अग्निपुराण – अध्याय 097
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
सत्तानबेवाँ अध्याय
शिव प्रतिष्ठा की विधि
शिवप्रतिष्ठाकथनम्

भगवान् शिव कहते हैं — स्कन्द ! प्रातः काल नित्य कर्म के अनन्तर द्वार देवताओं का पूजन करके मण्डप में प्रवेश करे। पूर्वोक्त विधि से देहशुद्धि आदि का अनुष्ठान करे। दिक्पालों का शिव- कलश का तथा वार्धानी (जलपात्र) – का पूजन करके अष्टपुष्पिका द्वारा शिवलिङ्ग की अर्चना करे और क्रमशः आहुति दे, अग्रिदेव को तृप्त करे। तदनन्तर शिव की आज्ञा ले ‘अस्त्राय फट्’ का उच्चारण करते हुए मन्दिर में प्रवेश करे तथा “अस्त्राय हूं फट्।‘ बोलकर वहाँ के विघ्नों का अपसारण करे ॥ १-३ ॥’

शिला के ठीक मध्यभाग में शिवलिङ्ग की स्थापना न करे; क्योंकि वैसा करने पर वेध दोष की आशङ्का रहती है। इसलिये मध्यभाग को त्यागकर, एक या आधा जौ किंचित् ईशान भाग का आश्रय ले आधारशिला में शिवलिङ्ग की स्थापना करे। मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुए उस (अनन्त) नाम-धारिणी, सर्वाधारस्वरूपिणी, सर्वव्यापिनी शिला को सृष्टियोग द्वारा अविचल भाव से स्थापित करे। अथवा निम्नाङ्कित मन्त्र से शिव की आसन स्वरूपा उस शिला की पूजा करे — ‘ॐ नमो व्यापिनि भगवति स्थिरेऽचले ध्रुवे ह्रीं लं ह्रीं स्वाहा।’ पूजन से पहले यों कहे — ‘आधारशक्ति-स्वरूपिणि शिले! तुम्हें भगवान् शिव की आज्ञा से यहाँ नित्य निरन्तर स्थिरतापूर्वक स्थित रहना चाहिये।’ ऐसा कहकर पूजन करने के पश्चात् अवरोधिनी-मुद्रा से शिला को अवरुद्ध (स्थिरतापूर्वक स्थापित ) कर दे ॥ ४-८ ॥

हीरे आदि रत्न, उशीर (खश) आदि ओषधियाँ, लौह और सुवर्ण, कांस्य आदि धातु, हरिताल, आदि, धान आदि के पौधे तथा पूर्वकथित अन्य वस्तुएँ क्रमशः एकत्र करे और मन-ही-मन भावना करे कि ‘ये सब वस्तुएँ कान्ति, आरोग्य, देह, वीर्य और शक्तिस्वरूप हैं’। इस प्रकार एकाग्रचित्त से भावना करके लोकपाल और शिव सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा पूर्वादि कुण्डों में इन वस्तुओं में से एक-एक को क्रमशः डाले। सोने अथवा ताँबे के बने हुए कछुए या वृषभ को द्वार के सम्मुख रखकर नदी के किनारे की या पर्वत के शिखर की मिट्टी से युक्त करे और उसे बीच के कुण्ड आदि में डाल दे। अथवा सुवर्णनिर्मित मेरु को मधूक, अक्षत और अञ्जन से युक्त करके उसमें डाले अथवा सोने या चाँदी की बनी हुई पृथ्वी को सम्पूर्ण बीजों और सुवर्ण से संयुक्त करके उस मध्यम कुण्ड में डाले । अथवा सोने, चाँदी या सब प्रकार के लोह से निर्मित सुवर्णमय केसरों से युक्त कमल या अनन्त (शेषनाग) – की मूर्ति को उसमें छोड़े ॥ ९-१५ ॥

