February 15, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 26 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छब्बीसवाँ अध्याय ब्रह्मा द्वारा जमदग्नि और कार्तवीर्य युद्ध का शमन नारायण कहते हैं — नारद! भूपाल के वचन को सुनकर मुनिवर ने श्रीहरि का स्मरण करके जो हितकर, सत्य और नीति का साररूप था, ऐसा वचन कहना आरम्भ किया । मुनि ने कहा — महाभाग ! अपने घर जाओ और सनातनधर्म की रक्षा करो; क्योंकि धर्म के सुरक्षित रहने पर सारी सम्पत्तियाँ सदा स्थिररूप से निवास करती हैं – यह पूर्णतया निश्चित है। राजन् ! तुम्हें भोजन से वञ्चित देखकर मैं अपने घर लाया और विधिपूर्वक यथाशक्ति तुम्हारा आदर-सत्कार किया। इस समय तुम्हें मूर्च्छित देखकर मैंने चरणधूलि और शुभाशीर्वाद दिया, जिससे तुम्हारी मूर्च्छा दूर हुई; अत: तुम्हारा ऐसा कहना उचित नहीं है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उस वचन को सुनकर राजा ने मुनिवर को प्रणाम किया और एक- दूसरे रथ पर सवार हो ‘युद्ध कीजिये ‘ — ऐसे ललकारा। तब मुनि भी कवच धारण करके उससे युद्ध करने के लिये उद्यत हो गये। क्रोध के कारण राजा की बुद्धि मारी गयी थी; अतः वह मुनि के साथ जूझने लगा । मुनि ने कपिला द्वारा दी गयी शक्ति और शस्त्र के बल से राजा को शस्त्रहीन करके मूर्च्छित कर दिया। तब कमललोचन राजा कार्तवीर्य पुनः होश में आकर क्रोधपूर्वक मुनि के साथ लोहा लेने लगा। उस नृपश्रेष्ठ ने समरभूमि में आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, तब मुनि ने वारुणास्त्र द्वारा उसे हँसते-हँसते शान्त कर दिया। फिर राजा ने रणभूमि में मुनि के ऊपर वारुणास्त्र फेंका, तब मुनि ने लीलापूर्वक वायव्यास्त्र द्वारा उसे शान्त कर दिया । तब राजा ने युद्धस्थल में वायव्यास्त्र चलाया; मुनि ने उसे उसी क्षण गान्धर्वास्त्र द्वारा निवारण कर दिया। फिर नरेश ने रण के मुहाने पर नागास्त्र छोड़ा, मुनिवर ने उसे हर्षपूर्वक तत्काल ही गारुड़ास्त्र द्वारा प्रतिहत कर दिया। तब नृपवर ने, जो सैकड़ों सूर्यों के समान कान्तिमान् एवं दसों दिशाओं को उद्दीप्त करनेवाला था, उस माहेश्वर नामक महान् अस्त्र का प्रयोग किया। नारद ! तब मुनि ने बड़े यत्न के साथ त्रिलोकव्यापी दिव्य वैष्णवास्त्र द्वारा उसका निवारण कर दिया और फिर यत्नपूर्वक नारायणास्त्र चलाया। उस अस्त्र को देखकर महाराज कार्तवीर्य उसे नमस्कार करके शरणागत हो गया। तब प्रलयाग्नि के समान वह अस्त्र वहाँ ऊपर- ही-ऊपर घूमकर क्षणभर तक दसों दिशाओं को प्रकाशित करके स्वयं अन्तर्धान हो गया। फिर मुनि ने रणके मुहाने पर जृम्भणास्त्र छोड़ा। उस अस्त्र के प्रभाव से राजा को निद्रा ने आ घेरा और वह मृतक-तुल्य होकर सो गया। तब राजा को निद्रित देखकर मुनि ने उसी क्षण अर्धचन्द्र द्वारा उस भूपाल के सारथि, रथ और धनुषबाण को छिन्न-भिन्न कर दिया । क्षुरप्र से मुकुट, छत्र और कवच काट डाला तथा भाँति-भाँति के अस्त्र-प्रयोग से उसके अस्त्र, तरकस और घोड़ों की धज्जियाँ उड़ा दीं। फिर युद्धस्थल में हँसते हुए मुनि ने खेल-ही-खेल में नागास्त्र द्वारा राजा के सभी मन्त्रियों को बाँधकर कैद कर लिया; फिर लीलापूर्वक उत्तम मन्त्र का प्रयोग करके उस राजा को जगाया और उन बँधे हुए सभी मन्त्रियों को उसे दिखाया । राजा को दिखाकर मुनि ने तत्काल ही उन्हें बन्धन-मुक्त कर दिया और नरेश को आशीर्वाद देकर कहा — ‘राजन् ! अब अपने घर जाओ ।’ परंतु राजा क्रोध से भरा हुआ था। उसने उठकर त्रिशूल उठा लिया और यत्नपूर्वक उसे मुनिवर जमदग्नि पर चला दिया। तब मुनि ने उस पर शक्ति से प्रहार किया । इसी बीच उस युद्धस्थल में ब्रह्मा ने आकर उत्तम नीति द्वारा उन दोनों में परस्पर प्रेम स्थापित करा दिया। तब मुनि ने संतुष्ट होकर रणक्षेत्र में ब्रह्मा के चरणों में प्रणिपात किया और राजा ब्रह्मा तथा मुनि को नमस्कार करके अपने घर को प्रस्थान कर गया। फिर मुनि और ब्रह्मा अपने-अपने भवन को चले गये। इस प्रकार इसका वर्णन तो कर दिया, अब आगे तुमसे कुछ और कहूँगा । (अध्याय २६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायण संवादे जमदग्निकार्तवीर्ययुद्धोपशमवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related