॥ पुरुषसूक्त ॥
वेदों में प्राप्त सूक्तों में पुरुषसूक्त’ का अत्यन्त महनीय स्थान है । आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दृष्टि से इस सूक्त का बड़ा महत्त्व है। इसीलिये यह सूक्त ऋग्वेद (१०वें मण्डल का ९०वाँ सूक्त), यजुर्वेद (३१वाँ अध्याय), अथर्ववेद (१९वें काण्डका छठा सूक्त), तैत्तिरीयसंहिता, शतपथब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदि में किंचित् शब्दान्तर के साथ प्रायः यथावत् प्राप्त होता है । मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुष-सूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। पुरुषसूक्तमें सोलह मन्त्र हैं। ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण तथा देवता ‘पुरुष’ हैं। वेदोक्त पूजा-अर्चा में पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों का प्रयोग भगवान् के षोडशोपचार-पूजन तथा यजन में सर्वत्र होता हैं । इस सूक्त में विराट् पुरुष परमात्मा की महिमा निरूपित है और सृष्टि-निरूपण की प्रक्रिया बतायी गयी है । उस विराट् पुरुष को अनन्त सिर, नेत्र और चरणवाला बताया गया है ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः।’ इस सूक्तमें बताया गया है कि यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उनकी एकपाद्विभूति है अर्थात् चतुर्थांश है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, कैलास, साकेत आदि) हैं। इस सूक्त में यज्ञपुरुष नारायणकी यज्ञद्वारा यजनकी प्रक्रिया भी बतायी गयी है। यहाँपर शुक्लयजुर्वेदीय तथा मुद्गलोपनिषद् में प्राप्त पुरुषसूक्त भावार्थ सहित प्रस्तुत है —

( शु०यजु० ३१ । १-१६)
॥ पुरुषसूक्त (क) ॥
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि
सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) — को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं ॥ १ ॥

पुरुष एवेद सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥

यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं । इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्नसे ( भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं ॥ २ ॥

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥

यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है । वे अपने इस विभूति-विस्तार से भी महान् हैं । उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश)— में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं ॥ ३ ॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४ ॥

वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ मायाका प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय— उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं ॥ ४ ॥

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥

उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ । वे परम पुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) — रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए । बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये ॥ ५ ॥

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६ ॥

जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये ॥ ६ ॥

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७ ॥

उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए ॥ ७ ॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८ ॥

उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं । वे दोनों ओर दाँतोंवाले हैं ॥ ८ ॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९ ॥

देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया ॥ ९ ॥

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १० ॥

पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं ? उसका मुख क्या था ? उसके बाहु क्या थे ? उसके जंघे क्या थे ? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं ? ॥ १० ॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या शूद्रो अजायते ॥ ११ ॥

ब्राह्मण इसका मुख था (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्रवर्ण प्रकट हुआ ॥ ११ ॥

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते ॥ १२ ॥

इस परम पुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए, कानोंसे वायु और प्राण तथा मुखसे अग्निकी उत्पत्ति हुई ॥ १२ ॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १३ ॥

उन्हीं परम पुरुष की नाभिसे अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं । इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए ॥ १३ ॥

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४ ॥

जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद् हवि थी ॥ १४ ॥

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥

देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशु को बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे । इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं ॥ १५ ॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६ ॥

( शु०यजु० ३१ । १-१६)
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया । इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मकरूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं ।) ॥ १६ ॥

॥ पुरुषसूक्त (ख) ॥
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥
( उपनिषद् के अनुसार पुरुषसूक्त के प्रारम्भिक चार मन्त्रों में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध — इन चतुर्व्यूहात्मक भगवत्—स्वरूपों का वर्णन भी होता है । प्रथम मन्त्र में भगवान् के वासुदेव-स्वरूप का वर्णन है । मन्त्र के अनुसार वे अनन्त हैं, सबको व्याप्त करके भी सबसे परे हैं । उन्हीं का दिव्य प्रकाश समस्त अन्तःकरणों में हैं और फिर भी वे अन्तःकरणों के धर्मों से निर्लिप्त, सबसे परे हैं । यही उनका चेतनात्मक वासुदेवरूप है । दूसरे मन्त्र में उनके संकर्षण-स्वरूप का वर्णन है । संकर्षणस्वरूप दिव्य प्राणात्मक है। समस्त जगत् त्रिकाल में इसी रूप से व्यक्त होता है और भगवान् का यही रूप उसका शासक एवं स्वामी है । यही भगवान् का ईश्वरस्वरूप है । तीसरे मन्त्र में भगवान् के प्रद्युम्न स्वरूप का वैभव है । भगवान् का यह स्वरूप सौन्दर्यघन, दिव्य कामात्मक एवं ध्यानगम्य है । त्रिपाद्विभूति में नित्यलोकों में भगवान् इसी स्वरूप से विराजमान हैं । श्रुति के इस तात्पर्य को उपनिषद् ने स्पष्ट किया है । चतुर्थ मन्त्र में भगवान् का अनिरुद्ध-दुर्निवार स्वरूप है । भगवान् का यह स्वरूप योग-माया-समन्वित है । वही जगद्रूप एवं जगत् का कारण है । यही रूप भगवान् की चतुर्थ पादविभूति का है ।)

