March 19, 2025 | aspundir | Leave a comment धनान्नदानसूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल का ११७वाँ सूक्त जो कि ‘धनान्नदानसूक्त’ के नाम से प्रसिद्ध है, दान की महत्ता प्रतिपादित करने वाला एक भव्य सूक्त है। इसके मन्त्र उपदेशपरक एवं नैतिक शिक्षा से युक्त हैं। सूक्त से यही तथ्य प्राप्त होता है कि लोक में दान तथा दानी की अपार महिमा है। धनी के धन की सार्थकता उसकी कृपणता में नहीं, वरन् दानशीलता में मानी गयी है। इस सूक्त के मन्त्रद्रष्टा ऋषि ‘भिक्षुरांगिरस’ हैं। पहली और दूसरी ऋचाओं में जगती छन्द एवं अन्य में त्रिष्टुप् छन्द है। न वा उ देवाः क्षुधमिद्वधं ददुरुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यवः । उतो रयिः पृणतो नोप दस्यत्युतापृणन् मर्डितारं न विन्दते ॥ १ ॥ य आध्राय चकमानाय पित्वो ऽन्नवान्त्सन् रफितायोपजग्मुषे । स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो चित् स मर्डितारं न विन्दते ॥ २ ॥ देवों ने भूख देकर प्राणियों का (लगभग) वध कर डाला। जो अन्न देकर भूख की ज्वाला शान्त करे, वही दाता है। भूखे को न देकर जो स्वयं भोजन करता है, एक दिन मृत्यु उसके प्राणों को हर ले जाती हैं । देने वाले का धन कभी नहीं घटता, उसे ईश्वर देता है। न देने वाले कृपण को किसी से सुख प्राप्त नहीं होता ॥ १ ॥ अन्न की इच्छा से द्वार पर आकर हाथ फैलाये विकल व्यक्ति के प्रति जो अपना मन कठोर बना लेता है और अन्न होते हुए भी देने के लिये हाथ नहीं बढ़ाता तथा उसके सामने ही उसे तरसाकर खाता है, उस महाक्रूर को कभी सुख प्राप्त नहीं होता ॥ २ ॥ स इद् भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय । अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ॥ ३ ॥ न स सखा यो न ददाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्वः । अपास्मात् प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत् ॥ ४ ॥ पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान् द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम् । ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रा ऽन्यमन्यमुप तिष्ठन्त रायः ॥ ५ ॥ मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य । नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥ ६ ॥ घर आकर माँग रहे अति दुर्बल शरीर के याचक को जो भोजन देता है, उसे यज्ञ का पूर्ण फल प्राप्त होता है तथा वह अपने शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है ॥ ३ ॥ मित्र अपने अंग के समान होता है। जो अपने मित्र को माँगने पर भी नहीं देता, वह उसका मित्र नहीं है। उसे छोड़कर दूर चले जाना चाहिये। वह उसका घर नहीं है। किसी अन्य देने वाले की शरण लेनी चाहिये ॥ ४ ॥ जो याचक को अन्नादि का दान करता है, वही धनी है। उसे कल्याण का शुभ मार्ग प्रशस्त दिखायी देता है। वैभव-विलास रथ के चक्र की भाँति आते-जाते रहते हैं। किसी समय एक के पास सम्पदा रहती है तो कभी दूसरे के पास रहती हैं ॥ ५ ॥ जिसका मन उदार न हो, वह व्यर्थ ही अन्न पैदा करता है। संचय ही उसकी मृत्यु का कारण बनता है। जो न तो देवों कों और न ही मित्रों को तृप्त करता है, वह वास्तव में पाप का ही भक्षण करता है ॥ ६ ॥ कृषन्नित् फाल आशितं कृणोति यन्नध्वानमप वृङ्क्ते चरित्रैः । वदन् ब्रह्मावदतो वनीयान् पृणन्नापिरपृणन्तमभि ष्यात् ॥ ७ ॥ एकपाद् भूयो द्विपदो विचक्रमे द्विपात् त्रिपादमभ्येति पश्चात् । चतुष्पादेति द्विपदामभिस्वरे संपश्यन् पङ्क्तीरुपतिष्ठमानः ॥ ८ ॥ समौ चिद्धस्तौ न समं विविष्टः संमातरा चिन्न समं दुहाते । यमयोश्चिन्न समा वीर्याणि ज्ञाती चित् संतौ न समं पृणीतः ॥ ९ ॥ [ ऋक्० १० । ११७ ] हल का उपकारी फाल खेत को जोतकर किसान को अन्न देता है । गमनशील व्यक्ति अपने पैर के चिह्नों से मार्ग का निर्माण करता है । बोलता हुआ ब्राह्मण न बोलने वालों से श्रेष्ठ होता है ॥ ७ ॥ एकांश का धनिक दो अंश के धनी के पीछे चलता है। दो अंशवाला भी तीन अंशवाले के पीछे छूट जाता है। चार अंशवाला पंक्ति में सबसे आगे चलता हुआ सबको अपने से पीछे देखता है। अतः वैभव का मिथ्या अभिमान न करके दान करना चाहिये ॥ ८ ॥ दोनों हाथ एकसमान होते हुए भी समान कार्य नहीं करते। दो गायें समान होकर भी समान दूध नहीं देतीं। दो जुड़वाँ सन्तानें समान होकर भी पराक्रम में समान नहीं होतीं। उसी प्रकार एक कुल में उत्पन्न दो व्यक्ति समान होकर भी दान करने में समान नहीं होते ॥ ९ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe