अग्निपुराण – अध्याय 236
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय
संग्राम-दीक्षा-युद्ध के समय पालन करने योग्य नियमों का वर्णन
रणदीक्षा

पुष्कर कहते हैं — परशुरामजी ! अब मैं रणयात्रा की विधि बतलाते हुए संग्रामकाल के लिये उचित कर्तव्यों का वर्णन करूँगा। जब राजा की युद्धयात्रा एक सप्ताह में होने वाली हो, उस समय पहले दिन भगवान् विष्णु और शंकरजी की पूजा करनी चाहिये। साथ ही मोदक (मिठाई) आदि के द्वारा गणेशजी का पूजन करना उचित है। दूसरे दिन दिक्पालों की पूजा करके राजा शयन करे। शय्या पर बैठकर अथवा उसके पहले देवताओं की पूजा करके निम्नाङ्कित (भाववाले) मन्त्र का स्मरण करे — ॥ १-२१/२

नमः शम्भो त्रिनेत्राय रुद्राय वरदाय च ॥ ३ ॥
वामनाय विरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः ।
भगवन्देवदेवेश शूलभृद्‌वृषवाहन ॥ ४ ॥


‘भगवान् शिव ! आप तीन नेत्रों से विभूषित, ‘रुद्र’ के नाम से प्रसिद्ध वरदायक, वामन, विकटरूपधारी और स्वप्न के अधिष्ठाता देवता हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। भगवन्! आप देवाधिदेवों के भी स्वामी, त्रिशूलधारी और वृषभ पर सवारी करनेवाले हैं।

इष्टानिष्टे ममाचक्ष्व स्वप्ने सुप्तस्य शाश्वत ।
यज्जाग्रतो दूरमिति पुरोधा मन्त्रमुच्चरेत् ॥ ५ ॥

सनातन परमेश्वर ! मेरे सो जाने पर स्वप्न में आप मुझे यह बता दें कि ‘इस युद्ध से मेरा इष्ट होनेवाला है या अनिष्ट ?’ उस समय पुरोहित को ‘यजाग्रतो दूरमुदैति०’ 1 (यजु० ३४ । १) – इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये।

तीसरे दिन दिशाओं की रक्षा करने वाले रुद्रों तथा दिशाओं के अधिपतियों की पूजा करे; चौथे दिन ग्रहों और पाँचवें दिन अश्विनीकुमारों का यजन करे। मार्ग में जो देवी, देवता तथा नदी आदि पड़ें, उनका भी पूजन करना चाहिये। द्युलोक में, अन्तरिक्ष में तथा भूमि पर निवास करने वाले देवताओं को बलि अर्पण करे। रात में भूतगणों को भी बलि दे भगवान् वासुदेव आदि देवताओं तथा भद्रकाली और लक्ष्मी आदि देवियों की भी पूजा करे। इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं से प्रार्थना करे ॥ १-८ ॥

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्यम्नश्चानिरुद्धकः ।
नारायणोऽब्जजो विष्णुर्न्नारसिंहो वराहकः ॥ ९ ॥
शिव ईशस्तत्‌पुरुषो ह्यघोरो राम सत्यजः।
सूर्य्यः सोमः कुकजचश्चान्द्रिजीवशुक्रशनैश्चराः ॥ १० ॥
राहुः केतुर्गणपतिः सेनानी चण्डिका ह्युमा ।
लक्ष्मीः सरस्वती दुर्गा ब्रह्माणीप्रमुखा गणाः ॥ ११ ॥
रुद्रा इन्द्रादयो वह्निर्न्नागास्तार्क्ष्योऽपरे सुराः ।
दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठा विजयाय भवन्तु मे ॥ १२ ॥
मर्दयन्तु रणे शत्रून् सम्प्रगृह्योपहारकं ।
सपुत्रमातृभृत्योऽहं देवा वः शरणङ्गतः ॥ १३ ॥
चमूनां पृष्ठतो गत्वा रिपुनाशा नमोऽस्तु वः ।
विनिवृत्तः प्र्दास्यामि दत्तादभ्यधिकं बलिं ॥ १४ ॥

‘वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, ब्रह्मा, विष्णु, नरसिंह, वराह, शिव, ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात, सूर्य, सोम, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर, राहु, केतु, गणेश, कार्तिकेय, चण्डिका, उमा, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, ब्रह्माणी आदि गण, रुद्र, इन्द्रादि देव, अग्नि, नाग, गरुड तथा द्युलोक, अन्तरिक्ष एवं भूमि पर निवास करने वाले अन्यान्य देवता मेरी विजय के साधक हों। मेरी दी हुई यह भेंट और पूजा स्वीकार करके सब देवता युद्ध में मेरे शत्रुओं का मर्दन करें। देवगण! मैं माता, पुत्र और भृत्योंसहित आपकी शरण में आया हूँ। आप लोग शत्रु सेना के पीछे जाकर उनका नाश करने वाले हैं, आपको हमारा नमस्कार है। युद्ध में विजय पाकर यदि लौटूंगा तो आपलोगों को इस समय जो पूजा और भेंट दी है, उससे भी अधिक मात्रा में पूजा चढ़ाऊँगा’ ॥ ९-१४ ॥

छठे दिन राज्याभिषेक की भाँति विजय स्नान करना चाहिये तथा यात्रा के सातवें दिन भगवान् त्रिविक्रम (वामन) का पूजन करना आवश्यक है। नीराजन के लिये बताये हुए मन्त्रों द्वारा अपने आयुध और वाहन की भी पूजा करे। साथ ही ब्राह्मणों के मुख से ‘पुण्याह’ और ‘जय’ शब्द के साथ निम्नाङ्कित भाववाले मन्त्र का श्रवण करे —

दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठाः सन्त्वायुर्दाः सुराश्च ते ।
देवसिद्धिं प्रप्नुहि त्वं देवयात्रास्तु सा तव ॥ १७ ॥
रक्षन्तु देवताः सर्वा इति श्रुत्वा नृपो व्रजेत् ।

‘राजन्! द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूमि पर निवास करनेवाले देवता तुम्हें दीर्घायु प्रदान करें। तुम देवताओं के समान सिद्धि प्राप्त करो। तुम्हारी यह यात्रा देवताओं की यात्रा हो तथा सम्पूर्ण देवता तुम्हारी रक्षा करें।’ यह आशीर्वाद सुनकर राजा आगे यात्रा करे।

‘धन्वना गा०’2  (यजु० २।३९ ) इत्यादि मन्त्र द्वारा धनुष-बाण हाथ में लेकर ‘तद्विष्णोः०’ 3  (यजु० ६।५ ) इस मन्त्र का जप करते हुए शत्रु के सामने दाहिना पैर बढ़ाकर बत्तीस पग आगे जाय; फिर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर में जाने के लिये क्रमशः हाथी, रथ, घोड़े तथा भार ढोने में समर्थ जानवर पर सवार होवे और जुझाऊ बाजों के साथ आगे की यात्रा करे; पीछे फिरकर न देखे ॥ १५-२० ॥

एक कोस जाने के बाद ठहर जाय और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करे। पीछे आती हुई अपनी सेना की रक्षा करते हुए ही राजा को दूसरे के देश में यात्रा करनी चाहिये। विदेश में जाने पर भी अपने देश के आचार का पालन करना राजा का कर्तव्य है। वह प्रतिदिन देवताओं का पूजन करे, किसी की आय नष्ट न होने दे और उस देश के मनुष्यों का कभी अपमान न करे। विजय पाकर पुनः अपने नगर में लौट आने पर राजा देवताओं की पूजा करे और दान दे। जब दूसरे दिन संग्राम छिड़नेवाला हो तो पहले दिन हाथी, घोड़े आदि वाहनों को नहलावे तथा भगवान् नृसिंह का पूजन करे। रात्रि में छत्र आदि राजचिह्नों, अस्त्र-शस्त्रों तथा भूतगणों की अर्चना करके सबेरे पुनः भगवान् नृसिंह की एवं सम्पूर्ण वाहन आदि की पूजा करे। पुरोहित के द्वारा हवन किये हुए अग्निदेव का दर्शन करके स्वयं भी उसमें आहुति डाले और ब्राह्मणों का सत्कार करके धनुष-बाण ले, हाथी आदि पर सवार हो युद्ध के लिये जाय। शत्रु के देश में अदृश्य रहकर प्रकृति कल्पना ( मोर्चाबंदी) करे। यदि अपने पास थोड़े से सैनिक हों तो उन्हें एक जगह संगठित रखकर युद्ध में प्रवृत्त करे और यदि योद्धाओं की संख्या अधिक हो तो उन्हें इच्छानुसार फैला दे (अर्थात् उन्हें बहुत दूर में खड़ा करके युद्ध में लगावे) ॥ २१-२७ ॥

थोड़े-से सैनिकों का अधिक संख्या वाले योद्धाओं के साथ युद्ध करने के लिये ‘सूचीमुख’ नामक व्यूह उपयोगी होता है। व्यूह दो प्रकार के बताये गये हैं — प्राणियों के शरीर की भाँति और द्रव्यस्वरूप । गरुडव्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह — ये नौ व्यूह प्रसिद्ध हैं। सभी व्यूहों के सैनिकों को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है। दो पक्ष, दो अनुपक्ष और एक पाँचवाँ भाग भी अवश्य रखना चाहिये । योद्धाओं के एक या दो भागों से युद्ध करे और तीन भागों को उनकी रक्षा के लिये रखे। स्वयं राजा को कभी व्यूह में नियुक्त नहीं करना चाहिये; क्योंकि राजा ही सबकी जड़ है, उस जड़ के कट जाने पर सारे राज्य का विनाश हो जाता है; अतः स्वयं राजा युद्ध में प्रवृत्त न हो। वह सेना के पीछे एक कोस की दूरी पर रहे। वहाँ रहते हुए राजा का यह कार्य बताया गया है कि वह युद्ध से भागे हुए सिपाहियों को उत्साहित करके धैर्य बँधावे। सेना के प्रधान (अर्थात् सेनापति) के भागने या मारे जाने पर सेना नहीं ठहर पाती । व्यूह में योद्धाओं को न तो एक-दूसरे से सटाकर खड़ा करे और न बहुत दूर-दूर पर ही; उनके बीच में इतनी ही दूरी रहनी चाहिये, जिससे एक-दूसरे के हथियार आपस में टकराने न पावें ॥ २८- ३५ ॥

जो शत्रु सेना की मोर्चाबंदी तोड़ना चाहता हो, वह अपने संगठित योद्धाओं के द्वारा ही उसे तोड़ने का प्रयत्न करे तथा शत्रु के द्वारा भी यदि अपनी सेना के व्यूह भेदन के लिये प्रयत्न हो रहा हो तो उसकी रक्षा के लिये संगठित वीरों को ही नियुक्त करना चाहिये। अपनी इच्छा के अनुसार सेना का ऐसा व्यूह बनावे, जो शत्रु के व्यूह में घुसकर उसका भेदन कर सके। हाथी के पैरों की रक्षा करने के लिये चार रथ नियुक्त करे। रथ की रक्षा के लिये चार घुड़सवार, उनकी रक्षा के लिये उतने ही ढाल लेकर युद्ध करने वाले सिपाही तथा ढाल वालों के बराबर ही धनुर्धर वीरों को तैनात करे। युद्ध में सबसे आगे ढाल लेने वाले योद्धाओं को स्थापित करे। उनके पीछे धनुर्धर योद्धा, धनुर्धरों के पीछे घुड़सवार, घुड़सवारों के पीछे रथ और रथों के पीछे राजा को हाथियों की सेना नियुक्त करनी चाहिये ॥ ३६- ३९ ॥