॥ १ ॥

ॐ पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥

यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, यह सब वे परमपुरुष ही हैं । इसके अतिरिक्त वे अमृतत्व (मोक्षपद)-के तथा जो अन्न से (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर–शासक) हैं ।यह मन्त्र भगवान् के सर्वकालव्यापी रूप का वर्णन करता है। ॥ २ ॥

ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥

यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है । वे अपने इस विभूति-विस्तार से महान् हैं । उन परमेश्वर की एकपाद विभूति (चतुर्थांश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं। यह मन्त्र भगवान् के वैभव का वर्णन करता है और नित्य लोकों के वर्णन द्वारा उनके मोक्षपदत्व को भी बतलाता है। ॥ ३ ॥

ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥ ४ ॥
वे परमपुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाविभूति में प्रकाशमान हैं । (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है।) इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है । अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं । इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं । इस मन्त्र में भगवान् के चतुर्व्यहरूप में से चतुर्थ अनिरुद्ध-रूप का वर्णन हुआ है । यही रूप एकपाद ब्रह्माण्ड-वैभव का अधिष्ठान है। ॥ ४ ॥

ॐ तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥
उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ । वे परमपुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) हुए । वह (हिरण्यगर्भ) उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुआ । बाद में उसीने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये । इस मन्त्र में श्रीनारायण से माया एवं जीवों की उत्पत्ति का वर्णन है। ॥ ५ ॥

ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ ६ ॥
देवताओं ने उस पुरुष के शरीर में ही हविष्य की भावना करके यज्ञ सम्पन्न किया । इस यज्ञ में वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु इन्धन और शरदऋतु हविष्य (चरु-पुरोडाशादि विशेष हविष्य) हुए । अर्थात् देवताओं ने इनमें यह भावना की । इस मन्त्र में सृष्टिरूप यज्ञ का वर्णन है और आगे आठ मन्त्रों तक वही हैं। ॥ ६ ॥

ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये* ॥ ७ ॥

उपनिषद् के अनुसार श्रुति ने मोक्ष का प्रतिपादन भी किया है । ‘परोक्षवादो वेदोऽयम्’-श्रुतियों में अध्यात्मवाद परोक्षरूप से निरूपित है । अतः मोक्षप्रतिपादन के लिये इस श्रुतिका अर्थ इस प्रकार होगा -‘ उस आत्म-शोधनरूप यज्ञ में देवताओं-दिव्यवृत्तियों ने पुरुषशरीराभिमानी को, जो शरीरमें अहङ्कार करके पशु हो गया था, कुशोंके–साधनोंके द्वारा प्रोक्षित-विशुद्ध किया। इस प्रकार प्रोक्षित होनेपर वह अग्रजन्मा ब्राह्मण-ब्रह्मज्ञानसम्पन्न हुआ। इसी प्रकार इन्द्रादि देवताओंने, साध्य देवताओंने और ऋषियोंने भी यजन किया। सबने इसी रीतिसे शरीराभिमानीका आत्मशोधन करके मोक्ष प्राप्त किया।’)
सबसे प्रथम उत्पन्न उस पुरुष को ही यज्ञ में देवताओं, साध्यों और ऋषियों ने (पशु मानकर) कुश के द्वारा प्रोक्षण करके (मानसिक) यज्ञ सम्पूर्ण किया । इस मन्त्र में सृष्टि-यज्ञ के साथ मोक्ष का वर्णन भी किया गया है। ॥ ७ ॥

ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥ ८ ॥

उस ऐसे यज्ञ से जिसमें सब कुछ हवन कर दिया गया था, प्रशस्त घृतादि (दूध, दधि प्रभृति) उत्पन्न हुए । इस उस यज्ञरूप पुरुष ने ही वायु में रहनेवाले, ग्राम में रहनेवाले, वन में रहनेवाले तथा दूसरे पशुओं को उत्पन्न किया । (तात्पर्य यह कि उस यज्ञसे नभ, भूमि एवं जल में रहनेवाले समस्त प्राणियों की उत्पत्ति हुई और उन प्राणियों से देवताओं के योग्य हवनीय प्राप्त हुआ।) ॥ ८ ॥

ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ॥ ९ ॥

जिसमें सब कुछ हवन किया गया था, उस यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद प्रकट हुए । उसीसे गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए । उसीसे यजुर्वेद की भी उत्पत्ति हुई ॥ ९ ॥

ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ १० ॥

उस यज्ञपुरुष से घोड़े उत्पन्न हुए । इनके अतिरिक्त नीचे-ऊपर दोनों ओर दाँतोंवाले (गर्दभादि) भी उत्पन्न हुए । उसीसे गौएँ उत्पन्न हुईं और उसीसे बकरियाँ और भेड़े भी उत्पन्न हुईं ॥ १० ॥

ॐ यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्यते ॥ ११ ॥

देवताओं ने जिस यज्ञपुरुष का विधान (संकल्प) किया, उसको कितने प्रकार से (किन अवयवोंके रूपमें) कल्पित किया, इसका मुख क्या था, बाहुएँ क्या थीं, जंघाएँ क्या थीं और पैर कौन थे—यह बताया जाता है ॥ ११ ॥

ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ १२ ॥

ब्राह्मण इसका मुख था । (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए।) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बना । (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए।) इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वहीं वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए, और पैरों से शूद्र-वर्ण प्रकट हुआ ॥ १२ ॥

ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत ॥ १३ ॥

इस यज्ञपुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए । नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए । मुख से इन्द्र और अग्नि तथा प्राण से वायु की उत्पत्ति हुई ॥ १३ ॥

ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १४ ॥

यज्ञपुरुष की नाभि से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ । मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ । पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ हुईं । इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए ॥ १४ ॥

ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥

देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशु का बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे । इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकारसे) समिधा बनी ॥ १५ ॥ इस मन्त्रमें सृष्टि-यज्ञकी समिधाका वर्णन है।

ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे ।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते * ॥ १६ ॥

तमस् (अविद्यारूप अन्धकार)-से परे आदित्य के समान प्रकाशस्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ । सबकी बुद्धि में रमण करनेवाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है; और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता हैं ॥ १६॥ इस मन्त्र में और इसके आगे मन्त्र में भी श्रीहरि के वैभव का वर्णन है।
* १६ वाँ तथा १७ वाँ–ये दोनों मन्त्र ऋग्वेदकी प्रचलित प्रतियोंके पुरुषसूक्तमें नहीं मिलते, परंतु पुरुषसूक्तके पृथक् प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्’, ‘महावाक्योपनिषद्’ तथा ‘चित्युपनिषद् में आये हैं । १७ वाँ मन्त्र ‘तैत्तिरीय आरण्यक’ में भी है ।

ॐ धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः ।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय ॥ १७ ॥

पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम)-की प्राप्ति का नहीं है ॥ १७ ॥

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि
धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
तेह नाकं महिमानः सचन्त
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १८ ॥

[ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद् ]
देवताओं ने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया । इस यज्ञ से सर्वप्रथम सब धर्म उत्पन्न हुए । उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं ॥ १८ ॥ इस मन्त्रमें सृष्टियज्ञ एवं मोक्षके वर्णनका उपसंहार है।
(उपनिषद् इस मन्त्रमें मोक्ष-निरूपणका उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपणके लिये श्रुतिका अर्थ इस प्रकार होना चाहिये
सम्पूर्ण कर्म, जो भगवदर्पणबुद्धिसे भगवान्के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्मरूप यज्ञके द्वारा सात्त्विक वृत्तियोंने उन यज्ञस्वरूप भगवान्का युज़न-पूजन किया। इसी भगवदर्पणबुद्धिसे किये गये यज्ञरूप कर्मोंके द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुएधर्माचरणकी उत्पत्ति भगवदर्पणबुद्धिसे किये गये कर्मोंसे हुई । इस प्रकार भगवदर्पणबुद्धिसे अपने समस्त कर्मोक द्वारा जो भगवान्के यजनरूप कर्मका आचरण करते हैं, वे उस भगवान्के दिव्यधामको जाते हैं, जहाँ उनके साध्य–आराध्य आदिदेव भगवान् विराजमान हैं।
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