July 4, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 227 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय अपराधों के अनुसार दण्ड के प्रयोग राजधर्माः दण्डप्रणयनं पुष्कर कहते हैं — राम! अब मैं दण्डनीति का प्रयोग बतलाऊँगा, जिससे राजा को उत्तम गति प्राप्त होती है। तीन जौ का एक ‘कृष्णल’ समझना चाहिये, पाँच कृष्णल का एक ‘माष’ होता है, साठ कृष्णल (अथवा बारह माष) ‘आधे कर्ष’ के बराबर बताये गये हैं। सोलह माष का एक ‘सुवर्ण’ माना गया है। चार सुवर्ण का एक ‘निष्क’ और दस निष्क का एक ‘धरण’ होता है। यह ताँबे, चाँदी और सोने का मान बताया गया है ॥ १-३ ॥’ परशुरामजी ! ताँबे का जो ‘कर्ष’ होता है, उसे विद्वानों ने ‘कार्षिक’ और ‘कार्षापण’ नाम दिया है ढाई सौ पण (पैसे) ‘प्रथम साहस’ दण्ड माना गया है, पाँच सौ पण ‘मध्यम साहस’ और एक हजार पण ‘उत्तम साहस’ दण्ड बताया गया है। चोरों के द्वारा जिसके धन की चोरी नहीं हुई है तो भी जो चोरी का धन वापस देने वाले राजा के पास जाकर झूठ ही यह कहता है कि ‘मेरा इतना धन चुराया गया है, उसके कथन की असत्यता सिद्ध होने पर उससे उतना ही धन दण्ड के रूप में वसूल करना चाहिये। जो मनुष्य चोरी में गये हुए धन के विपरीत जितना धन बतलाता है, अथवा जो जितना झूठ बोलता है-उन दोनों से राजा को दण्ड के रूप में दूना धन वसूल करना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही धर्म को नहीं जानते। झूठी गवाही देने वाले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन तीनों वर्णों को कठोर दण्ड देना चाहिये; किंतु ब्राह्मण को केवल राज्य से बाहर कर देना उचित है। उसके लिये दूसरे किसी दण्ड का विधान नहीं है। धर्मज्ञ ! जिसने धरोहर हड़प ली हो, उस पर धरोहर के रूप में रखे हुए वस्त्र आदि की कीमत के बराबर दण्ड लगाना चाहिये; ऐसा करने से धर्म की हानि नहीं होती। जो धरोहर को नष्ट करा देता है, अथवा जो धरोहर रखे बिना ही किसी से कोई वस्तु माँगता है — उन दोनों को चोर के समान दण्ड देना चाहिये; या उनसे दूना जुर्माना वसूल करना चाहिये। यदि कोई पुरुष अनजान में दूसरे का धन बेच देता है तो वह (भूल स्वीकार करने पर) निर्दोष माना गया है; परंतु जो जान-बूझकर अपना बताते हुए दूसरे का सामान बेचता है, वह चोर के समान दण्ड पाने का अधिकारी है, जो अग्रिम मूल्य लेकर भी अपने हाथ का काम बनाकर न दे, वह भी दण्ड देने के ही योग्य है। जो देने की प्रतिज्ञा करके न दे, उस पर राजा को सुवर्ण ( सोलह माष) का दण्ड लगाना चाहिये। जो मजदूरी लेकर काम न करे, उस पर आठ कृष्णल जुर्माना लगाना चाहिये। जो असमय में भृत्य का त्याग करता है, उस पर भी उतना ही दण्ड लगाना चाहिये । कोई वस्तु खरीदने या बेचने के बाद जिसको कुछ पश्चात्ताप हो, वह धन का स्वामी दस दिन के भीतर दाम लौटाकर माल ले सकता है। (अथवा खरीददार को ही यदि माल पसंद न आवे तो वह दस दिन के भीतर उसे लौटाकर दाम ले सकता है।) दस दिन से अधिक हो जाने पर यह आदान-प्रदान नहीं हो सकता। अनुचित आदान-प्रदान करनेवाले पर राजा को छः सौ का दण्ड लगाना चाहिये ॥ ४–१४१/२ ॥ जो वर के दोषों को न बताकर किसी कन्या का वरण करता है, उसको वचन द्वारा दी हुई कन्या भी नहीं दी हुई के ही समान है। राजा को चाहिये कि उस व्यक्ति पर दो सौ का दण्ड लगावे। जो एक को कन्या देने की बात कहकर फिर दूसरे को दे डालता है, उस पर राजा को उत्तम साहस (एक हजार पण ) – का दण्ड लगाना चाहिये। वाणी द्वारा कहकर उसे कार्य रूप में सत्य करने से निस्संदेह पुण्य की प्राप्ति होती है। जो किसी वस्तु को एक जगह देने की प्रतिज्ञा करके उसे लोभवश दूसरे के हाथ बेच देता है, उस पर छ: सौ का दण्ड लगाना चाहिये। जो ग्वाला मालिक से भोजन खर्च और वेतन लेकर भी उसकी गाय उसे नहीं लौटाता, अथवा अच्छी तरह उसका पालन-पोषण नहीं करता, उस पर राजा सौ सुवर्ण का दण्ड लगावे । गाँव के चारों ओर सौ धनुष के घेरे में तथा नगर के चारों ओर दो सौ या तीन सौ धनुष के घेरे में खेती करनी चाहिये, जिसे खड़ा हुआ ऊँट न देख सके। जो खेत चारों ओर से घेरा न गया हो, उसकी फसल को किसी के द्वारा नुकसान पहुँचने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता। जो भय दिखाकर दूसरों के घर, पोखरे, बगीचे अथवा खेत को हड़पने की चेष्टा करता है, उसके ऊपर राजा को पाँच सौ का दण्ड लगाना चाहिये। यदि उसने अनजान में ऐसा किया हो तो दो सौ का ही दण्ड लगाना उचित है। सीमा का भेदन करनेवाले सभी लोगों को प्रथम श्रेणी के साहस (ढाई सौ पण ) -का दण्ड देना चाहिये ॥ १५-२२ ॥ परशुरामजी ! ब्राह्मण को नीचा दिखाने वाले क्षत्रिय पर सौ का दण्ड लगाना उचित है। इसी अपराध के लिये वैश्य से दो सौ जुर्माना वसूल करे और शूद्र को कैद में डाल दे। क्षत्रिय को कलंकित करने पर ब्राह्मण को पचास का दण्ड, वैश्य पर दोषारोपण करने से पचीस का और शूद्र को कलंक लगाने पर उसे बारह का दण्ड देना उचित है। यदि वैश्य क्षत्रिय का अपमान करे तो उस पर प्रथम साहस (ढाई सौ पण ) का दण्ड लगाना चाहिये और शूद्र यदि क्षत्रिय को गाली दे तो उसकी जीभ को सजा देनी चाहिये। ब्राह्मणों को उपदेश करने वाला शूद्र भी दण्ड का भागी होता है। जो अपने शास्त्रज्ञान और देश आदि का झूठा परिचय दे, उसे दूने साहस का दण्ड देना उचित है। जो श्रेष्ठ पुरुषों को पापाचारी कहकर उनके ऊपर आक्षेप करे, वह उत्तम साहस का दण्ड पाने के योग्य है। यदि वह यह कहकर कि ‘मेरे मुँह से प्रमादवश ऐसी बात निकल गयी है, अपना प्रेम प्रकट करे तो उसके लिये दण्ड घटाकर आधा कर देना चाहिये। माता, पिता, ज्येष्ठ भ्राता श्वशुर तथा गुरु पर आक्षेप करने वाला और गुरुजनों को रास्ता न देनेवाला पुरुष भी सौ का दण्ड पाने के योग्य है। जो मनुष्य अपने जिस अंग से दूसरे ऊँचे लोगों का अपराध करे, उसके उसी अंग को बिना विचारे शीघ्र ही काट डालना चाहिये। जो घमंड में आकर किसी उच्च पुरुष की ओर थूके, राजा को उसके ओठ काट लेना उचित है। इसी प्रकार यदि वह उसकी ओर मुँह करके पेशाब करे तो उसका लिङ्ग और उधर पीठ करके अपशब्द करे तो उसकी गुदा काट लेने के योग्य है। इतना ही नहीं, यदि वह ऊँचे आसन पर बैठा हो तो उस नीच के शरीर के निचले भाग को दण्ड देना उचित है। जो मनुष्य दूसरे के जिस किसी अंग को घायल करे, उसके भी उसी अंग को कुतर डालना चाहिये। गौ, हाथी, घोड़े और ऊँट को हानि पहुँचाने वाले मनुष्यों के आधे हाथ और पैर काट लेने चाहिये। जो किसी (पराये) वृक्ष के फल तोड़े, उस पर सुवर्ण का दण्ड लगाना उचित है। जो रास्ता, खेत की सीमा अथवा जलाशय आदि को काटकर नष्ट करे, उससे नुकसान का दूना दण्ड दिलाना चाहिये। जो जान-बूझकर या अनजान में जिसके धन का अपहरण करे, वह पहले उसके धन को लौटाकर उसे संतुष्ट करे। उसके बाद राजा को भी जुर्माना दे जो कुएँ पर से दूसरे की रस्सी और घड़ा चुरा लेता तथा पौसले