June 22, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 136 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय नक्षत्रों के त्रिनाडी-चक्र या फणीश्वर-चक्र का वर्णन नक्षत्रचक्रं महेश्वर कहते हैं — देवि ! अब मैं नक्षत्र-सम्बन्धी त्रिनाडी-चक्र का वर्णन करूँगा, जो यात्रा आदि में फलदायक होता है। अश्विनी आदि नक्षत्रों में तीन नाडियों से भूषित चक्र अङ्कित करे। पहले अश्विनी, आर्द्रा और पुनर्वसु अङ्कित करे; फिर उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वभाद्रपद — इन नक्षत्रों को लिखे। यह प्रथम नाडी कही गयी है। दूसरी नाडी इस प्रकार है — भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा तथा उत्तराभाद्रपदा । तीसरी नाडी के नक्षत्र ये हैं — कृत्तिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती 1 ॥ १-४ ॥’ इन तीन नाडियों के नक्षत्रों द्वारा सेवित ग्रह के अनुसार शुभाशुभ फल जानना चाहिये। इस ‘त्रिनाडी’ नामक चक्र को ‘फणीश्वर चक्र’ कहा गया है। इस चक्रगत नक्षत्र पर यदि सूर्य, मङ्गल, शनैश्चर एवं राहु हों तो वह अशुभ होता है। इनके सिवा अन्य ग्रहों द्वारा अधिष्ठित होने पर वह नक्षत्र शुभ होता है। देश, ग्राम, भाई और भार्या आदि अपने नाम के आदि अक्षर के अनुसार एक नाडीचक्र में पड़ते हों तो वे शुभकारक होते हैं ॥ ५-६ ॥ अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा तथा रेवती — ये सत्ताईस नक्षत्र यहाँ जानने योग्य हैं ॥ ७-८ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नक्षत्रचक्र-वर्णन’ नामक एक सौ छतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३६ ॥ 1. अग्निपुराण की ही भाँति नारदपुराण, पूर्व भाग, द्वितीय पाद अध्याय ५६ के ५०९ वें श्लोक में भी त्रिनाडी-चक्र का वर्णन है। यथा — त्रिनाडीचक्रम् १ अश्विनी आर्द्रा पुनर्वसु उत्तरा- फाल्गुनी हस्त ज्येष्ठा मूल शतभिषा पूर्वा- भाद्रपदा २ भरणी मृगशिरा पुष्य पूर्वा- फाल्गुनी चित्रा अनुराधा पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा उत्तरा- भाद्रपदा ३ कृत्तिका रोहिणी आश्लेषा मघा स्वाती विशाखा उत्तराषाढ़ा श्रवण रेवती अग्निपुराणम् षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः युद्धजयार्णवे नक्षत्रचक्रं ॥ ईश्वर उवाच ॥ अथ चक्रं प्रवक्ष्यामि यात्रादौ च फलप्रदम् । अश्विन्यादौ लिखेच्चक्रं त्रिनाडीपरिभूषितं ॥ १ ॥ अश्विन्यार्द्रादिभिः पूर्वा ततश्चोत्तरफल्गुनी । हस्ता ज्येष्ठा तथा मूलं वारुणं चाप्यजैकपात् ॥ २ ॥ नाडीयं प्रथमा चान्या याम्यं मृगशिरस्तथा । पुष्यं भाग्यन्तथा चित्रा मैत्रञ्चाप्यं च वासवं ॥ ३ ॥ अहिर्बुध्न्यं तृतीयाथ कृत्तिका रोहिणी ह्यहिः । चित्रा स्वाती विशाखा च श्रवणा रेवती च भं ॥ ४ ॥ नाडीत्रितयसंजुष्टग्रहाज्ज्ञेयं शुभाशुभं । चक्रम्फणीश्वरन्तत्तु त्रिनाडीपरिभूषितं ॥ ५ ॥ रविभौमार्कराहुस्थमशुभं स्याच्छुभं परं । देशग्रामयुता भ्रातृभार्याद्या एकशः शुभाः ॥ ६ ॥ अ, भ, कृ, रो, मृ, आ, पु, पु, अ, म, पू, उ, ह, चि, स्वा, वि, अ, ज्ये, मू, पू, उ, अ, ध, श, पू, उ, रे । अत्र सप्तविंशतिनक्षत्राणि ज्ञेयानि ॥ ॥ इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे नक्षत्रचक्रं नाम षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३६ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe