August 18, 2015 | Leave a comment गुप्त-सप्तशती सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है। इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन’ का पाठ करे। कुञ्जिका-स्तोत्र ।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।। श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्। येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्॥1॥ न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्॥2॥ कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥ 3॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति। मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्। पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्॥ 4॥ अथ मंत्र ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ इति मंत्रः॥ इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे। ।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।। नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥ नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि। जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥ ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥ क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते। चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥ विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥ धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।। ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥ ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥ ।।मन्त्र।। अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥ म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।। सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥ इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये। अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।। कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥ । इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् । गुप्त-सप्तशती ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता। स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।। हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता। हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१ ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे। खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।। हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे। हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२ ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने। घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।। निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे। हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३ ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे। मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।। तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने। ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४ ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे। त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।। ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे। स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५ ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे। ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।। द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे। सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६ ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे। वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।। स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले। किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७ ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे। सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।। जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे। देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८ ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा। त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।। ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे। पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९ हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने। गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।। वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे। हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१० स्तवन या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा। श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।। ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा। सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१ ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे। क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।। कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती- हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२ ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे। रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।। लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः। कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३ ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे। निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।। ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्। क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४ ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे। चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।। स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे। सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५ ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा। विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।। वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती। सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६ ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी। ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।। हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती। हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७ ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये। रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।। हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी। त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८ वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे। नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।। रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला। उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९ ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी। त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।। रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे। पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१० रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा। संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।। व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे। रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११ इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्। प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।। इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्। मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२ चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी। यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।। डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा। रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३ Related