शक्ति से लेकर मूर्ति पर्यन्त अथवा शक्ति से लेकर शक्ति-पर्यन्त तत्त्व का देवाधिदेव महादेव के लिये आसन निर्मित करके उसमें खीर या गुग्गुल का लेप करे। तत्पश्चात् वस्त्र से गर्त को आच्छादित करके कवच और अस्त्र-मन्त्र द्वारा उसकी रक्षा करे। फिर दिक्पालों को बलि देकर आचार्य आचमन करे। शिला और गर्त के सङ्ग- दोष को निवृत्ति के लिये शिव मन्त्र से अथवा अस्त्र-मन्त्र से विधिपूर्वक सौ आहुतियाँ दे । साथ ही पूर्णाहुति भी करे। वास्तु देवताओं को एक- एक आहुति देकर तृप्त करने के पश्चात् हृदय- मन्त्र से भगवान्‌ को उठाकर मङ्गल वाद्य और मङ्गल-पाठ आदि के साथ ले आवे ॥ १६-१९ ॥

गुरु भगवान् के आगे-आगे चले और चार दिशाओं में स्थित चार मूर्तिपालों के साथ यजमान स्वयं भगवान्‌ की सवारी के पीछे-पीछे चले। मन्दिर आदि के चारों ओर घुमाकर शिवलिङ्ग को भद्र-द्वार के सम्मुख नहलावे और अर्घ्य देकर उसे मन्दिरके भीतर ले जाय खुले द्वार से अथवा द्वार के लिये निश्चित स्थान से शिवलिङ्ग को मन्दिर में ले जाय। इन सबके अभाव में द्वार बंद करनेवाली शिला से शून्य-मार्ग से अथवा उस शिला के ऊपर से होकर मन्दिर में प्रवेश का विधान है। दरवाजे से ही महेश्वर को मन्दिर में ले जाय, परंतु उनका द्वार से स्पर्श न होने दे। यदि देवालय का समारम्भ हो रहा हो तो किसी कोण से भी शिवलिङ्ग को मन्दिर के भीतर प्रविष्ट कराया जा सकता है। व्यक्त अथवा स्थूल शिवलिङ्ग के मन्दिर प्रवेश के लिये सर्वत्र यही विधि जाननी चाहिये। घर में प्रवेश का मार्ग द्वार ही है, इसका साधारण लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है। यदि बिना द्वार के घर में प्रवेश किया जाय तो गोत्र का नाश होता है — ऐसी मान्यता है ॥ २०–२४१/२

तदनन्तर पीठ पर, द्वार के सामने शिवलिङ्ग को स्थापित करके नाना प्रकार के वाद्यों तथा मङ्गलसूचक ध्वनियों के साथ उस पर दूर्वा और अक्षत चढ़ावे तथा ‘समुत्तिष्ठ नमः’ – ऐसा कहकर महापाशुपत – मन्त्र का पाठ करे। इसके बाद आचार्य गर्त में रखे हुए घट को वहाँ से हटाकर मूर्तिपालकों के साथ यन्त्र में स्थापित करावे और उसमें कुङ्कुम आदि का लेप करके, शक्ति और शक्तिमान् की एकता का चिन्तन करते हुए लयान्त मूल मन्त्र का उच्चारण करके, उस आलम्बनलक्षित घट का स्पर्श पूर्वक पुनः गर्त में ही स्थापना करा दे। ब्रह्मभाग के एक अंश, दो अंश, आधा अंश अथवा आठवें अंश तक या सम्पूर्ण ब्रह्मभाग का ही गर्त में प्रवेश करावे। फिर नाभिपर्यन्त दीर्घाओं के साथ शीशे का आवरण देकर, एकाग्रचित्त हो, नीचे के गर्त को बालू से पाट दे और कहे — ‘भगवन्! आप सुस्थिर हो जाइये ‘ ॥ २५-३० ॥

तदनन्तर लिङ्ग के स्थिर हो जाने पर सकल (सावयव ) रूपवाले परमेश्वर का ध्यान करके, शक्त्यन्त-मूल- मन्त्र का उच्चारण करते हुए, शिवलिङ्ग के स्पर्शपूर्वक उसमें निष्कलीकरण-न्यास करे। जब शिवलिङ्ग की स्थापना हो रही हो, उस समय जिस-जिस दिशा का आश्रय ले, उस-उस दिशा के दिक्पाल सम्बन्धी मन्त्र का उच्चारण करके पूर्णाहुति- पर्यन्त होम करे और दक्षिणा दे। यदि शिवलिङ्ग से शब्द प्रकट हो अथवा उसका मुख्यभाग हिले या फट-फूट जाय तो मूल मन्त्र से या ‘बहुरूप’ मन्त्र द्वारा सौ आहुतियाँ दे। इसी प्रकार अन्य दोष प्राप्त होने पर शिव शास्त्रोक्त शान्ति करे। उक्त विधि से यदि शिवलिंग में न्यास का विधान किया जाय तो कर्ता दोष का भागी नहीं होता। तदनन्तर लक्षण स्पर्शरूप पीठबन्ध करके गौरीमन्त्र से उसका लय करे। फिर पिण्डी में सृष्टि न्यास करे ॥ ३१-३५ ॥

लिङ्ग के पार्श्वभाग में जो संधि (छिद्र) हो, उसको बालू एवं वज्रलेप से भर दे। तत्पश्चात् गुरु मूर्तिपालकों के साथ शान्ति कलश के आधे जल से शिवलिङ्ग को नहलाकर, अन्य कलशों तथा पञ्चामृत आदि से भी अभिषिक्त करे। फिर चन्दन आदि का लेप लगा, जगदीश्वर शिव की पूजा करके, उमा- महेश्वर-मन्त्रों द्वारा लिङ्गमुद्रा से उन दोनों का स्पर्श करे। इसके बाद छहों अध्वाओं के न्यासपूर्वक त्रितत्त्वन्यास करके, मूर्तिन्यास, दिक्पालन्यास, अङ्गन्यास एवं ब्रह्मन्यासपूर्वक ज्ञानाशक्ति का लिङ्ग में तथा क्रियाशक्ति का पीठ में न्यास करने के पश्चात् स्नान करावे ॥ ३६-३९ ॥

गन्ध का लेपन करके धूप दे और व्यापकरूप से शिव का न्यास करे हृदय मन्त्र द्वारा पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य और फल निवेदन करे । यथाशक्ति इन वस्तुओं को निवेदित करने के पश्चात् महादेवजी को आचमन करावे। फिर विशेषार्ध्य देकर मन्त्र जपे और भगवान्‌ के वरदायक हाथ में उस जप को अर्पित करने के पश्चात् इस प्रकार कहे — ‘हे नाथ! जबतक चन्द्रमा, सूर्य और तारों की स्थिति रहे, तबतक मूर्तीशों तथा मूर्तिपालकों के साथ आप स्वेच्छापूर्वक ही इस मन्दिर में सदा स्थित रहें।’ ऐसा कहकर प्रणाम करने के पश्चात् बाहर जाय और हृदय या प्रणव- मन्त्र से वृषभ ( नन्दिकेश्वर) की स्थापना करके, फिर पूर्ववत् बलि निवेदन करे। तत्पश्चात् न्यूनता आदि दोष के निराकरण के लिये मृत्युञ्जय- मन्त्र से सौ बार समिधाओं की आहुति दे एवं शान्ति के लिये खीर से होम करे ॥ ४०-४४ ॥