नष्ट कर देता है, उसे एक मासतक कैद की सजा देनी चाहिये। प्राणियों को मारने पर भी यही दण्ड देना उचित है। जो दस घड़े से अधिक अनाज की चोरी करता है, वह प्राणदण्ड देने के योग्य है। बाकी में भी अर्थात् दस घड़े से कम अनाज की चोरी करने पर भी, जितने घड़े अन्न की चोरी करे, उससे ग्यारह गुना अधिक उस चोर पर दण्ड लगाना चाहिये। सोने-चाँदी आदि द्रव्यों, पुरुषों तथा स्त्रियों का अपहरण करने पर अपराधी को वध का दण्ड देना चाहिये। चोर जिस-जिस अंग से जिस प्रकार मनुष्यों के प्रतिकूल चेष्टा करता है, उसके उसी उसी अंग को वैसी ही निष्ठुरता के साथ कटवा डालना राजा का कर्तव्य है। इससे चोरों को चेतावनी मिलती है। यदि ब्राह्मण बहुत थोड़ी मात्रा में शाक और धान्य आदि ग्रहण करता है तो वह दोष का भागी नहीं होता। गो-सेवा तथा देव- पूजा के लिये भी कोई वस्तु लेनेवाला ब्राह्मण दण्ड के योग्य नहीं है। जो दुष्ट पुरुष किसी का प्राण लेने के लिये उद्यत हो, उसका वध कर डालना चाहिये। दूसरों के घर और क्षेत्र का अपहरण करनेवाले, परस्त्री के साथ व्यभिचार करनेवाले, आग लगाने वाले, जहर देने वाले तथा हथियार उठाकर मारने को उद्यत हुए पुरुष को प्राणदण्ड देना ही उचित है ॥ २३-३९ ॥ राजा गौओं को मारनेवाले तथा आततायी पुरुषों का वध करे। परायी स्त्री से बातचीत न करे और मना करने पर किसी के घर में न घुसे । स्वेच्छा से पति का वरण करनेवाली स्त्री राजा के द्वारा दण्ड पाने के योग्य नहीं है, किंतु यदि नीच वर्ण का पुरुष ऊँचे वर्ण की स्त्री के साथ समागम करे तो वह वध के योग्य है। जो स्त्री अपने स्वामी का उल्लंघन (करके दूसरे के साथ व्यभिचार) करे, उसको कुत्तों से नोचवा देना चाहिये। जो सजातीय परपुरुष के सम्पर्क से दूषित हो चुकी हो, उसे (सम्पत्ति के अधिकार से वञ्चित करके) शरीर- निर्वाहमात्र के लिये अन्न देना चाहिये। पति के ज्येष्ठ भ्राता से व्यभिचार करके दूषित हुई नारी के मस्तक का बाल मुँडवा देना चाहिये। यदि ब्राह्मण वैश्यजाति की स्त्री से और क्षत्रिय नीच जाति की स्त्री के साथ समागम करें तो उनके लिये भी यही दण्ड है। शूद्रा के साथ व्यभिचार करनेवाले क्षत्रिय और वैश्य को प्रथम साहस ( ढाई सौ पण ) -का दण्ड देना उचित है। यदि वेश्या एक पुरुष से वेतन लेकर लोभवश दूसरे के पास चली जाय तो वह दूना वेतन वापस करे और दण्ड भी दूना दे। स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य तथा सहोदर भाई यदि अपराध करें तो उन्हें रस्सी अथवा बाँस की छड़ी से पीट देना चाहिये। प्रहार पीठ पर ही करना उचित है, मस्तक पर नहीं मस्तक पर प्रहार करनेवाले को चोर का दण्ड मिलता है ॥ ४०–४६ ॥ जो रक्षा के काम पर नियुक्त होकर प्रजा से रुपये ऐंठते हों, उनका सर्वस्व छीनकर राजा उन्हें अपने राज्य से बाहर कर दे। जो लोग किसी कार्यार्थी के द्वारा उसके निजी कार्य में नियुक्त होकर वह कार्य चौपट कर डालते हैं, राजा को उचित है कि उन क्रूर और निर्दयी पुरुषों का सारा धन छीन ले । यदि कोई मन्त्री अथवा प्राड्विवाक (न्यायाधीश) विपरीत कार्य करे तो राजा उसका सर्वस्व लेकर उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दे। गुरुपत्नीगामी के शरीर पर भग का चिह्न अंकित करा दे। सुरापान करनेवाले महापातकी के ऊपर शराबखाने के झंडे का चिह्न दगवा दे। चोरी करनेवाले पर कुत्ते का नाखून गोदवा दे और ब्रह्महत्या करनेवाले के भाल पर