February 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 16 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सोलहवाँ अध्याय कार्तिकेय का नन्दिकेश्वर के साथ कैलास पर आगमन, स्वागत, सभा में जाकर विष्णु आदि देवों को नमस्कार करना और शुभाशीर्वाद पाना श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! शंकरसुवन कार्तिकेय नन्दिकेश्वर से यों कहकर शीघ्र ही कृत्तिकाओं को समझाते हुए नीतियुक्त वचन बोले । कार्तिकेय ने कहा — माताओ ! मैं देवसमुदाय, बन्धुवर्ग तथा माता को देखना चाहता हूँ; अतः शंकरजी के निवास-स्थान पर जाऊँगा, इसके लिये आप लोग मुझे आज्ञा प्रदान करें। सारा जगत्, शुभदायक जन्म-कर्म, संयोग-वियोग सभी दैव के अधीन है। दैव से बढ़कर दूसरा कोई बली नहीं है । वह दैव श्रीकृष्ण के वश में रहनेवाला है; क्योंकि वे दैव से परे हैं । इसीलिये संत लोग उन ऐश्वर्यशाली परमात्मा का निरन्तर भजन करते हैं । अविनाशी श्रीकृष्ण अपनी लीला से दैव को बढ़ाने और घटाने में समर्थ हैं । उनका भक्त दैव के वशीभूत नहीं होता — ऐसा निर्णीत है। इसलिये आप लोग इस दुःखदायक मोह का परित्याग कीजिये और जो सुखदाता, मोक्षप्रद, सारसर्वस्व, जन्म-मृत्यु के भय के विनाशकर्ता, परमानन्द के जनक और मोह-जाल के उच्छेदक हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सभी देवगण जिनका निरन्तर भजन करते हैं, उन गोविन्द की भक्ति कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इस भवसागर में मैं आप लोगों का कौन हूँ और आपलोग मेरी कौन हैं ? संसार – प्रवाह का वह सारा कर्म फेन की भाँति पुञ्जीभूत हो गया है। (वस्तुतः कोई किसी का नहीं है ।) संयोग अथवा वियोग – यह सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है । यहाँ तक कि सारा ब्रह्माण्ड ईश्वर के अधीन है, वह भी स्वतन्त्र नहीं है —ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । सारी त्रिलोकी जल के बुलबुले के समान क्षण-भङ्गुर है, फिर भी माया से मोहित चित्त वाले लोग इस अनित्य जगत् में माया का विस्तार करते हैं; परंतु जो श्रीकृष्णपरायण संत हैं, वे जगत् में रहते हुए भी वायु की भाँति लिप्त नहीं होते । इसलिये माताओ ! आप लोग मोह का परित्याग करके मुझे जाने की आज्ञा दीजिये । यों कहकर ऐश्वर्यशाली कार्तिकेय ने उन कृत्तिकाओं को नमस्कार किया और फिर मन-ही-मन श्रीहरि का स्मरण करते हुए शंकरजी के पार्षदों के साथ यात्रा के लिये प्रस्थान किया । इसी बीच उन्होंने वहाँ एक उत्तम रथ को देखा । वह बहुमूल्य रत्नों का बना हुआ था, जिसे विश्वकर्मा ने भली-भाँति निर्माण किया था, उसमें स्थान-स्थान पर माणिक्य और हीरे जड़े गये थे, जिससे उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी । पारिजात-पुष्पों की मालावली से वह सुशोभित था । मणियों के दर्पण तथा श्वेत चँवरों से वह अत्यन्त उद्भासित हो रहा था और चित्रकारीयुक्त रमणीय क्रीडा-भवनों से वह भली-भाँति सुसज्जित था । वह मनोहर तो था ही, उसका विस्तार भी बड़ा था। उसमें सौ पहिये लगे थे। उसका वेग मन के समान था और श्रेष्ठ पार्षद उसे घेरे हुए थे। उस रथ को पार्वती ने भेजा था । उस रथ पर कार्तिकेय को चढ़ते देखकर कृत्तिकाओं का हृदय दुःख से फटा जा रहा था। उनके केश खुल गये थे और वे शोक से व्याकुल थीं । सहसा चेतना प्राप्त होने पर अपने सामने स्कन्द को देख वे अत्यन्त शोक के कारण ठगी-सी रह गयीं; फिर वहीं भयवश उन्मत्त की भाँति कहने लगीं । कृत्तिकाओं ने कहा — हाय ! अब हम लोग क्या करें, कहाँ चली जायँ ? बेटा! हमारे आश्रय तो तुम्हीं हो। इस समय तुम हम लोगों को छोड़कर कहाँ जा रहे हो ? यह तुम्हारे लिये धर्मसङ्गत बात नहीं है। हम लोगों ने बड़े स्नेह से तुम्हें पाला-पोसा है, अतः तुम धर्मानुसार हमारे पुत्र हो । भला, उपयुक्त पुत्र मातृवर्गों का परित्याग कर दे — यह भी कोई धर्म है ? यों कहकर सभी कृत्तिकाओं ने कार्तिकेय को छाती से चिपका लिया और पुत्र-वियोग-जन्य दारुण दुःख के कारण वे पुनः मूर्च्छित हो गयीं । मुने ! तत्पश्चात् कुमार कार्तिकेय ने आध्यात्मिक वचनों द्वारा उन्हें