इसके बाद यों प्रार्थना करे — ‘महाविभो ! ज्ञान अथवा अज्ञानपूर्वक कर्म में जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण करें।’ यों कहकर यथाशक्ति सुवर्ण, पशु एवं भूमि आदि सम्पत्ति तथा गीत- वाद्य आदि उत्सव, सर्वकारणभूत अम्बिकानाथ शिव को भक्तिपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर चार दिनों तक लगातार दान एवं महान् उत्सव करे। मन्त्रज्ञ आचार्य को चाहिये कि उत्सव के इन चार दिनों में से तीन दिनों तक तीनों समय मूर्तिपालकों के साथ होम करे और चौथे दिन पूर्णाहुति देकर, बहुरूप सम्बन्धी मन्त्र से चरु निवेदित करे। सभी कुण्डों में सम्पाताहुति से शोधित चरु अर्पित करना चाहिये। उक्त चार दिनों तक निर्माल्य न हटावे । चौथे दिन के बाद निर्माल्य हटाकर स्नान कराने के पश्चात् पूजन करे। सामान्य लिङ्गों में साधारण मन्त्रों द्वारा पूजा करनी चाहिये। लिङ्ग-चैतन्य को छोड़कर स्थाणु-विसर्जन करे । आसाधारण लिङ्गों में ‘क्षमस्व’ इत्यादि कहकर विसर्जन करे ॥ ४५-५० ॥

आवाहन, अभिव्यक्ति, विसर्ग, शक्तिरूपता और प्रतिष्ठा — ये पाँच बातें मुख्य हैं। कहीं-कहीं प्रतिष्ठा के अन्त में स्थिरता आदि गुणों की सिद्धि के लिये सात आहुतियाँ देने का विधान है। भगवान् शिव स्थिर, अप्रमेय, अनादि, बोधस्वरूप, नित्य, सर्वव्यापी, अविनाशी एवं आत्मतृप्त हैं। महेश्वर की संनिधि या उपस्थिति के लिये ये गुण कहे गये हैं। आहुतियों का क्रम इस प्रकार है — ॐ नमः शिवाय स्थिरो भव नमः स्वाहा ।’ – इत्यादि । इस प्रकार इस कार्य का सम्पादन करके शिव कलश की भाँति दो कलश और तैयार करे। उनमें से एक कलश के जल से भगवान् शिव को स्नान कराकर, दूसरा यजमान के स्नान के लिये रखे। (कहीं-कहीं ‘कर्मस्थानाय धारयेत्।’ ऐसा पाठ है। इसके अनुसार दूसरे कलश का जल कर्मानुष्ठान के लिये स्थापित करे, यह अर्थ समझना चाहिये।) इसके बाद बलि देकर आचमन करने के पश्चात् शिव की आज्ञा से बाहर जाय ॥ ५१-५५ ॥

याग मण्डप के बाहर मन्दिर के ईशानकोण में चण्ड का स्थापन-पूजन करे। फिर मण्डप में धाम के गर्भ के बराबर उत्तम पीठ पर आसन की कल्पना करके, पूर्ववत् न्यास, होम, आदि का अनुष्ठान करे। फिर ध्यानपूर्वक ‘सद्योजात’ आदि की स्थापना करके, वहाँ ब्रह्माङ्गों द्वारा विधिवत् पूजन करे। ब्रह्माङ्गों का वर्णन पहले किया जा चुका है। अब जिस प्रकार मन्त्र द्वारा पूजन किया जाता है, उसे सुनो — ‘ॐ वं सद्योजाताय ह्रूं फट् नमः ।’ ‘ॐ विं वामदेवाय ह्रूं फट् नमः । ॐ वुं अघोराय ह्रूं फट् नमः ।’ इसी प्रकार ‘ॐ वें तत्पुरुषाय ह्रू फट् नमः ।’ तथा ‘ॐ वों ईशानाय ह्रू फट् नमः ।’ — ये मन्त्र हैं 1  ॥ ५६-५९ ॥

