हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय नमः। – इस मन्त्र से उद्भवमुद्रा तथा रेचक प्राणायाम द्वारा कुण्ड में स्थापित करे। तदनन्तर ‘ॐ हां हां हीं हां प्रतिष्ठाकलाद्वाराय नमः।’– इस मन्त्र से अर्घ्य दे, पूजन करके स्वाहान्त मन्त्र द्वारा तीन-तीन आहुतियाँ देते हुए संतर्पण और संनिधापन करे। इसके बाद ‘ॐ हां विष्णवे नमः। – इस मन्त्र से विष्णु का आवाहन, पूजन और संतर्पण करके निम्नाङ्कित प्रार्थना करे ‘विष्णो! आपके अधिकार में मैं मुमुक्षु शिष्य को दीक्षा दे रहा हूँ। आप सदा अनुकूल रहें।’ इस प्रकार विष्णु भगवान् से निवेदन करे। तत्पश्चात् वागीश्वरी देवी और वागीश्वर देवता का पूर्ववत् आवाहन, पूजन और तर्पण करके शिष्य की छाती में ताड़न करे। ताड़न का मन्त्र इस प्रकार है — ॐ हां हं हः हूं फट्।’ इसी मन्त्र से शिष्य के हृदय में प्रवेश करके उसके पाशबद्ध चैतन्य को अस्त्र-मन्त्र एवं ज्येष्ठ अङ्कुशमुद्रा द्वारा उस पाश से पृथक् करे। यथा- ‘ॐ हां हं हः फट्।’ उक्त मन्त्र के ही अन्त में ‘नमः स्वाहा’ लगाकर उससे सम्पुटित मन्त्र द्वारा जीवचैतन्य को खींचे तथा नमस्कारान्त आत्ममन्त्र से उसको अपने आत्मा में नियोजित करे। आत्मा में नियोजन का मन्त्र यों है — ‘ॐ हां हां हामात्मने नमः ।’ ॥ १९-२६ ॥

इसके बाद पूर्ववत् उस जीवचैतन्य के पिता से संयुक्त होने की भावना करके वामा उद्धव- मुद्रा द्वारा उसे देवी के गर्भ में स्थापित करे। साथ ही इस मन्त्र का उच्चारण करे — ‘ॐ हां हां हामात्मने नमः।’ देहोत्पत्ति के लिये हृदय-मन्त्र से पाँच बार और जीवात्मा की स्थिति के लिये शिरोमन्त्र से पाँच बार आहुति दे । अधिकार प्राप्ति के लिये शिखा- मन्त्र से, भोगसिद्धि के लिये कवच मन्त्र से, लय के लिये अस्त्र-मन्त्र से, स्रोतः सिद्धि के लिये शिव- मन्त्र से तथा तत्त्वशुद्धि के लिये हृदय-मन्त्र से इसी तरह पाँच-पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। इसके बाद पूर्ववत् गर्भाधान आदि संस्कार करे। पाश की शिथिलता और निष्कृति ( प्रायश्चित्त) – के लिये शिरोमन्त्र से सौ आहुतियाँ दे । मलशक्ति के तिरोधान (निवारण) के लिये स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्र से पाँच बार हवन करे ॥ २७-३० ॥

इस प्रकार पाश-वियोग होने पर भी सात बार अस्त्र-मन्त्र जपपूर्वक कलाबीज से युक्त अस्त्र- मन्त्ररूपी कटार से उस कलापाश को काट डाले। वह मन्त्र इस प्रकार है — ॐ ह्रीं प्रतिष्ठकलापाशाय हूं फट्। तदनन्तर पाश शस्त्र से उस पाश को मसलकर वर्तुलाकार बनाकर पूर्ववत् घृतपूर्ण स्रुवा में रख दे और कला शस्त्र से ही उसकी आहुति दे दे। इसके बाद पाशाङ्कुर की निवृत्ति के लिये अस्त्र-मन्त्र से पाँच आहुतियाँ दे और प्रायश्चित्त- निवारण के लिये फिर आठ आहुतियों का हवन करे। आहुति के लिये अस्त्र-मन्त्र इस प्रकार है — ‘ॐ हः अस्त्राय हूं फट्।’ ॥ ३१-३५ ॥

इसके बाद हृदय-मन्त्र से भगवान् हृषीकेश का आवाहन करके पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन और तर्पण करने के पश्चात् अधिकार समर्पण करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है — ‘ॐ हां विष्णो रसं शुल्कं गृहाण स्वाहा।’ इसके बाद उन्हें भगवान् शिव की आज्ञा इस प्रकार सुनावे — ‘हरे ! इस पशु का पाश सम्पूर्णतः दग्ध हो चुका है। अब आपको इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये।’ शिवाज्ञा सुनाने के बाद रौद्री नाड़ी द्वारा गोविन्द का विसर्जन करके राहुमुक्त आधे भाग वाले चन्द्रमण्डल के समान आत्मा को नियोजित करे – संहारमुद्रा द्वारा उसे आत्मस्थ करके उद्भवमुद्रा द्वारा सूत्र में उसकी संयोजना करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् जलबिन्दु-सदृश उस आत्मा को शिष्य के सिर पर स्थापित करे। इससे उसका आप्यायन होता है। फिर अग्नि के पिता-माता का पुष्प आदि से पूजन एवं विसर्जन करके विधि की पूर्ति के लिये विधानपूर्वक पूर्णाहुति प्रदान करे। ऐसा करने से प्रतिष्ठाकला का भी शोधन सम्पन्न हो जाता है ॥ ३६-४१ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘निर्वाण- दीक्षा के अन्तर्गत प्रतिष्ठाकला के शोधन की विधि का वर्णन’ नामक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८५ ॥

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