समझाया और फिर उनके तथा पार्षदों के साथ वे उस रथ पर सवार हुए। मुने! यात्राकाल में उन्होंने अपने सामने साँड़, गजराज, घोड़ा, जलती हुई आग, भरा हुआ सुवर्ण कलश, अनेक प्रकार के पके हुए फल, पति-पुत्र से युक्त स्त्री, प्रदीप, उत्तम मणि, मोती, पुष्पमाला, मछली और चन्दन — इन माङ्गलिक वस्तुओं को, वामभाग में शृगाल, नकुल, कुम्भ और शुभदायक शव को तथा दक्षिणभाग में राजहंस, मयूर, खञ्जन, शुक, कोकिल, कबूतर, शङ्खचिल्ल (सफेद चील), माङ्गलिक चक्रवाक, कृष्णसार- मृग, सुरभी और चमरी गौ, श्वेत चँवर, सवत्सा धेनु और शुभ पताका को देखा। उस समय नाना प्रका रके बाजों की मङ्गलध्वनि सुनायी पड़ने लगी, हरिकीर्तन तथा घण्टा और शङ्ख का शब्द होने लगा। इस प्रकार मङ्गल-शकुनों को देखते तथा सुनते हुए कार्तिकेय आनन्दपूर्वक उस मन के समान वेगशाली रथ के द्वारा क्षणमात्र में ही पिता के मन्दिर पर जा पहुँचे। वहाँ कैलास पर पहुँचकर वे अविनाशी वट-वृक्ष के नीचे कृत्तिकाओं तथा श्रेष्ठ पार्षदों के साथ कुछ देर के लिये ठहर गये । उस नगर के राजमार्ग बड़े मनोहर थे। उन पर चारों ओर पद्मराग और इन्द्रनीलमणि जड़ी हुई थी । समूह-के-समूह केले के खंभे गड़े थे, जिन पर रेशमी सूत गुँथे हुए चन्दन के पल्लवों की बन्दनवार लटक रही थी। वह पूर्ण कुम्भों से सुशोभित था । उस पर चन्दन-मिश्रित जल का छिड़काव किया गया था। असंख्यों रत्नप्रदीपों तथा मणियों से उसकी विशेष शोभा हो रही थी। वह सदा उत्सवों से व्याप्त, हाथों में दूब और पुष्प लिये हुए वन्दियों और ब्राह्मणों से युक्त तथा पति पुत्रवती साध्वी नारियों से समन्वित था। समस्त मङ्गल-कार्य करके पार्वती देवी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, तुलसी, रति, अरुन्धती, अहल्या, दिति, सुन्दरी तारा, अदिति, शतरूपा, शची, संध्या, रोहिणी, अनसूया, स्वाहा, संज्ञा, वरुण पत्नी, आकूति, प्रसूति, देवहूति, मेनका, एक रंग तथा एक प्रकृति वाली मैनाक- पत्नी, वसुन्धरा और मनसादेवी को आगे करके वहाँ आयीं । तदनन्तर देवगण, मुनिसमुदाय, पर्वत, गन्धर्व तथा किन्नर सब-के-सब आनन्दमन हो कुमा रके स्वागत में गये । महेश्वर भी नाना प्रकार के बाजों, रुद्रगणों, पार्षदों, भैरवों तथा क्षेत्रपालों के साथ वहाँ पधारे। तत्पश्चात् शक्तिधारी कार्तिकेय पार्वती को निकट देखकर हर्षगद्गद हो गये । उस समय वे तुरंत ही रथ से उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करने लगे। तब पार्वती ने कार्तिकेय को देखकर लक्ष्मी आदि देवियों, मुनि पत्नियों और शिव आदि सभी से यत्नपूर्वक परम भक्ति के साथ सम्भाषण किया और उन्हें अपनी गोद में उठाकर वे चूमने लगीं। फिर शंकर, देवगण, पर्वत, शैलपत्नियों, पार्वती आदि देवियों तथा सभी मुनियों ने कार्तिकेय को शुभाशीर्वाद दिया । तदनन्तर कुमार गणोंके साथ शिव-भवन में आये । वहाँ सभा के मध्य में उन्होंने क्षीरसाग रमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णु को देखा। वे रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्नसिंहासन पर विराजमान थे । धर्म, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवता उन्हें घेरे हुए थे । उनका मुख प्रसन्न था तथा उस पर थोड़ी-थोड़ी मुस्कान की छटा छा रही थी। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर हो रहे थे। उन पर श्वेत चँवर डुलाया जा रहा था और देवेन्द्र तथा मुनीन्द्र उनका स्तवन कर रहे थे । उन जगन्नाथ को देखकर कार्तिकेय के सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया। उन्होंने भक्तिभावपूर्वक सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद ब्रह्मा, धर्म, देवताओं और हर्षित मुनिवरों में प्रत्येक को प्रणाम किया और उनका शुभाशीर्वाद पाया। फिर बारी-बारी से सबसे कुशल- समाचार पूछकर वे एक रत्नसिंहासन पर बैठे। उस समय पार्वतीसहित शंकर ने ब्राह्मणों को बहुत सा धन दान किया। (अध्याय १६) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कार्त्तिकेयागमनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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