इस प्रकार जप निवेदन करके, तर्पण करने के पश्चात् स्तुतिपूर्वक विज्ञापना देकर चण्डेश से प्रार्थना करे — ‘हे चण्डेश! जबतक श्रीमहादेवजी यहाँ विराजमान हैं, तबतक तुम भी इसके समीप विद्यमान रहो। मैंने अज्ञानवश जो कुछ भी न्यूनाधिक कर्म किया है, वह सब तुम्हारे कृपाप्रसाद से पूर्ण हो जाय। तुम स्वयं उसे पूर्ण करो।’ जहाँ बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर) हो, जहाँ चल लोहमय (सुवर्णमय) लिङ्ग हो, जहाँ सिद्धलिङ्ग (ज्योतिर्लिङ्गादि) तथा स्वयम्भूलिङ्ग हों, वहाँ और सब प्रकार की प्रतिमाओं पर चढ़े हुए निर्माल्य में चण्डेश का अधिकार नहीं होता है। अद्वैतभावनायुक्त यजमान पर तथा स्थण्डिलेश- विधि में भी चण्डेश का अधिकार नहीं है। चण्ड का पूजन करके स्त्रापक (अभिषेक करने वाला गुरु) स्वयं ही पत्नी और पुत्रसहित यजमान को पूर्व स्थापित कलश के जल से स्नान करावे । यजमान भी स्त्रापक गुरु का महेश्वर की भाँति पूजन करके, धन की कंजूसी छोड़कर, उन्हें भूमि और सुवर्ण आदि की दक्षिणा दे ॥ ६०-६४१/२

तत्पश्चात् मूर्तिपालकों तथा जपकर्ता ब्राह्मणों का,ज्योतिषी का और शिल्पी का भी भलीभाँति विधिवत् पूजन करके दीनों और अनाथों आदि को भोजन करावे। इसके बाद यजमान गुरु से इस प्रकार प्रार्थना करे — ‘हे भगवन्! यहाँ सम्मुख करने के लिये मैंने आपको जो कष्ट दिया है, वह सब आप क्षमा करें; क्योंकि नाथ! आप करुणा के सागर हैं, अतः मेरा सारा अपराध भूल जायें।’ इस प्रकार प्रार्थना करनेवाले यजमान को सद्गुरु अपने हाथ से कुश, पुष्प और अक्षतपुञ्ज के साथ प्रतिष्ठाजनित पुण्य की सत्ता समर्पित करे, जिसका स्वरूप चमकते हुए तारों के समान दीप्तिमान् है ॥ ६५-६८ ॥

तदनन्तर, पाशुपत मन्त्र का जप करके, परमेश्वर को प्रणाम करने के अनन्तर, भूतगणों को बलि अर्पित करे और इस प्रकार उन सबको समीप लाकर यों निवेदन करे — ‘आपलोगों को तबतक यहाँ स्थित रहना चाहिये, जबतक महादेवजी यहाँ विराजमान हैं।’ वस्त्र आदि से युक्त याग- मण्डप को गुरु अपने अधिकार में ले तथा समस्त उपकरणों से युक्त स्नापन- मण्डप को शिल्पी ग्रहण करे। अन्य देवता आदि की आगमोक्त मन्त्रों द्वारा स्थापना करनी चाहिये। सूर्य के वर्णभेद के अनुसार उन देवता आदि के वर्णभेद समझने चाहिये। वे अपने तैजस तत्व में व्याप्त हैं – ऐसी भावना करनी चाहिये। साध्य आदि देवता, सरिताएँ, ओषधियाँ, क्षेत्रपाल और किंनर आदि-ये सब पृथ्वीतत्त्व के आश्रित हैं। कहीं-कहीं सरस्वती, लक्ष्मी और नदियों का स्थान जल में बताया गया है ॥ ६९-७३ ॥

भुवनाधिपतियों का स्थान वही है, जहाँ उनकी स्थिति है। अहंकार, बुद्धि और प्रकृति- ये तीन तत्त्व ब्रह्मा के स्थान हैं। तन्मात्रा से लेकर प्रधान-पर्यन्त तीन तत्त्व श्रीहरि के स्थान हैं। नाट्येश, गण, मातृका, यक्षराज, कार्तिकेय तथा गणेश का अण्डजादि शुद्ध विद्यान्त तत्त्व है। मायांश देश से लेकर शक्ति- पर्यन्त तत्त्व शिवा, शिव तथा उग्रतेजवाले सूर्यदेव का स्थान है। व्यक्त प्रतिमाओं के लिये ईश्वर- पर्यन्त पद बताया गया है। स्थापना की सामग्री में जो कूर्म आदि का वर्णन किया गया है तथा जो रत्न आदि पाँच वस्तुएँ कही गयी हैं, उन सबको देवपीठ के गर्त में डाल दे, परंतु पाँच ब्रह्मशिलाओं को उसमें न डाले ॥ ७४-७७१/२