पैदल, हाथीसवार और घुड़सवारों को प्रयत्नपूर्वक धर्मानुकूल युद्ध में संलग्र रहना चाहिये। युद्ध के मुहाने पर शूरवीरों को ही तैनात करे, डरपोक स्वभाववाले सैनिकों को वहाँ कदापि न खड़ा होने दे। शूरवीरों को आगे खड़ा करके ऐसा प्रबन्ध करे, जिससे वीर स्वभाववाले योद्धाओं को केवल शत्रुओं का जत्थामात्र दिखायी दे (उनके भयंकर पराक्रम पर उनकी दृष्टि न पड़े); तभी वे शत्रुओं को भगानेवाला पुरुषार्थ कर सकते हैं। भीरु पुरुष आगे रहें तो वे भागकर सेना का व्यूह स्वयं ही तोड़ डालते हैं अतः उन्हें आगे न रखे। शूरवीर आगे रहने पर भीरु पुरुषों को युद्ध के लिये सदा उत्साह ही प्रदान करते रहते हैं। जिनका कद ऊँचा, नासिका तोते के समान नुकीली, दृष्टि सौम्य तथा दोनों भौंहें मिली हुई हों, जो क्रोधी, कलहप्रिय, सदा हर्ष और उत्साह में भरे रहनेवाले तथा कामपरायण हों, उन्हें शूरवीर समझना चाहिये ॥ ४०-४३१/२

संगठित वीरों में से जो मारे जायँ अथवा घायल हों, उनको युद्धभूमि से दूर हटाना, युद्ध के भीतर जाकर हाथियों को पानी पिलाना तथा हथियार पहुँचाना – ये सब पैदल सिपाहियों के कार्य हैं। अपनी सेना का भेदन करने की इच्छा रखनेवाले शत्रुओं से उसकी रक्षा करना और संगठित होकर युद्ध करनेवाले शत्रु- वीरों का व्यूह तोड़ डालना- यह ढाल लेकर युद्ध करनेवाले योद्धाओं का कार्य बताया गया है। युद्ध में विपक्षी योद्धाओं को मार भगाना धनुर्धर वीरों का काम है। अत्यन्त घायल हुए योद्धा को युद्धभूमि से दूर ले जाना, फिर युद्ध में आना तथा शत्रु की सेना में त्रास उत्पन्न करना – यह सब रथी वीरों का कार्य बतलाया जाता है। संगठित व्यूह को तोड़ना, टूटे हुए को जोड़ना तथा चहारदीवारी, तोरण (सदर दरवाजा), अट्टालिका और वृक्षों को भङ्ग कर डालना – यह अच्छे हाथी का पराक्रम है। ऊँची-नीची भूमि को पैदल सेना के लिये उपयोगी जानना चाहिये, रथ और घोड़ों के लिये समतल भूमि उत्तम है तथा कीचड़ से भरी हुई युद्धभूमि हाथियों के लिये उपयोगी बतायी गयी है ॥ ४४–४९१/२

इस प्रकार व्यूह-रचना करके जब सूर्य पीठ की ओर हों तथा शुक्र, शनैश्वर और दिक्पाल अपने अनुकूल हों, सामने से मन्द मन्द हवा आ रही हो, उस समय उत्साहपूर्वक युद्ध करे तथा नाम एवं गोत्र की प्रशंसा करते हुए सम्पूर्ण योद्धाओं में उत्तेजना भरता रहे। साथ ही यह बात भी बताये कि ‘युद्ध में विजय होने पर उत्तम उत्तम भोगों की प्राप्ति होगी और मृत्यु हो जाने पर स्वर्ग का सुख मिलेगा।’ वीर पुरुष शत्रुओं को जीतकर मनोवाञ्छित भोग प्राप्त करता है और युद्ध में प्राणत्याग करने पर उसे परमगति मिलती है। इसके सिवा वह जो स्वामी का अन्न खाये रहता है, उसके ऋण से छुटकारा पा जाता है; अतः युद्ध के समान श्रेष्ठ गति दूसरी कोई नहीं है। शूरवीरों के शरीर से जब रक्त निकलता है, तब वे पापमुक्त हो जाते हैं। युद्ध में जो शस्त्र प्रहार आदि का कष्ट सहना पड़ता है, वह बहुत बड़ी तपस्या है। रण में प्राणत्याग करने वाले शूरवीर के साथ हजारों सुन्दरी अप्सराएँ चलती हैं। जो सैनिक हतोत्साह होकर युद्ध से पीठ दिखाते हैं, उनका सारा पुण्य मालिक को मिल जाता है और स्वयं उन्हें पग-पग पर एक-एक ब्रह्महत्या के पाप का फल प्राप्त होता है। जो अपने सहायकों को छोड़कर चल देता है, देवता उसका विनाश कर डालते हैं। जो युद्ध से पीछे पैर नहीं हटाते, उन बहादुरों के लिये अश्वमेध यज्ञ का फल बताया गया है ॥ ५०-५६ ॥

