परशुराम-कृत श्रीदुर्गा-स्तोत्र
।। परशुराम उवाच ।।

श्रीकृष्णस्य च गो-लोके-परिपूर्णतमस्य चः । आविर्भूता विग्रहतः, परा सृष्ट्युन्मुखस्य च ।।
सूर्य-कोटि-प्रभा-युक्ता, वस्त्रालंकार-भूषिता । वह्नि-शुद्धांशुकाधाना सुस्मिता, सुमनोहरा ।।
नव-यौवन-सम्पन्ना सिन्दूर-विन्दु-शोभिता । ललितं कबरीभारं मालती-माल्य-मण्डितम् ।।
अहोऽनिर्वचनीया त्वं, चारुमूर्ति च बिभ्रती । मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां, महाविष्णोर्विधिः स्वयम् ।।
मुमोह क्षणमात्रेण दृष्ट्वा, त्वां सर्वमोहिनीम् । बालैः सम्भूय सहसा, सस्मिता धाविता पुरा ।।

सद्भिः ख्याता तेन, राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी । कृष्णस्त्वां सहसाहूय, वीर्याधानं चकार ह ।।
ततो डिम्भं महज्जज्ञे, ततो जातो महाविराट् । यस्यैव लोमकूपेषु, ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ।।
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्निःश्वासो बभूव ह । स निःश्वासो महावायुः स विराड् विश्वधारकः ।।
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम् । स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह ।।
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती । प्राणाधिष्ठातृमूर्त्तिर्या कृष्णस्य परमात्मनः ।।
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविदः ।।
वेदाधिष्ठात्रीमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि । तं सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिणः ।।
ऐश्वर्याधिष्ठात्रीमूर्तिः शान्तिश्च शान्तरूपिणी । लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्वरुपिणीम् ।।
रागाधिष्ठात्री या देवी, शुक्लमूर्तिः सतां प्रसूः । सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां प्रवदन्ति बुधा भुवि ।।
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्तिर्ज्या मूर्तिरधिदेवता । सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी ।।
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना ।।
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके । सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मणः प्रिया ।।
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च । परमानन्द-रूपस्य परमानन्दरूपिणी ।।
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषितः ।।
त्वं विद्या योषितः सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी । छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी ।।
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी । वरुणानी जलेशस्य वायोः स्त्री प्राणवल्लभा ।।
वह्नेः प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी । यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी ।।
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनोः प्रिया । देवहूतिः कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ।।
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा । अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा ।।
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां याः सरिद्वराः । एताः सर्वाश्च या ह्यन्याः सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके ।।
गृहलक्ष्मीगृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु । तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च ।।
सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा । ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च ।।
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने । जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे ।।
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी । क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्तयः ।।
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी । स्मृतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम् ।।
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसूः शुभा । शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जयः शिवः ।।
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च याः । ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते ।।
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पितः । स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूर्ध्ना प्रणमाम्यहम् ।।
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम् । बभूव शक्तिमान् स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे । यां तुष्टुवुः सुराः सर्वे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भुः समुत्थितः । जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
यदाज्ञया वाति वातः सूर्यस्तपति संततम् । वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निस्तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगतः । मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया । संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
ज्योतिःस्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुणः स्वयम् । यया विना न शक्तश्च सृष्टिं कर्त्तुं नमामि ताम् ।।
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व मे । शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति ।।
इत्युत्तवा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह । तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ ।।
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज । शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम् ।।
सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरिः । भक्तिर्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ ।।
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्तिर्भवति शाश्वती । तं हन्तु न हि शक्ताश्च रुष्टाश्च सर्वदेवताः ।।
श्रीकृष्णस्य च भक्तस्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च । गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वरः ।।
अहो न कृष्णभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् । अन्यदेवेषु ये भक्ता न भक्ता वा निरेङ्कुशाः ।।
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो । तेषां तारागणा रुष्टाः किं कुर्वन्ति च दुर्बलाः ।।
यस्य तुष्टः सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी । तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बलाः ।।
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम् । जगामान्तःपुरं तूर्णं हरिशब्दो बभूव ह ।।
।।फल-श्रुति।।
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च यः पठेत् । यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्छितार्थं लभेद्ध्रुवम ।।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत् । विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्नुयात् प्रजाम् ।।
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत् ।।
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा । तस्य तुष्टश्च वरदः स्तोत्रराजप्रसादतः ।।
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानकः । व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्तः स्तोत्रस्मरणमात्रतः ।।
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने । जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रतः ।।
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे । स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्छितार्थं लभेद् ध्रुवम ।।
कृत्वा हविष्यं वर्षं च स्तोत्रराजं श्रृणोति या । भक्तया दुर्गां च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते ।।
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम् । असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत् ।।
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्तितः । स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ।।
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्चमासं श्रृणोति या । घटे सम्पूज्य दुर्गां च सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ।।
।। ब्रह्म-वैवर्त्त-पुराण, गणपतिखण्ड-४५/१८-७८ ।।
भावार्थः-
परशुराम ने कहाः-
प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से आपका प्राकटय हुआ था । आपकी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी । आप वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं । शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी का परिधान था । नव तरुण अवस्था थी । ललाट पर सिंदूर की बिन्दी शोभित हो रही थी । मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी । बडा ही मनोहर रूप था । मुख पर मन्द मुस्कान थी । अहो ! आपकी मूर्ति बडी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है । आप मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो । बाले ! आप सबको मोहित कर लेने वाली हो।
आपको देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये । तब आप उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष आपको मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं । उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने आपको बुलाकर वीर्य का आधान किया । उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ । उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं । फिर राधा के श्रृङ्गार क्रम से आपका निःश्वास प्रकट हुआ । वह निःश्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया । आपके पसीने से विश्वगोलक पिघल गया । तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया । तब आपने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली । उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं । जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं । जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्‍‌वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संत लोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं । अहो ! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं । जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही आप इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
आप ही शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो । जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की आप परमानन्दरूपिणी राधा हो । देवाङ्गनाएँ भी आपके कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं । सारी नारियाँ आपकी विद्यास्वरूपा हैं और आप सबकी कारणरूपा हो । अम्बिके ! सूर्य की पत्‍‌नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्‍‌नी शची, कामदेव की पत्‍‌नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्‍‌नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अग्नि की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्‍‌नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्‍‌नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्‍‌नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्‍‌नी अहिल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी आपकी कला से उत्पन्न हुई हैं ।
आप मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो । आप सत्पुरुषों के लिए सत्त्‍‌वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो । निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति आप ही हो। आप सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द आपका ही रूप है। आप भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो । संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति आप ही हो । श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह आप ही हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्तियाँ हैं, उनके रूप में आप ही विद्यमान हो; अतः आपको नमस्कार है । जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्तिमान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ । त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ । जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ । जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अग्नि जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ । जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्कर काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योतिःस्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है । जगज्जननी ! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो । भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है ।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे । तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स ! तुम अमर हो जाओ । बेटा ! अब शान्ति धारण करो । शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें । श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते । तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्‍‌नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके । अहो ! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता । भार्गव ! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं । सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा ? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्तःपुर में चली गयीं । तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा ।
जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रातःकाल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है । इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छः महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।

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