February 14, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 21 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ इक्कीसवाँ अध्याय इन्द्र का बृहस्पति के साथ ब्रह्मा के पास जाना, ब्रह्मा द्वारा दिये गये नारायणस्तोत्र, कवच और मन्त्र के जप से पुनः श्री प्राप्त करना नारद ने पूछा — प्रभो ! किस ब्रह्मशाप के कारण वे सभी देवता श्रीभ्रष्ट हो गये थे । पुनः किस प्रकार उन्होंने उन जगज्जननी कमला को प्राप्त किया? उस समय महेन्द्र ने क्या किया ? आप उस परम दुर्लभ गोपनीय रहस्य को बतलाने की कृपा करें। नारायण ने कहा — नारद! जिसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द हो गयी थी, श्री से भ्रष्ट होने के कारण जिस पर दीनता छायी हुई थी और जिसका आनन्द नष्ट हो गया था, वह इन्द्र गजेन्द्र और रम्भा से पराभूत होकर अमरावती में गया। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मुने ! वहाँ उसने देखा कि उस पुरी में आनन्द का नामनिशान नहीं है । वह दीनता से ग्रस्त, बन्धुओं से हीन और शत्रुवर्गों से खचाखच भर गयी है । तब दूत के मुख से सारा वृत्तान्त सुनकर वह गुरु बृहस्पति घर गया और फिर गुरु तथा देवगणों के साथ वह ब्रह्मा की सभा में जा पहुँचा । वहाँ जाकर देवताओं सहित इन्द्र ने तथा बृहस्पति ने ब्रह्मा को नमस्कार किया और भक्तिभाव सहित वेद-विधि के अनुसार स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् बृहस्पति ने प्रजापति ब्रह्मा से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्मा ने नीचे मुख करके कहना आरम्भ किया। ब्रह्मा बोले — देवेन्द्र ! तुम मेरे प्रपौत्र हो और श्रीसम्पन्न होने से सदा प्रज्वलित होते रहते हो। किंतु राजन् ! लक्ष्मी के समान सुन्दरी शची के पति होने पर भी तुम आचरण-भ्रष्ट हो जाते हो । जो आचरण-भ्रष्ट होता है, उसे लक्ष्मी अथवा यश की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? वह पापी तो सदा सभी सभाओं में निन्दा का विषय बना रहता है। रम्भा ने तुम्हें हतबुद्धि बना दिया था । इसी कारण तुमने दुर्वासा द्वारा दिये गये श्रीहरि के नैवेद्य को गजराज के मस्तक पर डाल दिया। इस समय सबके द्वारा भोगी जाने वाली वह रम्भा कहाँ है और श्री से भ्रष्ट हुए तुम कहाँ ? जिसके कारण तुम्हें लक्ष्मी से रहित होना पड़ा, वह रम्भा भी तुम्हें क्षणभर में ही त्यागकर चली गयी; क्योंकि वेश्या चञ्चला होती है । वह धनवानों को ही पसंद करती है, निर्धनों को नहीं तथा प्राचीन प्रेमी का तिरस्कार करके नये-नये नायकों को खोजती रहती है। परंतु वत्स ! जो बीत गया, वह तो चला ही गया; क्योंकि बीता हुआ पुनः वापस नहीं आता। अब तुम लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक नारायण का भजन करो । इतना कहकर नारायणपरायण ब्रह्मा ने इन्द्र को जगत्स्रष्टा नारायण का स्तोत्र, कवच और मन्त्र दिया । तब इन्द्र देवताओं तथा गुरु के साथ पुष्कर में जाकर अपने अभीप्सित मन्त्र का जप करने लगे और कवच ग्रहण करके उसके द्वारा श्रीहरि की स्तुति में तत्पर हो गये। इस प्रकार पुण्यदायक शुभ भारतवर्ष में एक वर्ष तक निराहार रहकर लक्ष्मी की प्राप्ति के हेतु उन्होंने लक्ष्मीपति की सेवा की । तब श्रीहरि ने प्रकट होकर इन्द्र को मनोवाञ्छित वर तथा लक्ष्मी का स्तोत्र, कवच और ऐश्वर्यवर्धक मन्त्र प्रदान किया। मुने! यह सब देकर श्रीहरि तो वैकुण्ठ को चले गये और इन्द्र क्षीरसागर पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने कवच धारण कर स्तोत्र द्वारा स्तवन करके लक्ष्मी को प्राप्त किया। तत्पश्चात् देवराज इन्द्र ने शत्रु को जीतकर अमरावती को अपने अधिकार में कर लिया। इसी प्रकार सभी देवता एक-एक करके अपने इच्छित स्थान को प्राप्त हुए । ( अध्याय २१ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे शक्रलक्ष्मीप्राप्तिर्नामैकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related