यदि राजा धर्म पर दृढ़ रहे तो उसकी विजय होती है। योद्धाओं को अपने समान योद्धाओं के साथ ही युद्ध करना चाहिये। हाथीसवार सैनिक हाथीसवार आदि के ही साथ युद्ध करें। भागनेवालों को न मारें जो लोग केवल युद्ध देखने के लिये आये हों, अथवा युद्ध में सम्मिलित होने पर भी जो शस्त्रहीन एवं भूमि पर गिरे हुए हों, उनको भी नहीं मारना चाहिये। जो योद्धा शान्त हो या थक गया हो, नींद में पड़ा हो तथा नदी या जंगल के बीच में उतरा हो, उस पर भी प्रहार न करे। दुर्दिन में शत्रु के नाश के लिये कूटयुद्ध (कपटपूर्ण संग्राम) करे। दोनों बाहें ऊपर उठाकर जोर-जोर से पुकारकर कहे- ‘यह देखो, हमारे शत्रु भाग चले, भाग चले। इधर हमारी ओर मित्रों की बहुत बड़ी सेना आ पहुँची; शत्रुओं की सेना का संचालन करनेवाला मार गिराया गया। यह सेनापति भी मौत के घाट उतर गया। साथ ही शत्रुपक्ष के राजा ने भी प्राणत्याग कर दिया’ ॥ ५७-६० ॥

भागते हुए विपक्षी योद्धाओं को अनायास ही मारा जा सकता है। धर्म के जानने वाले परशुरामजी ! शत्रुओं को मोहित करने के लिये कृत्रिम धूप की सुगन्ध भी फैलानी चाहिये। विजय की पताकाएँ दिखानी चाहिये, बाजों का भयंकर समारोह करना चाहिये। इस प्रकार जब युद्ध में विजय प्राप्त हो जाय तो देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये। अमात्य के द्वारा किये हुए युद्ध में जो रत्न आदि उपलब्ध हों, वे राजा को ही अर्पण करने चाहिये। शत्रु की स्त्रियों पर किसी का भी अधिकार नहीं होता। स्त्री शत्रु की हो तो भी उसकी रक्षा ही करनी चाहिये। संग्राम में सहायकों से रहित शत्रु को पाकर उसका पुत्र की भाँति पालन करना चाहिये। उसके साथ पुनः युद्ध करना उचित नहीं है। उसके प्रति देशोचित आचारादि का पालन करना कर्तव्य है ॥ ६१-६३१/२

युद्ध में विजय पाने के पश्चात् अपने नगर में जाकर ‘ध्रुव’ संज्ञक नक्षत्र (तीनों उत्तरा और रोहिणी) – में राजमहल के भीतर प्रवेश करे। इसके बाद देवताओं का पूजन और सैनिकों के परिवार के भरण-पोषण का प्रबन्ध करना चाहिये। शत्रु के यहाँ से मिले हुए धन का कुछ भाग भृत्यों को भी बाँट दे। इस प्रकार यह रण की दीक्षा बतायी गयी है; इसके अनुसार कार्य करने से राजा को निश्चय ही विजय की प्राप्ति होती है ॥ ६५-६६ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रणदीक्षा-वर्णन’ नामक दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३६ ॥

1. यज् जाग्रतो दूरम् उदैति दैवं तद् उ सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिर् एकं तन् मे मनः शिवसंकल्पम् अस्तु ॥

2. धन्वना गा धन्वनाजिं जयेम धन्वना तीव्राः समदो जयेम ।
धनुः शत्रोरपकामं कृणोति धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम ॥ २ ॥ यजुर्वेद (ऋषिः – भारद्वाज ऋषिः देवता – वीरा देवताः छन्दः – त्रिष्टुप् स्वरः – धैवतः(,  ऋग्वेद (६ । ७५ । २)

3. तद् विष्णोः परमं पदꣳ सदा पश्यन्ति सूरयो दिवीव चक्षुर् आततम् ॥

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