मन्दिर के गर्भ का छः भागों में विभाजन करके छठे भाग को त्याग दे और पाँचवें भाग में देवता की स्थापना करे। अथवा मन्दिर के गर्भ का आठ भाग करके सातवें भाग में प्रतिमाओं की स्थापना करे तो वह सुखावह होता है। लेप अथवा चित्रमय विग्रह की स्थापना में पञ्चभूतों की धारणाओं द्वारा विशुद्धि होती है। वहाँ स्नान आदि कार्य जल से नहीं, मानसिक किये जाते हैं । वैसे विग्रहों को शिला एवं रत्न आदि के भवन में रखना चाहिये। उनमें नेत्रोन्मीलन तथा आसन आदि की कल्पना अभीष्ट है। इनकी पूजा जलरहित पुष्पों से करनी चाहिये, जिससे चित्र दूषित न हो ॥ ७८-८१ ॥

अब चल लिङ्गों के लिये स्थापना की विधि बतायी जाती है। गर्भस्थान के पाँच अथवा तीन भाग करके एक भाग को छोड़ दे और तीसरे या दूसरे भाग में चल लिङ्ग की स्थापना करे। इसी प्रकार उनके पीठों के लिये भी करना चाहिये । लिङ्गों में तत्त्वभेद से पूजन की प्रक्रिया में भेद होता है। स्फटिक आदि के लिङ्गों में इष्टमन्त्र से (अथवा सृष्टि मन्त्र से) विधिवत् संस्कार होना चाहिये । इसके सिवा वहाँ ब्रह्मशिला एवं रत्नप्रभूति का निवेदन अपेक्षित नहीं है ॥ ८२-८४ ॥

पिण्डिका की योजना भी मन से ही कर लेनी चाहिये । स्वयम्भूलिङ्ग और बाणलिङ्ग आदि में संस्कार का नियम नहीं है।2  उन लिङ्गों को संहिता-मन्त्रों से स्नान करना चाहिये। वैदिक विधि से ही उनके लिये न्यास और होम करना चाहिये। नदी, समुद्र तथा रोह- इनके स्थापन कराने का विधान पूर्ववत् है ॥ ८५-८६ ॥

इहलोक में जो मृत्तिका आदि के अथवा आटे आदि के शिवलिङ्ग का पूजन किया जाता है, वह तात्कालिक होता है। अर्थात् पूजन-काल में ही लिङ्ग निर्माण करके वीक्षणादि विधान से उनकी शुद्धि करे। तत्पश्चात् विधिवत् पूजन करना चाहिये। पूजन के पश्चात् मन्त्रों को लेकर अपने-आप में स्थापित करे और उस लिङ्ग को जल में डाल दे। एक वर्ष तक ऐसा करने से वह लिङ्ग और उसका पूजन मनोवाञ्छित फल देनेवाला होता है। विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के मन्त्र अलग हैं। उन्हीं के द्वारा उनकी स्थापना करनी चाहिये ॥ ८७-८९ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शिवप्रतिष्ठा की विधि का वर्णन’ नामक सत्तानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९७ ॥

1. इन मन्त्रों के विषय में पाठभेद मिलता है। सोमशम्भु की ‘कर्मकाण्ड-क्रमावली में ये मन्त्र इस प्रकार दिये गये हैं- ॐ चैं सद्योजाताय हूं फट् नमः । ॐ चैं तत्पुरुषाय हूं फट् नमः । ॐ चों प्रशमनाय हूं फट् नमः ।

2. पाठान्तर के अनुसार वहाँ पीठ के ही संस्कार का नियम है, लिङ्ग का नहीं।

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