नरमुण्ड का चिह्न अंकित कराना चाहिये। पापाचारी नीचों को राजा मरवा डाले और ब्राह्मणों को देश निकाला दे दे तथा महापातकी पुरुषों का धन वरुण देवता के अर्पण कर दे (जल में डाल दे। गाँव में भी जो लोग चोरों को भोजन देते हों तथा चोरी का माल रखने के लिये घर और खजाने का प्रबन्ध करते हों, उन सबका भी वध करा देना उचित है। अपने राज्य के भीतर अधिकार के कार्य पर नियुक्त हुए सामन्त नरेश भी यदि पाप में प्रवृत्त हों तो उनका अधिकार छीन लेना चाहिये। जो चोर रात में सेंध लगाकर चोरी करते हैं, राजा को उचित है कि उनके दोनों हाथ काटकर उन्हें तीखी शूली पर चढ़ा दे। इसी प्रकार पोखरा तथा देवमन्दिर नष्ट करनेवाले पुरुषों को भी प्राणदण्ड दे। जो बिना किसी आपत्ति के सड़क पर पेशाब, पाखाना आदि अपवित्र वस्तु छोड़ता है, उस पर कार्षापणों का दण्ड लगाना चाहिये तथा उसी से वह अपवित्र वस्तु फेंकवाकर वह जगह साफ करानी चाहिये । प्रतिमा तथा सीढ़ी को तोड़नेवाले मनुष्यों पर पाँच सौ कर्ष का दण्ड लगाना चाहिये। जो अपने प्रति समान बर्ताव करनेवालों के साथ विषमता का बर्ताव करता है, अथवा किसी वस्तु की कीमत लगाने में बेईमानी करता है, उस पर मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष) का दण्ड लगाना चाहिये। जो लोग बनियों से बहुमूल्य पदार्थ लेकर उसकी कीमत रोक लें, राजा उन पर पृथक्-पृथक् उत्तम साहस (एक हजार कर्ष)-का दण्ड लगावे । जो वैश्य अपने सामानों को खराब करके, अर्थात् बढ़िया चीजों में घटिया चीजें मिलाकर उन्हें मनमाने दाम पर बेचे, वह मध्यम साहस (पाँच सौ कर्ष) का दण्ड पाने के योग्य है। जालसाज को उत्तम साहस (एक हजार कर्ष ) – का और कलहपूर्वक अपकार करनेवाले को उससे दूना दण्ड देना उचित है। अभक्ष्य भक्षण करनेवाले ब्राह्मण अथवा शूद्र पर कृष्णल का दण्ड लगाना चाहिये। जो तराजू पर शासन करता है, अर्थात् डंडी मारकर कम तौल देता है, जालसाजी करता है तथा ग्राहकों को हानि पहुँचाता है — इन सबको और जो इनके साथ व्यवहार करता है, उसको भी उत्तम साहस का दण्ड दिलाना चाहिये। जो स्त्री जहर देनेवाली, आग लगानेवाली तथा पति, गुरु, ब्राह्मण और संतान की हत्या करनेवाली हो, उसके हाथ, कान, नाक और ओठ कटवाकर बैल की पीठ पर चढ़ाकर उसे राज्य से बाहर निकाल देना चाहिये। खेत, घर, गाँव और जंगल नष्ट करनेवाले तथा राजा की पत्नी से समागम करनेवाले मनुष्य घास-फूस की आग में जला देने योग्य हैं जो राजा की आज्ञा को घटा-बढ़ाकर लिखता है तथा परस्त्रीगामी पुरुषों और चोरों को बिना दण्ड दिये ही छोड़ देता है, वह उत्तम साहस के दण्ड का अधिकारी है। राजा की सवारी और आसन पर बैठनेवाले को भी उत्तम साहस का ही दण्ड देना चाहिये जो न्यायानुसार पराजित होकर भी अपने को अपराजित मानता है, उसे सामने आने पर फिर जीते और उस पर दूना दण्ड लगावे । जो आमन्त्रित नहीं है, उसको बुलाकर लानेवाला पुरुष वध के योग्य है। जो अपराधी दण्ड देनेवाले पुरुष के हाथ से छूटकर भाग जाता है, वह पुरुषार्थ से हीन है। दण्डकर्ता को उचित है कि ऐसे भीरु मनुष्य को शारीरिक दण्ड न देकर उस पर धन का दण्ड लगावे ॥ ४७-६७ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘दण्ड- प्रणयन का कथन’ नामक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२७ ॥ Content is available only for registered users. 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