February 10, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 02 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ दूसरा अध्याय देवताओं को पार्वती का शाप पार्वती की महादेवजी से पुत्रोत्पत्ति के लिये प्रार्थना, शिवजी का उन्हें पुण्यक-व्रत के लिये प्रेरित करना नारायण बोले — महादेव ने सुख त्याग कर सामने देवों को देखते ही पार्वती के भय से कृपापूर्वक कहा — ‘ तुम लोग शीघ्र भाग जाओ’ । पार्वती के शाप के कारण डरे हुए देवगण भाग निकले और समस्त ब्रह्माण्ड के संहर्ता शिव भी पार्वती के भय से कांपने लगे । दुर्गा ने शय्या से उठकर सामने देवों को नहीं देखा इसलिए भड़के हुए क्रोधाग्नि को देह में रोक लिया । किन्तु अति रुष्ट होकर देवी ने देवों को शाप दे ही दिया कि वे देवता आज से निष्फलवीर्य हो जायें (अर्थात् उनके वीर्य से कोई सन्तान न हो ) । अनन्तर शिव ने रक्तनेत्र शिवा (पार्वती) को देखा जो क्रोध से नीचे मुख करके रोदन कर रही थीं एवं पृथ्वी पर लिख रही थीं । देवेश्वर शिव ने पार्वती को क्रोध से लाल नेत्र और दुःखी देख कर उनका हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींच कर उन्हें हृदय से लगा लिया । उन्होंने अत्यन्त मयभीत होकर मधुर वचन कहा । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय शंकर बोले — हे उत्तम पर्वत की कन्ये ! तुम धन्य हो और मन हरण करने वाली हो। तुम मेरा सौभाग्य रूप और मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री हो । हे जगदम्बिके ! तुम्हारी क्या इच्छा है ? कहो, मैं करने के लिए तैयार हूँ । इस समस्त ब्रह्माण्ड समूह में हम दोनों के लिए असाध्य ही क्या है । अतः हे सुन्दरि ! मुझ निरपराध पर प्रसन्न हो जाओ । दैवात् मुझसे अनजाने में अपराध हो गया । उसे क्षमा करो। अहो ! तुम से युक्त होने पर ही मैं । हे शिव हूं और सबके लिए कल्याणदायक हूँ । तुम्हारे बिना मैं सदा शव के समान और अकल्याणकर्ता सुरेश्वरि ! तुम प्रकृति हो, बुद्धि हो एवं शक्ति, क्षमा, दया, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, क्षान्ति, क्षुधा, छाया, निद्रा, तन्द्रा और श्रद्धा रूप हो । हे शिवे ! सबकी आधार और सबकी बीजस्वरूप हो । अतः इस समय मन्द मुसुकान समेत सरस वाणी बोलो । तुम्हारे कोप रूपी विष से जल कर मैं मृतक हो गया हूँ, मुझे शीघ्र जीवित करो । शङ्कर की ऐसी बातें सुन कर क्षमाशील पार्वती ने व्यथित हृदय से मधुर वचन कहा । पार्वती बोलीं — मैं तुमसे क्या कहूँ, तुम सर्वज्ञ, सर्वरूप, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्ण काम और सबकी देह में अवस्थित रहते हो । कामिनी अपना मनोभाव अल्पज्ञ पति से कहती है और तुम तो सब के हृदय के जानने वाले हो अतः तुमसे मनोऽभिलाषित क्या कहूँ । हे महेश ! समस्त स्त्रियों के लिए अतिगोप्य, लज्जा का जनक तथा अकथनीय होने पर भी मैं तुमसे कह रही हूँ । हे सुरेश्वर! सब प्रकार के सुख और समस्त ऐश्वर्यो के बीच निर्जन स्थानों में सत्पुरुष के साथ सम्भोग करना ही स्त्रियों का परम सुख है ।॥ और उसके भंग होने के समान अन्य दुःख स्त्रियों को नहीं है क्योंकि स्त्रियों को स्वामी का वियोग-शोक परम दारुण होता है । हे कान्त ! जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा दिन-दिन क्षीण होता है उसी भाँति कान्त के बिना कान्ता भी क्षण-क्षण में क्षीण होती रहती है। चिन्ता सभी के लिए ज्वररूप दुःख है, वस्त्रों के लिए उपताप (गर्मी) दुःख है, पतिव्रताओं के लिए कान्त-वियोग दुःख है और घोड़ों के लिए मैथुन दुःख है । रति भंग होना मेरा पहला दुःख है, दूसरा दुःख आपका ( भूमि पर ) वीर्यपात होना और यह तीसरा महान् दुःख है कि कोई सन्तान नहीं है । तीनों लोकों के स्वामी आपको पतिरूप में प्राप्त कर के भी मेरे कोई पुत्र नहीं है । जो स्त्री पुत्रहीन होती है, उसका जीवन निरर्थक होता है । तप और दान करने से उत्पन्न पुण्य जन्मान्तर में सुख देता है और सत्कुल में उत्पन्न हुआ पुत्र लोक-परलोक दोनों में सुख प्रदान करता है । स्वामी के अंश से उत्पन्न सत्पुत्र स्वामी के समान ही सुख प्रदान करता है और कुपुत्र तो कुल का अंगार रूप है । वह केवल मन को संतप्त ही करता है । उत्तम स्त्रियों के गर्भ में उनके स्वामी अपने अंश से जन्म ग्रहण करते हैं और पतिव्रता स्त्री माता के समान निरन्तर हित करने वाली होती है । और असाध्वी ( व्यभिचारिणी) स्त्री शत्रु के समान निरन्तर सन्ताप प्रदान करने वाली होती है । मुख की दुष्टा, योनि-दुष्टा और असाध्वी भेद से कुलटा तीन प्रकार की होती है । हे योगीश्वरेश्वर ! आप उपाय के सागर हैं और सभी तप का फल प्रदान करने वाले हैं, अतः मुझे बताइए ! मैं क्या उपाय करूँ । इतना कह कर देवी पार्वती ने अपना मुख नीचे कर लिया । अनन्तर शिव हँस कर पार्वती को समझाने लगे । सत्पुत्र होने का कारण, सुखप्रद, तापनाशक, अल्प, स्नेहमय और अत्यन्त रोचक बातें कहना प्रारम्भ किया । (अध्याय २) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारद नारायणसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ See Also – शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 01 शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 02 Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related