July 4, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 226 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पुरुषार्थ की प्रशंसा; साम आदि उपायों का प्रयोग तथा राजा की विविध देवरूपता का प्रतिपादन राजधर्माः पुष्कर कहते हैं — परशुरामजी ! दूसरे शरीर से उपार्जित किये हुए अपने ही कर्म का नाम ‘दैव’ समझिये। इसलिये मेधावी पुरुष पुरुषार्थ को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं। दैव प्रतिकूल हो तो उसका पुरुषार्थ से निवारण किया जा सकता है तथा पहले के सात्त्विक कर्म से पुरुषार्थ के बिना भी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। भृगुनन्दन ! पुरुषार्थ ही दैव की सहायता से समय पर फल देता है। दैव और पुरुषार्थ — ये दोनों मनुष्य को फल देने वाले हैं। पुरुषार्थ द्वारा की हुई कृषि से वर्षा का योग प्राप्त होने पर समयानुसार फल की प्राप्ति होती है। अतः धर्मानुष्ठानपूर्वक पुरुषार्थ करे; आलसी न बने और दैव का भरोसा करके बैठा न रहे ॥ १-४ ॥’ साम आदि उपायों से आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध होते हैं। साम, दान, भेद, दण्ड, माया, उपेक्षा और इन्द्रजाल — ये सात उपाय बतलाये गये हैं। इनका परिचय सुनिये । तथ्य और अतथ्य — दो प्रकार का ‘साम’ कहा गया है। उनमें ‘अतथ्य साम’ साधु पुरुषों के लिये कलंक का ही कारण होता है। अच्छे कुल में उत्पन्न, सरल, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय पुरुष साम से ही वश में होते हैं। अतथ्य साम के द्वारा तो राक्षस भी वशीभूत हो जाते हैं। उनके किये हुए उपकारों का वर्णन भी उन्हें वश में करने का अच्छा उपाय है। जो लोग आपस में द्वेष रखने वाले तथा कुपित, भयभीत एवं अपमानित हैं, उनमें भेदनीति का प्रयोग करे और उन्हें अत्यन्त भय दिखावे। अपनी ओर से उन्हें आशा दिखावे तथा जिस दोष से वे दूसरे लोग डरते हों, उसी को प्रकट करके उनमें भेद डाले। शत्रु के कुटुम्ब में भेद डालने वाले पुरुष की रक्षा करनी चाहिये। सामन्त का क्रोध बाहरी कोप है तथा मन्त्री, अमात्य और पुत्र आदि का क्रोध भीतरी क्रोध के अन्तर्गत है; अतः पहले भीतरी कोप को शान्त करके सामन्त आदि शत्रुओं के बाह्य कोप को जीतने का प्रयत्न करे ॥ ५- ११ ॥ सभी उपायों में ‘दान’ श्रेष्ठ माना गया है। दान से इस लोक और परलोक दोनों में सफलता प्राप्त होती है। ऐसा कोई भी नहीं है, जो दान से वश में न हो जाता हो। दानी मनुष्य ही परस्पर सुसंगठित रहने वाले लोगों में भी भेद डाल सकता है। साम, दान और भेद — इन तीनों से जो कार्य न सिद्ध हो सके उसे ‘दण्ड’ के द्वारा सिद्ध करना चाहिये। दण्ड में सब कुछ स्थित है। दण्ड का अनुचित प्रयोग अपना ही नाश कर डालता है। जो दण्ड के योग्य नहीं हैं, उनको दण्ड देनेवाला, तथा जो दण्डनीय हैं, उनको दण्ड न देने वाला राजा नष्ट हो जाता है। यदि राजा दण्ड के द्वारा सबकी रक्षा न करे तो देवता, दैत्य, नाग, मनुष्य, सिद्ध, भूत और पक्षी — ये सभी अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन कर जायें। चूँकि यह उद्दण्ड पुरुषों का दमन करता और अदण्डनीय पुरुषों को दण्ड देता है, इसलिये दमन और दण्ड के कारण विद्वान् पुरुष इसे ‘दण्ड’ कहते हैं ॥ १२-१६ ॥ जब राजा अपने तेज से इस प्रकार तप रहा हो कि उसकी ओर देखना कठिन हो जाय, तब वह ‘सूर्यवत्’ होता है जब वह दर्शन देने मात्र से जगत् को प्रसन्न करता है, तब ‘चन्द्रतुल्य’ माना जाता है। राजा अपने गुप्तचरों के द्वारा समस्त संसार में व्याप्त रहता है, इसलिये वह ‘वायुरूप’ है तथा दोष देखकर दण्ड देने के कारण ‘सर्वसमर्थ यमराज’ के समान माना गया है। जिस समय वह खोटी बुद्धिवाले दुष्टजन को अपने कोप से दग्ध करता है, उस समय साक्षात् ‘अग्निदेव’ का रूप होता है तथा जब ब्राह्मणों को दान देता है, उस समय उस दान के कारण वह धनाध्यक्ष ‘कुबेर– तुल्य’ हो जाता है। देवता आदि के निमित्त घृत आदि हविष्य को घनी धारा बरसाने के कारण वह ‘वरुण’ माना गया है। भूपाल अपने ‘क्षमा’ नामक गुण से जब सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है, उस समय ‘पृथ्वी का स्वरूप’ जान पड़ता है तथा उत्साह, मन्त्र और प्रभुशक्ति आदि के द्वारा वह सबका पालन करता है, इसलिये साक्षात् ‘भगवान् विष्णु’ का स्वरूप है ॥ १७-२० ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सामादि उपायों का कथन’ नामक दो सौ छब्बीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २२६ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe